शाम को ऑफिस से निकला तो थोड़ी-थोड़ी बरसात की बूंदे पड़नी शुरू हो गयी थी । दिल तो किया वापिस आफिस में जाकर चाय के साथ पकौड़े खाऊं ।
बहुत बढ़िया पकौड़े बनाता है राम सिंह । छह बजे चुके थे ।
फिर सुनीता की याद आ गयी वो घर पर अकेली इंतज़ार करती रहेगी । घर भी तो दूर है । अभी निकलूँगा तो कम से कम दो घंटे लग जाएंगे घर पहुंचते पहुँचते ।
मैनें पार्किंग से बाईक निकाली और निकल पड़ा रिंग रोड़ पर नोएडा की तरफ । बहुत ट्रैफिक था सड़क पर तो सोचा अंदर की तरफ डिफेंस कॉलोनी के अंदर से निकाल लूँ । जैसे ही उधर से निकाली तो आगे ख़ुदाई से सड़क सारी पटी पड़ी थी । साइड से निकालनी चाही तो ढलान पर बाइक फिसलती ही चली गयी और कंट्रोल से बाहर हो गयी । आगे से एक अम्बेसेडर ने कैसे मारी मुझे कुछ याद नहीं । जब मुझे होश आया तो मैं अस्पताल में था । सर, पाँव घुटने सब जगह चोटों का अम्बार लगा था । खुदा को सो सो दुआएं दी कि मैं फिर भी सही सलामत था । ववत देखा तो रात के ग्यारह बज चुके थे ।
दिमाग़ परेशान हो गया सुनीता का क्या हाल हो रहा होगा ? सोचा पहले उसे फ़ोन कर लूँ । जेब में हाथ डाला तो फ़ोन गायब था ।
पैंट की दूसरी जेब में हाथ डाला तो पर्स सब कुछ गायब ।
हाथ में घड़ी भी नहीं थी । मुझे कुछ याद नहीं आ रहा हुआ क्या था । सुनीता ने आज अपनी छोटी बहिन की शादी में जाने के लिए पच्चीस हजार मंगवाए थे वो भी मेरी जेब में थे ।
इन सभी परेशानियों से घिरा मैं अस्पताल के बिस्तर पर लेटा परेशान होने लगा । ये तो वही बात हो गयी "गरीबी में आटा गीला" । मॉलिक से बड़ी मुश्किल से इस बार तनख्वाह के पांच सौ रुपये बढ़वाए थे । गुज़ारा होना मुश्किल हो रहा था । इतनी देर में दूर सुनीता की आवाज सुनाई दी । वो रोती-रोती भागी चली आ रही थी । उसने आते ही बताया कि भला हो उस आदमी का जिसने तुम्हारे फ़ोन से ही फोन कर मुझे बताया कि तुम यहाँ हो । पागल हो गयी थी मैं ।
अरे वो भला आदमी कौन था ?
"अरे वो जो भी था मेरे लिए भगवान ही था पता नहीं क्या हो जाता" --सुनीता बोली
मैं जोर से बोला -"अरे वो मुझे पूरा का पूरा लूट के ले गया । फोन भी ले गया । तेरे लिए पैसे निकलवाये थे वो भी ले गया ।"
फिर मुझे याद आया ।
"ओहो वो बाइक भी तो नहीं ले गया क्या? ओह ! गॉड !अब क्या होगा ?"
इतना कुछ नुकसान हो जाने के बाद भी सुनीता खुश थी कि मैं सही सलामत उसे मिल गया ।
किसी तरह रात बीती ।
सुबह अस्पताल ने ठोक के बावन हजार का बिल दे दिया । मेरा माथा खराब हो गया । सुनीता भी सोच में पड़ गयी । सुनीता फ़टाफ़ट अस्पताल में ही लगे ए टी एम पर गयी । दो मिनट में ही वापिस आ गयी । अकॉउंट भी खाली हो गया था । वो शक़्स पूरी तरह लूट कर ले गया था । अब समस्या बिल देने की हो गयी कि कहाँ से देंगे ।
सुनीता ने तो रोना शुरू कर दिया । अब कोई भी ऐसा नज़र नही आ रहा था जो सहायता कर सके । सुबह के ग्यारह बज गए थे ।
वार्ड बॉय आया और बोला --"अभी गए नहीं??"
अब हम उसे क्या बोलते कि बिल देने के लिए हमारे पास एक कौड़ी भी नहीं है । तो ये बावन हजार का बिल??
अब बेइज्जती जो होगी वो अलग ।
सोच-सोच कर जब कोई रास्ता न निकला तो सुनीता बोली -- "मैं अस्पताल के डीन से जाकर बात करती हूँ कि हमारे साथ ये घटना हुई है तो आप ही बताओ कैसे करें । वही शायद कुछ रास्ता बता दे?
मैनें कहा -- "मेरी तो हिम्मत नहीं हो रही अब तुम ही देख लो जो ठीक है"
इतने में वार्ड बॉय फिर आया-- "अरे भाई यहाँ नया पेशेंट आ रहा है खाली करो न तुम ! जाते क्यों नहीं ?"
सुनीता ये सुन फ़टाफ़ट पहले वार्ड की इंचार्ज के पास गई और पूछा-- "डीन कहाँ बैठते हैं?"
वार्ड की इंचार्ज घबरा गयी और बोली-- "मैडम !! क्यों हमसे कोई गलती हो गयी क्या?"
सुनीता बोली-- "नहीं,नहीं वो पेमेंट के---"
वो इंचार्ज एकदम बोली---'मैडम आपकी पेमेंट हो तो गयी है । ये एक लिफाफा भी आपके नाम पड़ा है ये लीजिये ।"
इंचार्ज ने अपनी दराज से एक लिफाफा भी निकाल के सुनीता को पकड़ा दिया ।
सुनीता सोच में पड़ गयी ....ये कौन सी और किसकी पेमेंट कर गया कोई । लगता है किसी को कोई गलती लगी है ।
लिफाफा उल्टा सीधा करके देखने लगी ।
आखिर उसने लिफाफा खोल कर देखने का फैसला किया ।और खोल दिया उसमें एक सुंदर सी स्लिप निकली । जिस पर लिखा था कि ---
"वक़्त पड़ने पर तुम भी फिर दुबारा ऐसे ही किसी ज़रूरत मंद की मदद ज़रूर करना ।"
साथ में अस्पताल के बिल की बावन हज़ार की रसीद भी लगी थी । उसके साथ एक और भारी लिफाफा था ।
उसे खोला तो उसमें पचास हज़ार रुपये ।
औऱ एक चिट्ठी थी जिसे बिना खोले ही वो मेरे पास भागी चली आयी । ये सब देख सुनीता घबरा गई और भागी-भागी मेरे पास आई । उसने आकर सब कुछ बताया ।
मैनें वो चिट्ठी खोली और पढ़ते-पढ़ते उस शख्स की शक्ल शीशे की तरह कौंध गयी--वो फटी-पुरानी कमीज, फाटे जूते जिसे मैंने अपने जूते भी दे दिए थे ।
उसने लिखा था :- दोस्त ज़िन्दगी में आपकी ही तरह मैनें भी बहुत चोटें खाईं हैं । मुझे अपनों-परायों दोनों ने ही खूब लूटा । मगर मुझे सहारा देने वालों को मैं कभी नहीं भूलता । आप इसे अहसान मत समझियेगा । आपको शायद याद नहीं अनजान दोस्त "मैं उमेद सिंह" तुम्हारे कॉलेज का वो गरीब लड़का जिसे आप जानते भी नहीं थे । जिसके इम्तिहान की फीस आखिरी वक्त पर आपने ही भरी थी और ये गरीब अपनी पढ़ाई जारी रख मैंनें इतना ऊंचा मुकाम हासिल किया है ।अब यहाँ हूँ । उस दिन अगर फीस जमा न होती तो मैं यहॉं न होता । इस अस्पताल में अक्सर आता हूँ। हमारी कंपनी इस अस्पताल को हर साल ऐड देती है । उसी सिलसिले में आया तो आपको जब लाया गया उस वक़्त मैं भी इमरजेंसी में तहकीकात जे लिए मौजूद था तो आपको पहचान लिया। सामने आ जाता तो शायद आओके अहम को ठेस लगती ।नीचे छोटा सा एड्रेस है--उमेद, चेयरमैन उडीपी निकाय उड़ीसा । कभी भी मन करे चले आना ।..उमेद
मैं अपनी आंखों में आंसू लिए सुनीता को बोला चलो चले ।
"ये भला मानस कौन था ?" --सुनीता ने पूछा ।
"ये मेरे वाला भला मानस"--कहते हुए मैनें व्व चिट्ठी सुनीता को दे दी ।
मन में संतोष ले अस्पताल से निकल ऑटो किया और सीधे घर पहुंचे ।
घर पहुंचते ही दूसरा झटका फिर लगा ।
घर के दरवाजे को हाथ लगाया तो वो खुला पड़ा था । अंदर सभी दरवाजे खुले थे । अन्दर गए सारा खाली । कोई सामान नहीं । सब गायब हो चुका था । सिर्फ दिवारें ही दीवारें ।
उनको देख दो तीन पडौसी आ गए । वो हैरानी से उन्हें देखने लगे औऱ पूछने लगे--" शर्मा जी आप वापिस आ गए? रात को तो दो ट्रको में सामान लाद कर तुम मद्रास चले गए थे इतनी जल्दी वापिस ?"
हम दोनों समझ गए थे कि ये पहले वाले " भले मानस आदमी का ही काम है ये ।"
हर्ष महाजन 'हर्ष'
★★★★★★★समाप्त★★★★★★★
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