Thursday, February 23, 2023

आस के पंछी

 

              कालेज का वक़्त, ज़िन्दगी से जुड़े चंद अच्छे दिनों का पुलिंदा होता है । जो हर किसी के जीवन का एक यादगार तौफा, जो वो अपने ज़हन में हमेशा संजो के रखता है । वो जितना पुराना होता चला जाता है उतना ही वो कीमती होता चला जाता है । वो हर लम्हा किसी स्पेशल 'याद का पंछी' बन हमारे ज़हन में कैद होता चला जाता है । पर ये ज़रूरी नहीं कि वो सारे लम्हें अच्छे ही हों ।

                   कुछ इतने बुरे भी हो सकते हैं जो ज़बरदस्ती आपकी यादों रूपी पिंजरे में कैद होकर बैठे हों । साधारण से बुरे लम्हें वैसे तो कभी याद ही नहीं रहते लेकिन कुछ ऐसी बुरी घटनाएँ जो कभी भूलने का नाम ही नहीं लेतीं ।

           वो बुरी यादें आपके हृदय पटल या मन मस्तिक्ष के किसी कोने में पंछी बन कैद हो कर बैठी रहती हैं और कभी-कभी किन्हीं कारणों से वो फड़फड़ाने भी लगती है तो परेशानी का कारण भी बन जाती है ।

           इसी संदर्भ में मैं अपने कॉलेज का सफ़ऱ का एक पंछी साझा करता हूँ। उन दिनों कॉलेज के कई क्रिया कलापों में भाग लिया करते थे । कॉलेज स्पोर्ट्स औऱ ग़ज़ल कहने का शौक तो बचपन से था ही इसलिए कॉलेज के सभी स्टूडेंट्स जानते भी थे और हर फंक्शन में स्टेज से हमें पुकारा भी जाता था ।

          लेकिन हमें पता होता था कि फलाने दिन प्रोग्राम होना है तो हम पहले ही कुछ न कुछ ज़हन में या जेब में लिख के तैयार रखते थे कि प्रोग्राम वाले दिन स्टेज पर किसी भी वक़्त कोई भी जाकर नाम ही न पुकार दे । वैसे तो फंक्शन ऑर्गेनाइस करने वाली टीम लिस्ट पहले ही तैयारी कर के रखती थी । जो नाम देना चाहे कुछ पेश करने लिए उसी का नाम लिस्ट में होता था । पर मेरे साथ ऐसा नहीं  था । मेरे नाम दिए बगैर ही वो मेरा नाम पुकार दिया करते थे ।

                मेरे साथ प्रॉब्लम ये थी कि मैं अपनी  ग़ज़ल या जो भी पेश करना होता था वो मैं लिख कर जेब में ही रखा करता था और उसे देखकर ही सुनाता था ।
एक बार मैं औऱ मेरे कुछ कॉलेज के दोस्त शिमला घूमने के लिए । एक हफ्ता बिताने के बाद हम जब वापिस आते वक्त दिल्ली पहुँचे तो उस वक़्त सुबह/दुपहर के 11 बज चुके थे । हमारे साथ एक दोस्त (जिसे हम जोशी कहते थे वो हमारे कॉलेज की म्यूसिक की टीम में बहुत अच्छा कांगो औऱ बांगो बजाया करता था ।)
   
                   वो कहने लगा चलो कॉलेज होकर चलते हैं । मैं थका हुआ था, मेरा तो बिल्कुल मूड़ नहीं था मगर जिसकी गाड़ी थी उसका नाम योगेश(टीम का गिटार वादक, आजकल इस दुनियां में नहीं है) था वो खुद ही गाड़ी चला रहा था । उसने, उसके कहते ही गाड़ी उधर कॉलेज की ओर ही मोड़ ली ।

क्या करते ! बस पहुंच गए कॉलेज ।

          वहां पहुँचे यो देखा वहाँ कॉलेज में फंक्शन चल रहा था । हमें तो पता ही नहीं था । गेट पर खड़े कुछ दोस्तों से पूछा तो पता चला कि किन्हीं कारणों से एनुअल फंक्शन जल्दी करवा रहे हैं ।

                  हम भी कॉलेज की पार्किंग में गाड़ी खड़ी कर धीरे से साइड वाली, नए बच्चों की भीड़ में जाकर खड़े हो गए । खड़े-खड़े अभी 10 मिनट ही हुए होंगे माइक पर मुझे मेरे नाम की अनाउंसमेंट सुनाई दी ।

                       पहले तो मैंने ध्यान नहीं दिया । सोचा मेरा वहम होगा क्योंकि हम यहां थे ही नहीं औऱ किसी को कैसे पता कि हम आ गए हैं । पर अनाउंसमेंट फिर हुई तो पीछे से भी योगेश की आवाज़ आयी -- ओय डॉक्टर(मेरे फादर डॉक्टर थे इसलिए सब दोस्त मुझे डॉक्टर के नाम से संबोदित करते थे ) तुझे बुला रहे हैं बे?

मुझे तो ऐसा शॉक हुआ जैसे 'काटो तो खून नहीं' ।
शक्ल एक दम सफेद । स्टेज से बार-बार नाम पुकारा जाने लगा ।

           मेरी टीम भी पीछे से कहने लगी जा न डॉक्टर?

                 मैनें कहा भी उन्हें कि मेरी जेब में सुनाने के लिए कोई भी चिट नहीं है । डायरी भी गाड़ी में पड़ी थी जो बहुत दूर खड़ी थी । कोई तैयारी भी नहीं थी ।

       फिर से नाम पुकारा तो मन में सैकड़ों ख्याल लिए में भीड़ के सेन्टर से गुज़रता हुआ स्टेज की ओर मायूसी से चलने लगा । दिमाग काम करना बंद हो चुका था ।

                       उस दिन महसूस हुआ कि चंद लोगों में अपने नाम को ऊँचाई पर रख पाना कोई आसान काम नहीं है । ज्यूँ-ज्यूँ आगे बढ़ रहा था ताड़ियों की गूँज बढ़ती जा रही थी और मेरा शरीर बर्फ की तरह ठंडा हो चुका था । चाहने वालों में लड़के लड़कियाँ दोनों थीं । प्रिंसिपल साहब भी वहां मौजूद थे । वो भी हमारे ग्रुप के बहुत फैंन थे । कई बार वो गाहे-बगाहे हमारे ग्रुप को चाय पर बुलाया करते थे ।

              स्टेज पर पहुंचे ही मेरे हाथ में माइक दे दिया गया ।

              एक सरदार जी (मनमोहन)जो बहुत ही रईस बाप का बेटा था । मेरा बहुत बड़ा फैन हुआ करता था ।  बहुत अच्छी आवाज थी उसकी । मेरी कही बहुत सी गज़लें वो गाया करता था । उस वक़्त वो स्टेज पर आया, उसने दस-दस के पाँच छह नॉट मेरे कुछ कहने से पहले ही हवा में मेरे ऊपर उछाल दिए ।

                 उस वक़्त मेरे कान एक दम लाल हो गए । मैं माइक हाथ में लेकर स्टेज पर इधर-उधर घूमने लगा । अपना लूस हुआ कॉन्फिडेंस वापिस लाने की कोशिश करने लगा । माइक पर मेरे मुँह से निकला पहला लफ्ज़ --- "दोस्तो'

                  इतना कहते ही पूरे हाल में पिनड्रॉप साइलेंस हो गया । अभी तलक मेरे मानस पटल में कुछ नहीं था सुनाने को ।

                        पता नहीं मेरी नज़र ज़मीन पर पड़े उस दस के नोट पर पड़ी जो  मनमोहन ने लुटाया था । उस नॉट पर गांधी जी की तस्वीर छपी थी । उन दिनों गांधी जी को नया-नया नोटो पर छाप दिया गया था । एक दम दिमाग़ ने करवट ली और एक क्षणिका ने तुरंत मेरे डिमॉग में जन्म ले लिया । चुटकलों में हमारा वैसे भी बड़ा नाम था । बस फिर क्या था मेरा कॉन्फिडेंस अब सातवें आसमान पर था ।
 
                दो तीन बातें इधर उधर की सुनाकर थोड़ा टाईम वेस्ट किया फिर मुद्दे पर आकर इस क्षणिका पर आ रुका ।

अरे सर  गांधी
खूब चली
आपके नाम की आँधी
उम्र भर
रहे लँगोट में
अब बैठे हो हर दस के नॉट में ?

      हाल ताड़ियों से गूँज गया । वो दिन था और आज का दिन जेब में कोई न कोई कागज़ ज़रूर होता था ।

उस दिन पहला डर का वो पंछी उड़ गया ।

      कॉलेज के हम वो पाँच दोस्त एक दूसरे के साथ गहरी दोस्ती लिए हुए थी ।

             कॉलेज खत्म होने बाद सभी अपने अपने रास्ते हो लिए । दोस्त जोशी के साथ खास कर मेरी प्रगाड़ दोस्ती थी । कॉलेज से बिछुड़ते वक़्त सभी काफी भावुक थे । जोशी ने मुझसे कहा तुम्हें तो मैं कभी नहीं भूलूँगा ।
वर्ष बीतते चले गए । सभी अपने अपने कार्यों में वतदत हो गए शादियां हो गयी बच्चे हो गए । दूर दूर हो गए ।

तकरीबन 30 वर्षों बाद न जाने एक दिन  वो जोशी  'आस का पंछी' बन  अब तलक  मेरी उन यादों के पिंजरे से बाहर आ चुका था ।

औऱ मैं उसे देशबंधु गुप्ता रोड के साथ ही एक जोशी रोड है । उन्हीं गलियों में उसका घर था वहाँ मिलने चला गया । दिल में कई ख्याल आए वो वहाँ अब होगा के नहीं होगा । ऐसे ही ख्यालों  में मैनें पहले तल पर जाकर उसकी डोर की घंटी बजाई ।
थोड़ी देर में दरवाजा खुला । सामने छोटे नाटे कद का वही जोशी देख कर तसल्ली हो गयी कि मैं भूला नहीं हूँ ।

इतने वर्षों बाद हमारा ये पहला मिलन था । उसने थोड़ी देर मेरी तरफ देखा और दरवाजे से हट गया कि मैं अंदर आ जाऊँ ।

मेरे अंदर के पिंजरे से निकला वो "आस का पंछी " इतनी देर में उड़ चुका था ।

अब यूँ लगने लगा कि मैं ही वहां क़ैद हूँ ।

कुछ फॉर्मेलिटीज होने के बाद मैं किसी  तरह वहाँ से आज़ाद हो नीचे आया ।

इस बात को भी आज 21 वर्ष हो चुके हैं ।
में अभी तलक अपने आप को कोसता हूँ कि मैं खामखाँ उसके घर गया औऱ अपने मन के पिंजरे में पल रहे पंछी को छेड़ा ।

जब-जब उन्हें छेड़ोगे वो उड़ चलेंगे ।

हर्ष महाजन "हर्ष"
◆◆◆

नॉट: एक उम्र की दराज़ से निकले कुछ पन्नों में से एक पन्ना आपके हवाले आपकी अदालत में पेश किया है । सत्यता के आधार में अपने पेन की धार को जोड़ आके समक्ष खड़ा हूँ । उम्मीद है आपके ज़हन को छूती हुई अपनी मर्यादा नहीं भूलेगी । आपकी उंगलियों से निकले समीक्षक शब्दों से ये खूब निखरेगी ।
★★★


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