★फरवरी का महीना कड़ाके की ठिठुरने वाली ठंड औऱ सुधा फिरोजी रंग की साड़ी औऱ उसके ऊपर हल्के ब्राउन रंग का ओवर कोट पहने, नई दिल्ली स्टेशन पर खड़े, इस उम्र में भी बला की खूबसूरत लग रही थी ।
उसको ज्यादा देर इंतज़ार नहीं करना पड़ा था । गाड़ी प्लेटफॉर्म पर जल्दी ही आकर लग गई थी ।
उसने दुर्ग फेस्टिवल स्पेशल ट्रेन अभी पकड़ी ही थी कि उसने पटरी पर रेंगना शुरू कर दिया । ट्रेन में अपनी सीट पर बैठ, अपना बैग सीट के नीचे रखा और इत्मीनान से अपनी खिड़की वाली सीट पर बैठ गयी । उस दिन वो बड़ी खुश थी । बेटी आर्या के पास जाने का सुखद आनंद लेते हुए अपनी सीट पर सेट होने के बाद उसका दिमाग़ फिर पहले की ही तरह अपनी पुरानी यादों में खोकर खिड़की से बाहर शून्य में देखने लगी थी ।
ख्याल उचाईयां छूने लगे थे और सोच रही थी कि आज वो काफ़ी अरसे बाद लगभग दस साल के बाद अपनी बेटी आरु के पास मिलने जा रही थी । फख्र था उसे कि वह उस वक़्त बहुत बड़े ओहदे पर कार्यरत थी ।
सुधा सोच रही थी कि अगर उसको उसकी कंपनी का मालिक *प्रताप वासवानी* ने उस वक़्त सहारा न दिया होता तो उसका क्या होता ?
उन्होंने अपनी कंपनी का पूरा भार उसके काँधे पर डाल दुनियाँ से विदा ले ली थी ।
सुधा का सोच तंत्र तब भंग हुआ जब एक छोटा सा बच्चा नानी-नानी करता हुआ सुधा से आकर लिपट गया ।
ये देख सुधा ने हैरान हो पहले उस बच्चे की ओर फिर पीछे आती उसकी माँ की ओर देखा ।
उसकी माँ लगभग बाईस या तेईस वर्ष की होगी । शक्ल से बहुत ही सुंदर और सुशील लेकिन उसकी उदासी उसके चेहरे पर साफ-साफ झलक रही थी । वो बिना किसी भाव के उसके सामने वाली सीट पर आकर बैठ गयी ।
बच्चे के साथ उसका वार्तालाप बता रहा था कि वो दो साल का बच्चा जो उसकी बेटी ही थी ।
एक बैग जब उस लेडी ने सीट के नीचे रखा तो उसकी गर्दन पर पड़े कुछ ताजे ऐसे निशान दिखे जो ऐसा लग रहा था कि किसी से उसके साथ मारा पीटी की है ये उसी का नतीजा है ।
उस लड़की ने अपनी बच्ची को गोद में बिठा लिया और अपनी सीट पर बैठ कर खिड़की से बाहर देखने लगी ।
सुधा उसे एक टक देख रही थी । उस लड़की की पलकें उसके आंसूओं का बोझ शायद सहन नहीं पा रही थीं ।
सुधा को कुछ-कुछ तो समझ आ रहा था । वो दो साल की प्यारी सी बच्ची सुधा की ओर देख कर बार-बार मुस्करा कर उसे नानी-नानी पुकार रही थी । सुधा ने प्यार से उसे अपने पास बुलाया तो वो चुम्बक की तरह आराम से उसके पास चली आयी ।
उसकी माँ जो अभी तक आँसू बहा रही थी ---हैरान होकर सुधा की ओर देखने लगी और बोली--"कमाल है? ये तो किसी के पास नहीं जाती । चाहे कोई भी हो? लेकिन आपके पास तो बिना बुलाये औऱ एक बार बुलाने पर ही चली गयी ? वेरी स्ट्रेंज !"
"हॉं~~~~प्यार में बहुत ताकत होती है~~~~~"
"रुबीना!!!----मेरा नाम रुबीना है"---उस लड़की ने अपना नाम बताते हुए आगे मुस्कराते हुए कहा -- "और इसका नाम *अनाया* है"
कुछ देर का सन्नाटा
फिर सुधा बोली--"प्यार एक ऐसी चीज़ है जो खुद ही रूहों को अपनीं ओर खींच लेता है"
"नहीं ! ------(फिर थोड़ा रुक कर) मैं नहीं मानती ।"--अनाया के सर पर हाथ फेरते हुए *रुबीना* ने कहा ।
तुरंत ऐसा जवाब सुनकर *सुधा* ने एक बार रुबीना की ओर देखा और फिर अनाया के सर पर हाथ फेरते हुए पूछा--"इसके पापा नहीं आए साथ क्या ?"
ये पूछते हुए सुधा को अपना वक़्त याद आ गया । जब दो महीने की आर्या बस नन्हीं कली थी औऱ उसके पिता ने चुपके से अपने हाथ का साया पीछे खींच लिया था ।
सुधा के इस प्रश्न ने रुबीना को एकदम असहज कर दिया ।
उसके चेहरे के भाव धीरे-धीरे बदलने लगे । कुछ देर अपने को संभाल अपने उबलते भावों को रोकते हुए बोली---"इसके पापा के बारे में न ही पूछें तो अच्छा है ।"
सुधा ने सब कुछ थोड़ा समझने की कोशिश करते हुए ।
"क्यों ऐसा क्यों ?"---सुधा ने पूछा और फिर रिलॉइस किया कि उसे ये प्रश्न नही पूछना चाहिए था ।
लेकिन रुबीना ने बताया--"वो इसका पापा कम, दुश्मन ज्यादा था ।"
"था ? मतलब?"
"हॉं--था ! छोड़ आयीं हूँ उसे हमेशा के लिए ।
फिर थोड़ा रुक कर
तंग आ गयी थी मार खा-खा के । जब से *अनाया* पैदा हुई, मतलब जब से ये इस दुनियाँ में आई, उसके बाद से ही उस शख़्स के तेवर ही बदल गए"
"क्यूँ ? ऐसा क्यूँ ?"
"वही धकियानूसी समाज, उसे भी लड़का ही चाहिए था न ?"
"ओह !~~~~~तो अब फिर कहां जा रही हो आप ?
"भिलाई !! अपनी माँ के पास"
"आपके पिता ?"
"वो नहीं रहे ! दो साल पहले उन्हें अटैक आया और~~~"
"और माँ क्या करतीं हैं?"
"पापा की पेंशन आती है न"
इतनी बात सुन सुधा का दिमाग़ घूमने लगा । उसको अपनी जवानी में बीती वो सारी दास्ताँ एक फ़िल्म की तरह याद आने लगी थी ।
💐💐💐
सुधा का उस दिन फाइनल ईयर का आख़िरी इम्तिहान था । वो बहुत उदास और घबराई हुई थी । लेकिन जल्दी से तैयार हो कर पूरी तैयारी के साथ वो कॉलेज जल्दी पहुँची थी कि उसे गेट पर ही टाईम का पाबंद मुकेश मिल गया । मुकेश ने देखा कि वो थोड़ा घबराई हुई सी लग रही थी ।
मूकेश ने उसकी घबराहट कम करने के लिहाज से उसे समझाने की कोशिश की कि उस दिन आख़िरी इम्तिहान है घबराने की क्या बात है ? तुम इंटेलिजेंट हो सब ठीक होगा चिंता मत करो सुधा डियर ?
"अरे इम्तिहान से थोड़े ही डर रही रही हूँ मुकेश, तुम भी न"
"तो फिर?"
"मुझे डर लग रहा है आज आख़िरी इम्तिहान है । आज के बाद सारा-सारा दिन मुझे घर पर ही रहना पड़ा करेगा और वही पापा की चिकचिक सुननी पड़ा करेगी । तुमसे मिलना भी मुश्किल हो जाएगा"
"ऐसा क्या है यार वो ऐसा क्यों करते हैं?"
"उन्हें लड़कियाँ बिल्कुल भी पसंद नहीं । पहले जब उमा दीदी पैदा हुई थी तो भी मुहल्ले वाले बताते हैं कि घर में उस वक़्त भी बहुत हंगामा हुआ था । मम्मी को कई बार तंग आकर मायके भी जाना पड़ा था ।"
"और जब तुम पैदा हुई तो?"
"तो तुम खुद अंदाजा लगा सकते हो कि क्या हुआ होगा ।"
"तुम्हारे सो कॉल्ड पापा श्री चंद्र टेक्चन्दानी जी का कोई तो इलाज होगा?"
"कोई इलाज नहीं है"
" तुम्हारे रिश्तेदार नहीं हैं क्या ? सब मिलके कुछ कहते क्यों नहीं उन्हें ?"
"मुसीबत में कोई किसी का नहीं होता मुकेश । सब तुम्हारी तरह नही होते"
'मेरे बस में होता तो उन्हें सबक ज़रूर सिखाता"
सुधा उसकी शक्ल देखते हुए बोली --"क्या कह रहे हो?"
"हॉं यार तुम्हें दुखी अब देखा नहीं जाता । लड़कियों के बिना तो घर सूना ही लगता है । तुम्हें पता है ? हम भी दो भाई है और हम तो बहनों के लिए तरसते हैं "
"चलो इस बात की तो चिंता नहीं है न अब मुझे ?"--सुधा उसकी ओर प्रश्न भरी दृष्टि से औऱ मुस्कराकर देखते हुए बोली ।
"तेरे पापा तुम्हें भी कुछ कहते हैं क्या?"
"कुछ भी बोल देते हैं । ये तो मम्मी हमारे आगे ढाल बन के सामने खड़ी हो जाती है । नहीं तो मैं तुम्हें कॉलेज में नज़र थोड़े ही आती ।"
"पापा तो हमारी पढ़ाई के भी खिलाफ़ ही थे । जब स्कूल में दाखिला लेना था तो पापा ने बोल दिया था । लड़कियां हैं इन्हें घर का काम सिखाओ । पढ़ाने-वढाने की कोई ज़रूरत नहीं है ? समझे?"
मूकेश गुस्से में बोला--"अरे लड़कियाँ कोई खैरात है या वो नॉकरानियाँ है ? हद हो गयी ।"
मम्मी ने उन्हें बहुत समझाया कि बच्चियाँ पढ़ लिख जायेंगी तो उनको अच्छे घरों में शादी कर सकेंगे ।
लेकिन पापा ने साफ मना करते हुए मम्मी को कहा था--"देखो स्नेहा ! मेरे पास इतना सरमाया नहीं है कि बेटियों को पढाने के लिए पहले उन पर पैसा लगाऊँ और फिर किसी को मुफ्त में सौंप दूँ । इसमें हमें क्या मिलेगा?"
"मैं उस वक़्त बहुत छोटी थी । मुझे अच्छी तरह याद है । उस दिन मम्मी बहुत रोई थी और बहस करते हुए दाल भी जल गई थी । इस बात पर मम्मी पे उस दिन पापा ने हाथ भी उठाया था ।"---कहते हुए सुधा की आंखों में आँसू छलक आये थे ।
"तो मम्मी ने पुलिस में रिपोर्ट क्यों नहीं की?"
"रिपोर्ट करने के बाद कहाँ जाती वो ? आना तो फिर घर पर ही था न?"
"फिर क्या हुआ?"
"उस दिन सारा दिन मम्मी रोती रही और जब रो-रो कर थक गयी तो फिर रात का खाना बनाना शुरू किया ।"
"यार ऐसे इंसान को तो पड़ौसियों को भी मिलकर मार लगानी चाहिए थी और सबक सिखाना चाहिए था कि बेटियाँ भी देश का भविष्य होती हैं ।"--तैश में मुकेश बोलता चला गया ।
लेकिन खाना बनाते हुए भी मम्मी बड़बड़ाती जा रही थी तुम जितना मर्जी मना करो-- "बेटियों को तो मैं ज़रूर पढ़ाऊंगी"
हम दोनों बहनें सिमटी हुई एक कौनें में बैठी मम्मी की सिसकती आवाजें सुन रहे थे कि अचानक पापा अंदर से बाहर रसोई में गए और कहा-- "तो फिर इन्हें मायके ले जाओ वही पढ़ा लेना"
"तो फिर मम्मी को उसी वक़्त तुम दोनों को साथ लेती और चली जाती?"
सुधा अभी भी सिसक रही थी और सिसकते हुए बोली-- "मम्मी ने यही किया औऱ हम दोनों को लेकर हमारी नानी के घर आ गई ।"
"अच्छा? वैरी गुड़ ! ये हुई न बात"-उछलता हुआ मुकेश बोला औऱ पूछा-- "तो फिर खर्चा?"
"नाना जी तो दो साल पहले ही गुज़र गए थे । नानी जी को फेमिली पेंशन मिल जाया करती थी जो उनके लिए बहुत थी ।
मम्मी जी ने एक सिलाई कढ़ाई संस्था जॉइन कर ली । उस संस्था का मॉलिक *प्रताप वासवानी* बहुत अच्छा आदमी था । मम्मी पढ़ी लिखी थी तो उसने मम्मी जी को सुपरवाइसर की पोस्ट पर रख लिया । जिससे मम्मी जी की पगार से बाकी का घर का सब खर्चा आराम से चलने लगा ।"
मुकेश अब बिल्कुल सीरियस था । अभी वो ये सब सोच ही रहा था कि आगे क्या हुआ होगा कि सुधा ने आगे बोलना शुरू किया --"अभी एक महीना ही जॉइन किया था कि मम्मी ने अपने मॉलिक से दो छुट्टियों के लिए एप्पलीकेशन लगाई तो मॉलिक ने उन्हें अपने केबिन में बुलाकर कारण पूछा तो मम्मी ने स्कूल में हमारे दोनों के एडमिशन करवाने की बात की । तो मॉलिक ने हमारी पढ़ाई का खर्चा अपनी कंपनी के खाते से करने का फैसला किया और बताया कि वो एम्प्लाइज के सभी कन्या बच्चों के लिए शिक्षा का इंतज़ाम भी करते है"
"वाऊ"---मूकेश के मुँह से एक दम निकला ।
"मम्मी की वजह से ही और उनकी मेहनत की कमाई से ही हम दोनों बहनें अभी तक पढ़ लिख रही हैं औऱ तभी मैं तुम्हारे सामने खड़ी हूँ"
"तुम चिंता न करो सुधा हम दोनों मिलकर सब ठीक कर देंगे"
"इम्तिहान के बाद हम काफी हाउस चलेंगे और तय करेंगे कब औऱ कहाँ मिलेंगे ।"
"मुकेश मुश्किल है । पापा की नज़र हमेशा पीछा करती है । हमेशा डर ही लगा रहता है"
"लेकिन सुधा, ये बताओ जब तेरी मम्मी अपनी नॉकरी से कमा कर तुम्हें पढ़ा रही है तो अब तुम्हें किस बात की रोक टोक?"
"यही शर्त रखी थी पापा ने कि अगर वो नॉकरी कर के बच्चियों को अपने पैसों से पढ़ाना चाहती है तो घर के काम पूरे होने चाहिए । चाहे माँ करे या बेटियाँ"
"अच्छा बाप है ये?"-आँखें तरेरता हुआ मुकेश बोला ।
"अच्छा मुकेश तुम मुझे एक बात बताओ ?"
"क्या ?"
"हमारा पहला बच्चा लड़की हुई तो क्या नाम रखेंगे?"
उसी वक़्त कॉलेज में इम्तिहान के लिए आये बच्चों के लिए अंदर जाने के लिए गेट खुल गया ।
अच्छा इम्तिहान के बाद में बात करते हैं सुधा । बेस्ट आफ लक ।
सुधा ने जाते हुए मुकेश को जोर से सुनाते हुए बोला--"आर्या रखेंगे मुकेश ! सुन रहे हो?"
कहते हुए सुधा अंदर चली गयी ।
💐💐💐
बड़ी बहन उमा ने एम०बी०ए० कर के अपने साथ ही पढ़ रहे एक होनहार लड़के के साथ अपनीं ज़िन्दगी बिताने का फैसला किया तो पापा उसके खिलाफ खड़े हो गए । क्योंकि वो लड़का इतना पढ़ने लिखने के बाद भी नॉकरी नहीं, अपने पिता के बिसिनेस में ही जाना चाहता था ।
लेकिन माँ की जिद्द के आगे उनकी एक न चली । पापा ने आज तक हम दोनों बहनों तथा माँ के लिए कभी कुछ नहीं किया था । इसलिए उनका वर्चस्व सबकी नजरों में उतना नहीं था ।
लेकिन हम दोनों बहनों ने उनके सामने कभी भी अपनी ज़ुबाँ नहीं खोली थी ।
बड़ी बहिन उमा कुछ ज्यादा ही सुलझी हुई थी । वो माँ को भी पापा के किये कुछ बोलने से मना किया करती थी ।
पापा को भी उसकी ज्यादा ही चिंता थी । भले ही उन्होनें उसके लिए भी कभी कुछ नहीं किया था । मैं तो मुँह फट थी न । इसलिए पापा मुझे ज्यादा पसंद नहीं करते थे ।
मगर ऐसा नहीं था कि हम उनकी इज़्ज़त नहीं करते थे । उन्हीं की वजह से बाहर किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि हमारी तरफ कोई आँख भी उठा कर देख सके । उनकी जोरदार पर्सनालिटी बड़ी रुआब वाली थी ।
मेरा पूना से एमबीए खत्म हुआ तो कॉलेज से ही एक बैंक में ऑफिसर पद पर मेरा चयन हो गया ।
आखिर बहन उमा ने किसी तरह पापा को मना कर अपनी शादी अपनी पसन्द के लड़के के साथ करवाने के लिए राजी कर ही लिया ।
मयंक एक रईस परिवार का बड़ा सुलझा हुआ लड़का था । शादी के बाद उमा, मयंक के साथ इलाहाबाद में सेटल हो गयी । वहीं उसकी नॉकरी एक एम एन सी में, ऊंचे ओहदे पर हो गयी । पहले ही साल के बाद उसके घर एक सुंदर कन्या ने जन्म लिया । पापा को ये भी अच्छा नहीं लगा ।
पापा बिना हाथ उठाये ही माँ को टॉर्चर किया करते थे । लेकिन उनके बिना रह भी नहीं सकते थे । बातें सुनाने की शायद उन्हें आदत सी पड़ गयी थी । उनकी बातों की वजह से जब मम्मी बीमार हो जाती तो वो यही कहते कि उन्होंने तो कुछ कहा ही नहीं । या कहते कि उन्होंने तो मजाक में कहा था ।
माँ की ज़िंदगी को पापा ने ऊल जलूल बातें सुना-सुना कर नरक बना दिया था । माँ धीरे-धीरे टूटती चली गयी ।
माँ ने अपनी तबीयत को देखते हुए मुझ पर प्रेशर बनाकर जल्द शादी के लिए राजी कर लिया और उन्होंने मेरी शादी मेरे कहने पर आनन-फानन में मुकेश से करवा दी ।
मुकेश इतना खुश था कि उसने हमारा हनीमून मनाने के लिए वर्ल्ड टूर की टिकटें बुक करा ली और हम शादी के बाद उस टूर पर निकल गए ।
बदकिस्मती ये थी कि अभी हम तीन चार ही देश घूमें थे कि दीदी का फोन आ गया कि माँ इस दुनियां में नही रही ।
मेरी तो जैसे दुनियाँ ही उजड़ गयी ।
उसी रात वापिसी की टिकट बुक करा हम दिल्ली वापिस लौटे औऱ माँ का बड़े भारी दिल के साथ अंतिम संस्कार किया था ।
माँ के चले जाने के बाद पापा अकेले हो गए थे और वो अपनी आदतों को लेकर बहुत पछतावा करने लगे थे । जब भी कभी अब पापा के घर चक्कर लगता है तो पड़ौस से पता चलता है कि पापा कई रोज तक अब बाहर ही नहीं निकलते । कई बार तो स्नेहा- स्नेहा की आवाजों के साथ पापा की रोने की आवाजें गूंजती । उनके लिए हमारा मन अब भी बहुत तड़पता है ।
कई बार मैंने पापा को बोला कि मेरे साथ मेरे घर चलो--लेकिन हर बार वो यही कहते -- नहीं बेटा --तेरी माँ की यादें इसी घर में हैं बाकि ज़िन्दगी उन्हीं के साथ जीना चाहता हूँ ।
कुछ दिनों में ही ज़िन्दगी उसी ढर्रे पर वापिस लौटनी शुरू हुई तो एक दिन मम्मी की कंपनी से उनके मालिक श्री प्रताप वासवानी जी का फोन आया जिनकी बदौलत हम दोनों बहनों ने अपना ये मुकाम हासिल किया था । उन्होंने मुझे अपने पास आफिस बुलाया ।
अगले दिन उनके पास जाने पर मालूम हुआ कि मम्मी ने अपनी टेबल की दराज में एक लेटर उसके नाम छोड़ा था ।
जिस पर लिखा था बेटी सुधा-- अगर उसे कुछ हो जाये तो याद रखना बेटा हम सब की ज़िंदगी इस कंपनी की धरोहर है । जब इसे ज़रूरत हो बे-हिचक इसे जॉइन कर लेना ।
तेरी मम्मी सुधा ।
माँ का इशारा और उसकी आखिरी इच्छा मैं समझ चुकी थी ।
अगले दिन ही बैंक से रिसाईंन कर जल्द ही मम्मी की कंपनी मैनें प्रताप सर के अंडर जॉइन कर ली ।
दो तीन महीनों में ही मालूम चल गया कि अब मैं माँ बनने वाली हूँ । सर प्रताप वासवानी, मेरे पिता के समान थे । उन्होंने धीरे-धीरे सारी ज़िम्मेवारी मुझ पर सौंपनी शुरू कर दी । छह महीने के अंदर ही मेरे काम को देखते हुए प्रताप सर ने मुझे कंपनी का सीईओ बना दिया ।
मेरे एमबीए ने औऱ सर पर, प्रताप सर के हाथ ने, मुझे कंपनी को भरपूर ऊंचाइयों को छूने की काबलियत बक्श दी थी ।
उधर मुकेश भी बहुत खुश था कि वो बाप बनने वाला था । गर्भ सात महीने का हो चुका था । न जाने क्या रूह थी पेट में की ऊंचाइयाँ रुकने का नाम ही नहीं ले रहीं थीं । मुकेश भी अपनी कंपनी बदल बदल कर अपना प्रोफ़ाइल बढ़ाता चला जा रहा था ।
रोज़ जब घर आता कभी कोई खिलौना तो कभी कोई खिलौना साथ लेकर आता और लाकर कपबर्ड में सजा देता ।
एक दिन जैसे ही मैं ऑफिस पहुंची तो आफिस में पार्टी का माहौल चल रहा था ।
मैं तो अचानक ऐसा माहौल देखकर विश्वास नहीं कर पा रही थी कि ऐसी पार्टी जिसका उसे इल्म ही नही हो सका और प्रताप सर ने ही उसको ऑर्गेनाइस किया था ।
पार्टी जब प्रताप सर ने शुरू की तो पहला नाम मेरा लेकर स्टेज पर बुलाया गया और मेरे हाथ में एक चाबी सौंप कर कहा कि-- ये ग्रेटर केलाश में एक बंगले की चाबी है जो कंपनी की तरफ से उसे दी जाती है ।
चाबी हाथ में आते ही मेरी नज़रें सीधी आसमान की ओर उठीं औऱ मां की याद में अपने आप दो आंसू गालों पर सफर तय कर गए ।
हम दोनों नए घर में शिफ्ट हो गए ।
मेरी कंपनी के प्रति जिम्मेदारियां भी बढ़तीं चलीं गयीं औऱ आफिस से घर, लेट आने लगी ।
नौंवा महीना भी चल रहा था इसलिए कोशिश यही रहती कि छुट्टी जाने से पहले आफिस का जितना ज्यादा काम निपटा लिया जाए तो उतना अच्छा है ।
मुकेश भी अब ज्यादा ही व्यस्त रहने लगा था । लेकिन मुकेश का रोज़ बच्चे के लिए खिलौना लाना बंद नहीं हुआ ।
वक़्त आ गया उसे जब फील हुआ कि अब उसे अस्पताल जाना चाहिए उस वक़्त शाम के आठ बजे थे । दर्दे शुरू हो चुकीं थीं । मुकेश अभी आफिस से घर नहीं आया था ।
सुधा ने फोन किया तो उसने जल्दी आने के लिए उसे कहा । लेकिन काफी इंतजार करने के बाद भी जब वो नहीं आया तो उसने मुकेश को एसएमएस कर प्रताप सर को फोन किया और उसने खुद ही अपने लिए टैक्सी बुक करवाई औऱ अस्पताल पहुंच गई ।
अस्पताल पहुँचते ही उसे सीधे डॉक्टर लेबर रूम में ले जाया गया ।
दस मिनट में ही एक नार्मल डिलीवरी द्वारा सुधा ने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया ।
उसी वक़्त मुकेश अस्पताल पहुंचा और सामने सुधा के मालिक प्रताप वासवानी को देखा तो खुद को शर्मिन्दा महसूस करते हुए आगे बढ़ा ।
प्रताप ने मुबारकबाद देते हुए मुकेश को कहा-- "बधाई हो बर्खुदार आप एक खूबसूरत कन्या के पिता बन गए हैं ।"
प्रताप वासवानी की बूढ़ी आंखें सब कुछ पढ़ गयीं ।
मुकेश जल्दी से आगे बढ़ गया और सुधा के पास पहुँचा ।
सुधा ने उसकी आहट सुनीं तो आँखें खोल उसकी तरफ देखा । वो मुस्करा रहा था ।
सुधा की आंखें मुकेश की आंखों में कुछ टटोल रहीं थी और मूकेश को भी ये महसूस हो रहा था ।
ये देख मुकेश ने खुद ही बोला-- "सॉरी सुधा ! आफिस से निकलते-निकलते ही थोड़ी सी देर हो गयी । बाकि सब ठीक है न? तुम ठीक हो न?"
बच्चे के बारे में एक बार भी नहीं पूछा ।
घर में आये एक हफ्ता हो गया था। मेड मनीषा के साथ वक़्त बीतने लगा ।
बच्ची बड़ी प्यारी थी । जैसे तय था , मैनें उसका नाम *आर्या* रखा ।
मुकेश आफिस से रोज़ उसी तरह ही लेट आता रहा और सुधा सारा दिन इंतज़ार करती रहती ।
मुकेश आफिस की दो चार बातें करता । आधा से उसका हाल पूछता फिर डिनर करता ये कहकर की बहुत थकावट हो गयी, सो जाता । रोज यही दिनचर्या आगे बढ़ने लगी ।
कई दिनों बाद लेटे-लेटे सुधा की नज़र अचानक कपबर्ड में मुकेश के लाये खिलौनों की ओर गई तो उसे महसूस हुआ कि उनमें कोई भी ऐसा खिलौना नहीं था जो किसी कन्या के लिए हो । सभी लड़कों वाले खिलौने थे ।
कोई मोटर साइकिल, कोई कार, आदि आदि । उनमें कोई भी गुड़िया वगैरह नहीं थी । ये देख उसे एक जबरदस्त धक्का लगा ।
कुछ दिनों में उसे महसूस होने लगा कि मुकेश भी उसी मनहूस केटेगरी का ही शख्स निकला ।
लेकिन उन दोनों की आमने सामने इस बात की कभी चर्चा नहीं हुई ।
उसकी हरकतें उसी प्रकार तब्दील होती जा रही थी जिस तरह उसके पापा की थीं ।
फर्क सिर्फ इतना था कि पापा साफ दिल के थे और वो मम्मी को साफ-साफ बोल देते थे कि लड़कियां उन्हें पसंद नहीं और मुकेश एक साइलेंट ज़ह्र था जो अपने अंदर साइलेंटली नफ़रत पाल रहा था ।
शायद ये मेरी कंपनी में मेरा पोजीशन या वर्चस्व का असर था ।
मुकेश का साइलेन्स मुझे औऱ भी ज्यादा खतरनाक महसूस हो रहा था ।
धीरे-धीरे दूरियाँ बढ़तीं गयीं औऱ मुकेश का कई बार रात को घर पर आना मिस भी होने लगा था । मैं वापिस अपनी कंपनी जॉइन कर चुकी थी ।
बहुत बड़ा झटका मुझे एक दिन तब लगा जब मेरी ही कंपनी की लेडी ने मुझे डरते हुए आकर बताया कि मुकेश को उसने कई बार औऱ कई जगह एक ही लेडी के साथ घूमते देखा था । अभी तक तो उसे उम्मीद थी कि कभी न कभी सब ठीक हो जाएगा । लेकिन ये सब पता लगने के बाद ---------
उसके बाद सब कुछ खत्म होता नजर आया ।
💐💐💐
उस दिन मेरा जन्म दिन था । सर प्रताप वासवानी जी ने मुझे अपने केबिन में बुलाया और कहा -- "बेटा ज़िन्दगी में कई ऐसे दुख लिखे होते हैं जो कभी पीछा नहीं छोड़ते और कई ऐसे सुख होते हैं जो कब आपकी झोली में आ गिरें पता भी नहीं चलता । तुम अपनी ज़िंदगी अब अकेले जीना सीख लो बेटा"
सर की ये बात सुन मैं उनकी आंखों में देखने लगी ।
वो समझ गए कि मैं क्या पूछना चाहती हूँ ।
उन्होनें उसी वक़्त सर हिलाते हुए कहा-- "हॉं बेटा ! मैं जानता हूँ मुकेश तुम्हारी ज़िन्दगी से जा चुका है । लेकिन ये मत समझना तुम अकेली हो । मैं तुम्हारे साथ हूँ"
इससे बड़ा झटका आज तक मुझे नहीं मिला था । हालांकि मुझे पहले पता था मुकेश के बारे में । लेकिन सर के मुँह से सुनने के बाद जैसे उस पर मोहर लग गयी थी ।
मुझे याद है बड़े भारी मन से मैं घर लौटी थी और जैसे ही घर पहुँची मेड मनीषा ने मुझे एक लिफ़ाफ़ा दिया ।
लेकिन उस लिफाफे को जब मैनें खोल कर देखा तो मुझे उसमें मुकेश द्वारा भेजे गए तलाक के कागज देखकर रत्ती भर भी झटका नहीं लगा था ।
💐💐💐
*दस साल बाद*
रात नो बजे थे । मोबाईल बजा । देखा तो हमारी कंपनी के वकील का फ़ोन था । फौरन प्रताप सर के घर पहुँचो ।
मैनें उसी वक़्त वकील साहब को कुछ पूछना चाहा कि अचानक ऐसा क्या हुआ है ? लेकिन तब तक फ़ोन बन्द हो चुका था ।
कुछ अनहोनी का अंदेसा घर करने लगा था ।
मैनें जल्दी से ड्रॉइवर *दिलावर* को फोन कर बुलाया और सर के घर पहुंची । प्रताप सर भी ग्रेटर कैलाश में ही चार-पांच किलोमीटर की दूरी पर रहते थे ।
उनके घर के बाहर जब हमारी कार पहुँची तो मेरा शक हकीकत की ओर मुड़ने लगा था ।
कंपनी के सभी लोग वहां पहुँच चुके थे । जब मैं अंदर पहुँची तो उसके पैरों तले से ज़मीन निकल गयी ।
ज़मीन पर प्रताप सर की बॉडी पर सफेद चादर पड़ी थी । मेरा सर घूम गया । मुझे ऐसा लगा मेरे सर से मेरे पिता का साया उठ चुका है और मैं चक्कर खाकर वहीं फर्श पर नीचे गिर गयी ।
जब संभली तो वकील ने मेरे सामने कई स्टाम्प पेपर साईंन करने के लिए रख दिए तो मुझे इतना गुस्सा आया कि मैं भरी सभा में चीखते हुए बोली--"तुम्हें शर्म नहीं आती?"
मेरी ज़ुबाँ लड़खड़ाने लगी थी । मुझे मेरा सर्वस्व लुटता दिखाई दिया ।
वकील ने उसे बड़े प्यार से औऱ तरीके से प्रताप सर की वो वसीयत दिखाई जिसमें साफ-साफ लिखा था कि उनकी अर्थी उठने से पहले सुधा के नाम सब कुछ हो जाना चाहिए ।
मजबूरन मुझे वो साईंन करना पड़ा औऱ इसके बाद प्रताप सर की अंत्येष्टि मेरे द्वारा कर दी गयी ।
💐💐💐
*बारह साल बाद*
धीरे धीरे मुझे पता चलता जा रहा था कि मेरी प्रॉपर्टी कहाँ-कहाँ पर है । मैं अरबों खरबों की मालकिन बनती जा रही थी ।
कई जगह हमारी कंपनी की ब्रांचेज खुलती जा रहीं थी ।
आर्या तब तक आईपीएस की ट्रैनिंग करने के बाद वापिस आयी तो उसकी पोस्टिंग छत्तीस गढ़ हुई ।
💐💐💐
गाड़ी अनुपुर स्टेशन रुकी तो सुधा को अचानक शोर सुनाई दिया । चाय पकौड़े वाले वेंडर्स इधर उधर अपना सामान बेचने के लिए भागा दौड़ी कर रहे थे ।
रुबीना ने चाय वाले को आर्डर देने से पहले सुधा से पूछा -- "आप भी चाय लेंगी क्या?"
"हॉं में सर हिलाते हुए उसने कहा-कुछ पकौड़े भी ले लेते हैं ।" --कहते हुए सुधा ने पकौड़े वाले को इशारा कर के अंदर ही बुला लिया ।
पकौड़े वाले से ढेर सारे पकौड़े लिए औऱ रुबीना से पूछा-- "ये अनाया के लिए भी तो कुछ लेना होगा न? क्या खाती है ये?"
"नानी मुझे वो वाले चिप्स लेने है ।"--ट्रेन के बाहर चिप्स वाले की ओर इशारा करते हुए अनाया बोली ।
सुधा ने उस प्यारी सी बच्ची को गोद में उठा कर बड़े प्यार से उससे पूछा--"ओल क्या खायेगी मेरी रानी बिटिया"
"बितकूत"--तोतली बोली में फिर अनाया बोली ।
सुधा ने चिप्स वाले को भी अंदर बुलाया और उससे दस बारह चिप्स के और चार पांच बिस्कुट के पैकेट लेकर उन्हें पांच सौ रुपये का नोट दे दिया और बोला--"चाय वाले के साथ बराबर- बराबर बांट लेना ।"
रुबीना ये सब देखकर परेशान हो गयी । वो समझ न सकी ये इतनी सुंदर बुढ़िया एक अनजान राही पर इतनी रकम क्यों खर्च कर रही है ।
रुबीना चाय के सिप ले रही थी और साथ में सुधा को निहार रही थी जो उसकी बेटी के साथ अठखेलियाँ कर रही थी । उसे ऐसा लग रहा था जैसे वो ही असल में उसकी नानी है । ध्यान से निहारते हुए उसका मन करने लगा कि वो उनके बारे में सबकुछ जाने । चाय खत्म हुई तो अपनी उत्सुकता को वो रोक न पाई और खाली कप सुधा के हाथों से लेते हुए उसने पूछ ही लिया-- "आँटी ! आपने अपने बारे में कुछ नहीं बताया ?"
सुधा ने अनाया को गोद में खिलाते हुए और मुस्कराते हुए जवाब दिया-- "तुमने कुछ पूछा नहीं, मैनें बताया नहीं"
"बताइए न कुछ?"
"क्या बताऊँ बेटा ? घर-घर की कहानी है ये । अपने काम में इतनी मसरूफ रही हूँ आर्या की कई पोस्टिंगस के बाद काफी अरसे बाद पहली बार उससे मिलने भिलाई जा रही हूँ"
"बिटिया की पोस्टिंग? क्या मतलब ? भिलाई जॉब करतीं है क्या आपकी बेटी आर्या?"--रुबीना ने आश्चर्य चकित होकर पूछा ।
"हाँ--उसे मिलने के लिए दिल तड़प रहा है"
"अच्छा? कौन सी कंपनी में जॉब करती हैं?"
"कंपनी नहीं बेटा ! वो भिलाई में कमिश्नर की पोस्ट पर है"
"वाऊ--अच्छा वो आर्या !!!आर्या टेकचंदानी?"--रुबीना को ऐसे लगा कि उसकी ज़ुबाँ को जैसे लकवा ही मार गया हो । उससे आगे वो कुछ पूछ ही नहीं पाई ।
वो सोच रही थी कि अगर इनकी बेटी इतनी होनहार है तो वो खुद भी बहुत पहुंची हुई और किसी बड़े ओहदे पर कार्यरत होगी ।
सुधा समझ चुकी थी कि रुबीना किस दूविधा में पड़ चुकी है । उसने रुबीना से ही प्रश्न किया--"कभी भी अपने को छोटा न समझो । क्योंकि कोई कितना भी बड़ा हो जाये वो अपने लिए ही होता है । तुम्हारे लिए नहीं । तुम खुद के लिए बहुत बड़े हो"
रुबीना को इस सेंटेंस ने ज़िन्दगी का पाठ पढ़ा दिया था औऱ उसी वक़्त एक विश्वास के साथ उसने सुधा से वापिस प्रश्न पूछ लिया -- "तो आँटी आपने कहा कि आप बहुत ज्यादा मसरूफ रही थीं इसलिए बेटी से मिलने नहीं आ सकी? तो क्या आप भी पुलिस में कहीं-----"
"अरे नहीं नहीं--"--रुबीना को बीच में ही काटते हए सुधा बोली---"मेरा एक एक्सपोर्ट हाउस है "प्रताप एक्सपोर्ट हाउस" । मैं उसकी छोटी सी मालकिन हूँ। बस उसकी थोड़ी सी छोटी मोटी ब्रांचेज हैं जिन्हें मुझे देखना होता है । उसी में बिसी रहती हूँ"
रुबीना ने फिर बड़ी मुश्किल से अपना थूक गले के नीचे उतारा औऱ पूछा--"आप इतनी बडी हस्ती औऱ ट्रेन में~~~~?"
सुधा ने उसका आशय समझ बताया--"गरीबी देखी है मैनें । ज़मीन पर ही रहना चाहती हूँ । हवा में उड़ कर चुपचाप छह घंटे का सफ़र करने वाले भीड़-भाड़ वाली ट्रेन के छत्तीस घंटे के सफ़ऱ का मुकाबला नहीं कर सकते । जहाँ भांति-भांति के लोगों के साथ बातेँ करने का मौका मिलता है ।
हवाई जहाज में कहां मिलता है ?"-हंसते हुए सुधा ने कहा ।
"आप अकेले?"
रुबीना जी, जो भी पूछना है खुल के पूछिये । तुम्हारी कहानी औऱ मेरी कहानी में कुछ ज्यादा फर्क नहीं है । मेरे पापा भी लड़कियों को पसंद नहीं किया करते थे । उनकी ज्यादितियों की वजह से ही मेरी मम्मी ने ये एक्सपोर्ट हाउस जॉइन किया था और इसी एक्सपोर्ट हाउस की वजह से हम पढ़े लिखे और नॉकरियों तक पहुंचे ।
मेरी शादी के बाद हम हनीमून पर थे कि माँ पीछे से चली गयी ।
एक्सपोर्ट हाउस के मॉलिक ने मां की जगह मुझे रख लिया । मैं बैंक में अफसर थी । रिसाईंन कर एक्सपोर्ट हाउस जॉइन कर लिया ।
उसके बाद जो हमें पति मिले जिन्हें पता था मेरे पापा के बारे में । तब उन्हें वो भी बहुत भला-बुरा कहते थे लेकिन जब आर्या हुई तो उनका भी बदलता रंग पता चल गया ।
आर्या उस वक़्त अनाया से भी छोटी थी मुकेश मुझे तलाक देकर चला गया । लेकिन हमारे बीच कभी इस बारे में कोई बात नहीं हुई । न ही कभी कोई झगड़ा और न ही कोई तू तू मैं मैं । सब कुछ साइलेंट था । वो बस एक पुरानी चीज़ की तरह ज़िन्दगी से चला गया ।
आर्या बचपन से ही बहुत इंटेलिजेंट थी ।
उसके बाद आर्या को मैनें अकेले ही पढ़ाया लिखाया औऱ आज वो कहाँ है तुम देख सकती हो ।
"ओ माय गॉड"--रुबीना का मुँह खुला का खुला रह गया ।
"आप इस वक़्त खरबों पति हैं लेकिन आप कितनी सादी ज़िन्दगी जी रही हैं ?"
"सब कुछ यहीं रह जाना है ।"--कहते हुए सुधा ने अनाया को उठाया और अपने वक्ष से लगाते हुए कहा-- "क्या तुम मेरे साथ चलोगी अनाया?"
"हाँ नानी"--अनाया ने अपनी माँ की तरफ देखते हुए फिर कहा ---"मम्मी, नानी के साथ चलोगी न?"
सुधा ने रुबीना की तरफ देखते हुए कहा--"कभी माँ के ऊपर बोझ बन के न रहना । अगर अनाया को आर्या तक का सफर तय करना है तो तुम्हें उस बारे में गहराई से सोचना होगा ।
एक दृढ़ संकल्प करना होगा ।
गाड़ी दुर्ग स्टेशन पर पहुँच कर खड़ी हो चुकी थी । पैसेंजर्स की गाड़ी से उतरने की गहमा-गहमी शुरू हो चुकी थी ।
सुधा ने अपना सूटकेस सीट के नीचे से निकाला औऱ गाड़ी से उतरने की तैयारी करने लगी ।
लेकिन उतरने से पहले उसने अपने हैंडबैग में हाथ डालकर कुछ निकाला और रुबीना की ओर बढ़ाते हुए हुए कहा--
मन करे तो, ये मेरा विजिटिंग कार्ड है। फोन करके कभी भी चली आना ।"
और
सुधा मुस्कराते हुए, अनाया के सर पर हाथ फेरते हुए उसको प्यार करती हुई गाड़ी से नीचे उतर गयी औऱ सूटकेस के हैंडल को ठेलते हुए प्लेटफ़ॉर्म से निकल गयी । उसने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा ।
रुबीना अचंबित सी गाड़ी से नीचे उतर, उसको जाते हुए देखती रही जब तक वो महान शख्सियत उसकी आंखों से ओझल नहीं हो गयी ।
💐💐💐समाप्त💐💐💐
◆◆◆◆◆
यह रचना काल्पनिक रचना है और इसमें दिखाए गए सभी पात्र और पात्रों के नाम,स्थान और इसमें होने वाली सभी घटनाएं पूर्णतया: काल्पनिक हैं । इसका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति या घटना या स्थान से समानता पूर्णत: संयोग मात्र ही हो सकता है । इस कहानी का उद्देश्य किसी भी व्यक्ति, धार्मिक समूह सम्प्रदाय, संस्था, संस्थान, राष्ट्रीयता या किसी भी व्यक्ति वर्ग , लिंग जाति या धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का कतई नहीं है ।
No comments:
Post a Comment