आज सुबह ड्राइंग रूम में बैठा खिड़की से एक बहुत ही ऊंचे दरख़्त पर लटकी उस पतंग पर चली गयी जो अपनी डोर के सहारे कभी इधर कभी उधर झूल रही थी । मैं ये सोचने पर मजबूर था कि इतनी बरसात हुई लेकिन ये पतंग वैसे ही अटल तरीके से आज भी हवा से वैसे ही झूल रही थी । शायद वो पॉलीथिन की बनाई पतंग थी । पतंग की तरफ ध्यान इस लिए भी ज्यादा जाता रहा क्यों मेरा औऱ पतंग का रिश्ता बचपन से ही रहा है ।चाय की चुस्की लेते-लेते ख्याल खान से कहां उड़ान भरने लगा मुझे पता भी न चला ।
बचपन के वो दिन जब खेलों के नाम पर बस---स्कूल से घर आकर बस्ता फेंका औऱ घर के बाहर खो-खो, रबर की गेंद के साथ लान टेनिस, चिड़ी छिक्का, लंगड़ी टांग, कबड्डी, क्रिकेट या फिर चोर सियाही औऱ सावन में सीधे छत पर पतंग ।
मुझे बचपन का वो किस्सा आज भी भुलाए नहीं भूलता । उस वक़्त मैं छठी क्लास में पढ़ता था । पतंग उड़ाने का शौक ज़िन्दगी में शायद सभी बच्चों का रहा होगा पर मुझे कुछ ज्यादा ही था । ये तो स्वाभाविक है कि किसी भी शौक को अगर किसी के द्वारा भी रोका जाए तो वो ओर भी उभर कर बाहर निकल कर आता है । या यूँ कहिये कि वो विद्रोह बन बढ़ जाता है । मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही था । पिता जी को मेरा पतंग उड़ाना पसंद नहीं था । इस लिये नहीं कि उन्हें पतंग से नफरत थी बल्कि इसलिए को बच्चों से हद से भी ज्यादा मुहब्बत किया करते थे । वो नहीं चाहते थे कि पतंग की वजह से छत पर कोई हादसा न हो जाये । क्योंकि अखबारों में सावन के दिनों में बहुत सी ऐसी खबरें आ जाय करती थी । मैं फिर भी उनसे छिप-छिप कर उनसे नज़रें बचाता हुआ छत पर पहुंच जाता ।
उन दिनों जेब खर्च के लिए बंदी खर्ची मिला करती थी । महीने बाद इकट्ठी ले लो या रोज़-रोज़ ले लो । सारी ख़र्ची पतंगे उड़ाने और डोर लाने में ही जल्द खत्म हो जाती थी । औऱ हम फिर से ठन-ठन गोपाल । फिर मैं तो छत पर जा कर आसमान में उड़ती पतंगों को देख कर ही आनंद ले लिया करता था औऱ आंखें लाल कर लिया जरते था ।
कुछ पतंगे जो कट कर छत पर आतीं थी उन्हें इकट्ठा करना भी एक शौक हो गया था ।
हमारा मकान ऐसी पोजिशन पर था कि कट कर हमारी छत पर बहुत पतंगे आती थी । मैं उन्हें इकट्ठा कर छत पर हमारी एक टीनों से बनी बरसात रोकने के लिए एक आधे से कमरे सी टपडी बनी थी, जहां हमारे छत पर सोने के बाद सुबह सारी खाटें वहीं रख दिया करते थे । मैं अपनी सारी पतंगे उसके नीचे ही रख दिया करता था । डोर को भी बहुत सी चारपाइयों के पीछे छुपा दिया करता था ।
जिस गली में हम रहते थे । उस गली में हमारे सामने भी एक चार मंजिला मकान था जिसकी छत पर उन लोगों ने वहॉं बहुत सारे कबूतर पाल रखे थे जिन्हें वो तेज़-तेज़ सीटियां मार-मार कर उड़ाया करते थे । चूंकि वो पालतू कबूतर थे तो वो आसमान की दूर तक फेरी लगाकर आते और उनकी छतपर वापिस आकर बैठ जाया करते थे। यही सिलसिला वो दिन में कई बार दोहराते ।
मुझे भी उनके कई रंग के कबूतर उड़ते हुए बहुत अच्छे लगते थे । मैं कभी पतंगों को, तो कभी उनके कबूतरों को निहारता खुश होता ।
अब मेरे साथ एक अजीब सा सिलसिला शुरू हो गया । मैं पतंगे इकट्ठी कर चारपाई के पीछे रख के जाता । कई बार वो सारी पतंगे गायब हो जाया करती । कभी-कभी तो एक दो पतंग बची होती बाकी गायब । औऱ जो बच जाती वो भी कहीं न कहीं से फटी हुई होती । ये सिलसिला बड़े दिनों तक चलता रहा । जिस दिन गायब न होतीं उस दिन मेरा ख़ुशी का ठिकाना न रहता ।
अब ये पतंग चोर कौन था ? उसे ढूंढना मेरे लिए तो एक पेचिदा सवाल था ।
मेरी समझ से बिल्कुल बाहर था कि पतंगे जाती कहाँ है । हमारे साथ वाला मकान बहुत ऊँचा था । उस मकान से कोई नीचे आ नहीं सकता था । दूसरी साइड वाला मकान इतना नीचे था कि वहाँ से भी कोई ऊपर नहीं आ सकता था । अब पतंगों के गायब होने की पहेली मेरे लिए सर दर्द बनी हुई थी । अब ये बात पूछूं तो पूछूं किससे या बताऊँ किसे ?
मैं बार-बार जब पतंगों के इस सिलसिले से परिशान हो रहा होता था तो वो लड़का जो कबूतर उड़ाता था वो निरंतर मुझे परेशान होता देखता रहता था । लेकिन मुझे इस बात का जरा भी इल्म नहीं था ।
मेरे पिताजी को मेरा पतंगे उड़ाना पसंद नहीं था इसलिए उन पतंगों को मैं नीचे भी नहीं ले जा सकता था ।
एक दिन हमारे घर में कोई फंक्शन था काफ़ी रिश्तेदार घर पर आये थे उन्होंने हमें सगण के तौर पर कुछ पैसे दिए थे जिनसे मैं बाजार से खूब सारी पतंगे औऱ डोर ले आया । मुझे याद है उस दिन मेरे पास मेरी छत पर 35 पतंगें थी । कुछ पतंगे छत पर वैसे ही कट कर आयीं थी वो भी थीं । सब मैनें जगह बदल कर अलग से रखीं थीं ।
मैं अगले दिन जब स्कूल से आया । फ़टाफ़ट खाना खाया और उसके बाद जब मैं ऊपर गया तो देखा कि मैं जो भी पतंगे तथा डोर बाज़ार से लाया था और जो पतंगें मैनें छत पर जमा भी की थीं । सब गायब थीं । एक भी पतंग नहीं थी औऱ सबसे ज्यादा दुख मुझे उस शीशे की सुराही का हुआ, जो पिछले दिन मैं ऊपर ही छोड़ गया था । वो नीचे गिर कर टूटी पड़ी थी ।
मुझे बहुत तगड़ा झटका लगा । मेरे जैसे होश उड़ गए हों । दिमाग़ भिन्ना गया । मैं अपना सर पकड़ कर खाट बिछा कर बैठ गया । मेरी आँखों से धीरे-धीरे आँसू निकलने लगे थे ।
वो सामने छत पर कबूतर उड़ाने वाला लड़का उस दिन भी मुझे देख रहा था । उसे उस दिन शायद मुझ पर तरस आ गया या उसे भी मेरे दुख में शरीक होना था ।
उसने मुझे आवाज़ लगाई --"ओ डॉक्टर !!"
मेरे पिताजी डाक्टर थे तो आसपास सभी मुझे डॉक्टर के नाम से ही बुलाते थे ।
मैनें भीगी आँखों से अपना सर ऊपर उठाया और उसकी तरफ देखा । वो लड़का मेरी तरफ इशारा कर बोला --"ज़रा नीचे आ"
मैं घबरा गया कि अब ये क्यों मुझे नीचे बुला रहा है । उससे मेरी कभी भी बात नहीं होती थी । सच कहूँ तो मैं जल्दी-जल्दी किसी के साथ फ्री भी नहीं हुआ करता था । थोड़ा रिसर्व स्वभाव समझ लो ।
उसने मुझे दुबारा आवाज़ लगाई तो मैं नीचे जाने को तैयार हो गया ।
वो समझ गया था कि मैं घबरा रहा हूँ। उसने मुझे इशारे से बताया कि पतंग की बात है ।
मुझे अब कुछ-कुछ महसूस होने लगा कि शायद इसे पतंगों की चोरी के बारे में कुछ पता ज़रूर है ।
उसने मुझे बताया कि उस दीपक तुम्हारी पतंगे चुराता था । वो साथ वाले मकान से एक लंबी लोहे की सीख जिसके कोने में गुंडी बना रखी थी उससे वो सारी पतंगे औऱ डोर खींच लेता था । कल उसने जब पतंगे खींची तो देखा कि तुम्हारी नई पतंगे बहुत ज्यादा थीं तो मुझे ये अच्छा नहीं लगा । इसलिए तुम्हें बताना मैनें ठीक समझा । उसने मुझे मेरी हैल्प के लिए भी कहा-- की कहो तो उसे कूट दूँ ? जिस्म से वो बहुत ताकतवर भी था ।
मैनें मना करते हुए उसे धन्यवाद कहा और उसे अपनी दुविधा भी बता दी कि अगर पिताजी को पता चल गया तो पिटाई औऱ हो जायेगी ।
मैनें दिल ही दिल में उसे सबक सिखाने का मन बना लिया था । जिस से सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे ।
मेरी क्लास में मनमोहन नाम का एक लड़का पड़ता था । वो मेरा पक्का दोस्त था । उसके पापा बिजली का काम करते थे । स्कूल से वापिस आने के बाद वो पापा के साथ दुकान पर बैठा करता था ।
मैनें उसको सारा किस्सा सुनाया औऱ बताया की लोहे की छड़ से वो समान उठाता औऱ चोरी करता है ।
उसको पल भर में ही सारी बात समझ में आ गयी । उसने दुकान से एक लंबी पतली तार ली और उसके साथ एक ऐसा सिस्टम बना दिया कि पतंगों के साथ जैसे ही उसकी लोहे की सीख टच करेगी । उसे बहुत तगड़ा झटका लगेगा । फिर कभी ज़िन्दगी में इधर रुख नहीं करेगा ।
सबसे पहले हमने 35 बड़ी-बड़ी सुंदर-सुंदर पतंगे ली । और अगले दिन हम दोनों ने स्कूल से छुट्टी ले ली औऱ सुबह से ही छत पर ये सिस्टम का जाल लगाकर बैठ गए औऱ दीपक का बेसब्री से इंतज़ार करने लगे ।
सुबह से दुपहर । दुपहर से शाम हो गयी । वो नहीं आया । हम दोनों ने दुपहर की रोटी भी नहीं खाई थी । भूख भी लगी थी । सोचा कि अब कल फिर जाल लगाएंगे औऱ हम दोनों कल के लिए बात कर नीचे उतरे ।
मैं खाना खाकर टहलने के लिए गली में निकला तो वही कबूतर वाला लड़का दूर से आवाज़ मारता हुआ बोला--"डॉक्टर ! आज तो तुम्हारी पतंगे सब सही सलामत है न ?"
मैं सोचने लगा शायद इसने हमें छत पर रखवाली करते देख लिया होगा । वो कहता हुआ थोड़ा पास आया तो मैनें भी उसे कहा आज अगर वो ये गलती कर देता तो शायद उसकी ज़िन्दगी की आखिरी गलती होती।
लेकिन मेरी इस बात पर वो लड़का थोड़ा सीरियस होकर बोला- "दीपक सच में ये गलती इस ज़िन्दगी में तो दुबारा नहीं कर पायेगा। ? वह अब नहीं आएगा, सुबह-सुबह उसकी बाइक से एक्सीडेंट में मौत हो गयी ।
मैं उसके मुँह से ये शब्द सुनकर एकदम स्तब्ध रह गया, अगले ही पल सब कुछ बदला-बदला सा नजर आने लगा। जो मन द्वेष से भरा था वो मन एकदम दुखी हो गया उसकी मृत्यु की खबर सुनकर ।
कुछ भी हो मौत एक शाश्वत सत्य है, जिसके सामने सब झूठ है, मृत्यु सारे गिले-शिकवे, द्वेष मिटा देती है और हर कोई मृत आत्मा की शांति की कामना करता है ।
मुझे अब कुछ अच्छा नहीं लग रहा था । मुझे अपने ऊपर गुस्सा आने लगा था । परिस्थितियां बदल चुकीं थी ।
मैंने तुरंत घर जाना ही उचित समझा । घर आकर मैं सीधा छत पर गया और अपनी सुंदर पतंगों पर नजर डाली । खूबसूरत चुन कर लायी गयी पतंगे थी । रोज़ ऐसी पतंगों को निहारा करता था तो दिल प्रफुल्लित हो जाया करता था ।
इतनी खूबसूरत पतंगे देखकर भी मन प्रसन्न नहीं हो रहा था ।
कोई भी पतंग अब अच्छी नहीं लग रही थी । आसमान में उड़ती पतंगों की उड़ान में अब वो आनंद नहीं आ रहा था ।
पतंगे वही थी । जगह भी वही थी । वो कबूतर उड़ाने वाला लड़का आज भी वैसे ही मुझे रोज़ की तरह देख रहा था । पर आसमान में उड़ती पतंगों पर कोउ ध्यान नहीं था । लेकिन जो पतंगे मेरे पास भी थीं अब वो मुझे आनंदित नहीं कर पा रहीं थीं ।
एक अनजान सा मोह उस अनजान व्यक्तित्व से हो चला था शायद ।
मैनें वो सारी पतंगे उठाईं औऱ बनेरे के पास खड़े ही एक-एक कर सबको हवा में उछलता चला गया ।
वो कबूतर वाला लड़का आज कबूतर नहीं उड़ा रहा था वो भी शायद मौन हो मेरे साथ इस शोक में श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा था ।
आज भी पतंगों को देखता हूँ तो वो दीपक आंखों के आगे चला आता है ।
मेरी सोच का तातां तब टूटा जब मेरी शरीक-ए-हयात ने जब मेरे हाथ से चाय का भरा प्याला मुझसे वापिस मांगा ।
"★★★★★समाप्त★★★★★
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