छाता

आज शनिवार आदतानुसार मैनें मौसम के हिसाब से घर से पहले से खरीदे हुए पाँच छाते एक बैग में डाले और बाहर रोड पर निकल गया । हल्की-हल्की बूंदा बांदी औऱ भीनी-भीनी माटी की ख़ुश्बू मन को प्रफुल्लित कर रही थी । आँखें अपना काम बा-दस्तूर कर रहीं थीं । कोई ऐसा ज़रूरत मंद जिसे इस छाते की बहुत जरूरत हो । दो किलो मीटर तक मुझे कोई भी ऐसा गरीब और ज्यादा जरूरत मंद व्यक्ति मुझे नज़र नहीं आया । सामने फ्लाइओवर पुल आ गया मेरा भी पैदल सफ़र जारी था । सड़क वाला ही पुल था जिसे हम फ्लाईओवर कहते हैं । एक किलोमीटर का ये पुल चढ़ाई भी माँगता था । मैं हाँफता हुआ अभी चढ़ाई चढ़ ही रहा था कि मेरी उम्र और स्तिथि को देख एक भली-मानस कन्या जिसकी उम्र शायद 22 या 24 की रही होगी, उसने मेरे नज़दीक ही अपनी गाड़ी रोक दी । मैनें सोचा शायद उसे जगह चाहिए मैं बिल्कुल साइड में होकर पुल की दीवार पकड़ के खड़ा हो गया कि जब ये निकल जाए तो फिर चलना शुरू करूँ । लेकिन वो कार वहीं खड़ी रही । उसने मुझे कार के अंदर से इशारा किया कि आइये बैठ जाइए । मैनें उसे दूर से ही धन्यवाद औऱ आशीर्वाद देते हुए हाथ जोड़ दिए कि नहीं मैं ठीक हूँ । वो खूबसूरत कन्या कार से उतर कर मेरे पास आयी औऱ बड़े तहज़ीब-ओ-सलीके से इल्तिज़ा कर बोली अंकल बहुत लंबा पुल है और चढ़ाई भी बहुत है आप मेरे साथ आइये मैं तो उसी तरफ जा रही हूँ मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा । मेरे दिमाग़ में बस एक बात थी कि जिस काम के लिए मैं घर से चला था वो तो कुछ हुआ नहीं बल्कि औऱ इस बच्ची से सेवा लेकर अपने कर्मों का बोझ ही बढ़ा लूँगा । मैंनें उसको फिर हाथ जोड़े । लेकिन इस बार उसने कहा -- "अच्छा अंकल आप ये चाहते हैं कि मैं जल्दी घर वापिस न जाऊँ?" ये बात सुन मैनें उसकी तरफ प्रश्न भरी दृष्टि डाली । वो फिर बोली-- "हाँ अंकल रोज़ एक नेक काम करना होता है । रोज सुबह-सुबह घर से निकलती हूँ जब तलक कोई नेक काम नहीं कर लेती मेरी दिन चर्या शुरू नहीं होती । आप क्या ये चाहते हो कि भूखी रहूँ? मैं ये आपके लिए नहीं अपने लिए कर रही हूँ"
ये सुन मैनें उस खूबसूरत हुस्न की मल्लिका के सर पर आशीर्वाद का हाथ रखा और उसके साथ उसकी कार में बैठ गया । बैठते ही उसने मेरे पूछने से पहले ही बताया कि मेरा नाम रचना इस नेक काम के पीछे उनके पापा की ऐसे ही पुल पर चढ़ते हुए अस्थमैटिक अटैक की वजह से मृत्यु हुई थी । उन्हें अटैक जब हुआ तो पुल पर उनके साथ से हज़ारों लोग निकल गए । किसी ने उन्हें दो मिनट रुक कर पूछा तक नहीं की । अगर कोई उन्हें जल्द थोड़ी भी सहायता का हाथ बढ़ा देता तो आज वो ज़िंदा होते । वो थोड़ी देर में ही वहीं ढेर ही गए । जब वो शाम तक घर नहीं पहुंचे तो हमें वो पुल पर दीवार के साथ लेटे हुए मृत मिले । वहाँ के सी.सी.टीवी से मालूम हुआ कि उनके साथ ये हादसा सुबह ही आफिस जाते हुए ही हो चुका था।
इतना कह वो कन्या ज़ार-ज़ार अश्क़ों से नहा गयी । मैं ये सुन सन्न था । ज़ुबाँ से कुछ न निकल पाया । इसीलिए तब से मैं रोज़ एक नेक काम करने के लिए घर से इसी तरह निकलती हूँ । मैं ये सोच रहा था कि दुनियाँ में इंसानियत कहीं कहीं अभी ज़िंदा रहने की कोशिश में है । फिर खुद ही वो आँसू पोंछते हुए अचानक बोली-- "अच्छा अंकल आप कहो आप इस तरह क्यूँ चल पड़े घर से बरसात में थैला लेकर वो भी पैदल ?'
मैनें भी उसे अपना मंतव्य बताया कि--- "मैं भी अपने मनानुसार दिन के हिसाब से गरीब मगर ज़रूरत मंद को कुछ देने निकलता हूँ। आज शनिवार था तो ये पाँच छाते (थैले में पड़े छाते दिखाते हुए) बरसात में किसी ऐसे ज़रूरत मंद को जिसे वो भरपूर आनंद उठा सके ।"
"तो इतनी दूर आ गए एक भी ऐसा गरीब व्यक्ति नहीं मिला? पीछे रेड-लाइट पर इतने खड़े तो थे वहाँ क्यूँ नहीं दे दिए ?"--उस लड़की ने बोला ।
मैनें मुस्कराते हुए उसे जवाब दिया--"वो लोग तो हमसे भी अच्छे पैसे वाले हैं उन्हें कभी भी कुछ नहीं देना चाहिए"
ऐसा लग रहा था मेरी बातों से उस लडक़ी को विश्वास नहीं हो पा रहा था । पर मेरी उम्र का लिहाज कर वो बोली कुछ नहीं ।
"अंकल देखो अब रेड लाइट आ रही है यहॉं बहुत से गरीब भिखमंगे होते हैं जिन्हें आप ये सारे छाते दे पाओगे"---कह कर उन्हें एक बिना हाथ का औऱ बिना पैर का लड़का दिखाया ।
मैनें रचना को गाड़ी बाईं तरफ पटरी के साथ लगाने को कहा और उसने धीरे से साइड में अपनी कार लगा दी ।
मैंनें उस वक़्त रचना से पूछा कि उसे अगर जल्दी जाना है तो वापिस जा सकती है अगर उसका एक नेक काम पूरा हो गया हो तो?
रचना हैरान होकर बोली--- "अंकल ऐसे क्यों कह रहे हो मुझे ये देखना है कि ये सब किसे देते हो ?'
तो रचना जी आप गाड़ी से थोड़ी देर उतरिये ।
मैनें रचना को एक दो हज़ार का नोट दिया और उससे कहा कि वो जिसे आप कह रही हो लंगड़ा और जिसका एक हाथ नहीं है उसे बोलो मैनें इसमें से उसे दस रुपये देने है ।
रचना बोली - 'कैसी बातें कर रहे हो ? इनके पास दो हजार के छुट्टे कहाँ से आयेंगे ? अगर ऐसे लोगों के पास दो हजार हों तो ये यहाँ थोड़े ही बैठेंगे?"
मैनें रचना को बोला--"एक बार जाओ तो?"
कंधे उचकाती अनमनी सी रचना मेरे हाथ से वो दो हजार का नोट लेकर सीधी उसी लडक़े के पास गई और वही बोला ।
उस लड़के ने पहले रचना की शक्ल देखी फिर दो हज़ार का नोट लेकर जाने लगा मग़र रचना ने समझदारी से उसे रोक कर वो नॉट वापिस लिया औऱ कहा पहले खुल्ले पैसे दे फिर ये नॉट दूंगी । तो वो लड़का बड़ी तेजी से बाजू में कलच्छ लगा कर सड़क को पार कर वहां बैठी एक औरत से फटाफट पैसे लिए औऱ वापिस आ गया । रचना को छुट्टे दिए और दो हज़ार का नोट लेकर चला गया । रचना हैरान होकर चुपचाप कार में आकर बैठ गयी ।
हम फिर आगे बढ़ गए । रास्ते में मैनें उसे बताया । जिस लंगड़े लड़के को तुम पैसे देकर आयी हो वो न लंगड़ा है न उसका हाथ गायब है । ये सुन रचना के तो जैसे होश ही उड़ गए । मैनें फिर कहा हम जैसे लोगों की वजह से ही असली हकदार गरीबों को जिन्हें हमारा ये प्यार मिलना चाहिए उन्हें नहीं मिल पाता औऱ न ही हम सुखी रह पाते हैं । क्यूँ की ये लोग हमारा दिया पैसा जूआ, शराब और सिगरेट्स में उड़ाते हैं । हमारे पैसे से किये गए इनके द्वारा गलत कर्म हमें ही भुगतने पड़ते हैं । मैनें फिर एकदम रचना को बोला--- "रोको-रोको-रोको गाड़ी रोको"
रचना ने गाड़ी रोकी तो हम गाड़ी साइड में कर उस औरत के पास जा रहे थे जो दूर पटरी पर इस बरसात में भी छल्ली भून रही थी औऱ बरसात की बूँदों से बचने के लिए एक प्लास्टिक की शीट से अपने को ढकने की कोशिश कर रही थी उसके हाथ में आधे-अधूरे कपड़े पहने एक दुध-मुहाँ बच्चा था जिसे अपने अधढ़के बदन से दूध पिला रही थी औऱ दूसरे हाथ से आगे दो तीन इंटों से चूल्हा बनाकर छल्ली भून रही थी । मैनें उसे पहले दो छल्ली भूनने का आर्डर दिया । फिर अपने बैग से एक छाता निकाला और खोलकर उसे देते हुए कहा ये लो बहना बरसात में क्यूँ भीग रही हो?
उसने बड़ी मुश्किल से डरते डरते हाथ आगे बढ़ा कर छाता लिया और दिल से हज़ारों दुआएं देती हुई बोली---आपको भगवान लाखों से नवाजे । सुबह से आज भोनी भी नहीं हुई । एक दाना पेट में नहीं है । बच्चा भी भूखा है । मैनें ही नहीं खाया तो बच्चे के लिये दूध कहां से उतरे ।
रचना एक दम बोल उठी-- "आपने राह चलते किसी से कुछ माँग क्यों नहीं लिया, ऐसे तो बच्चा भूख से ही मर जायेगा ?"
उस औरत ने रचना की तरफ देखते हुए बोला-- "दीदी मांगने से अच्छा तो मर जाना ही ठीक है, मेहनत से बिकी एक छल्ली के पैसे भी पूरे दिन की भूख मिटा देती है"
रचना अब गंभीर हो चुकी थी और दिल ही दिल में एक बहुत बड़ा ज्ञान संजो रही थी । गरीब क्या होता है या गरीबी में जीना किसे कहते हैं आज उसे पता चला ।
उसको छाता दे हम गाड़ी में आ बैठे औऱ आगे का सफ़ऱ शुरू किया ।
रचना अब भी उस छल्ली वाली औरत को देख रही थी जो अपनी उस प्लास्टिक की शीट को ज़मीन पर बिछा, उस पर बच्चे को लिटा कर उसको तेज़ होती बारिश में, उस छाते से ढक रही थी ।
हर्ष महाजन 'हर्ष'
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