Tuesday, February 28, 2023

बंटवारा

 

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एक एक्सीडेंट में वालदैन की मौत के बाद राजेश को दिल्ली आए तीन साल बीत चुके थे । नास्ता तैयार कर उस दिन राजेश ने अपना बैग उठाया और मौसम सुहाना देखकर ऑफिस के लिए घर से निकल पड़ा । उस दिन उसकी तबियत ठीक नहीं थी । मन मचला रहा था । ऐसे हो रहा था जैसे खाया पीया सब बाहर आ जायेगा । ऑफिस कोई ज्यादा दूर भी नहीं बस तीन किलीमेटर के फासले पर ही था । इसलिए उसने बस में जाने की बजाय पैदल जाना ही उचित समझा । अगर बस में बैठ कर सब कुछ बाहर आ गया तो कई लोगों के कपड़े कपड़े भी खराब होंगे और बेइज्जती होगी सो अलग ।

अभी वो ये सब सोचते-सोचते एक किलोमीटर ही गया होगा कि उसका जी और भी ज्यादा मचलाने लगा तो वो रास्ते में आये पार्क की दीवार के साथ खड़ा होकर वोमिटिंग आने की इंतजार करने लगा । खड़े खड़े पांच मिनट हो गए लेकिन तबीयत कुछ सुधरी नहीं और आस पास सब घूमता हुआ नजर आने लगा । उसमें इतनी हिम्मत नहीं लग रही थी कि वो अब घर वापिस जा सके । घबराहट और पसीने भी आने लगे थे । उसने देखा जहां वो खड़ा था उसके पांच दस कदम पर ही पार्क का गेट था । वो दीवार के सहारे पकड़-पकड़ कर पार्क में जाने की कोशिश करने लगा । लेकिन उसको अब चक्कर आने लगे थे । उसने अपने आपको किसी तरह  संभाला और फिर गेट पर ही खड़ा हो गया । आसमान गड़गड़ाने लगा । सर उठाकर ऊपर देखा तो काले बादल मंडराने लगे थे । ठंडी-ठंडी बुहार आने लगी थी । हल्की-हल्की बूँदा-बांदी शुरू हो गयी थी । खड़े-खड़े चक्कर कुछ कम लगे तो सोचा कि पार्क के अंदर ही चल के बैठा जाए ।
अभी अंदर चलकर बैठने की सोच ही रहा था कि बूँदा-बाँदी तेज होने लगी । राजेश झुकते हुए और क्यारियां पार करते हुए पार्क में लगी बड़ी छतरी के नीचे जाकर बैठ गया । वहां सीमेंट की बड़ी छतरी के डंडे के सहारे अपनी पीठ टिका ली तो उसे आराम लगा ।

बरसात एक दम तेज हो गयी और धीरे-धीरे मूसलाधार बरसने लगी । पार्क पूरा खाली हो चुका था ।  इक्का दुक्का लोग बचे, जो बारिश बन्द होने की इंतजार करने लगे थे । काले बादलों से फलक पूरी तरह घिर चुका था । अंधेरा पूरा छाने लगा ।  बिजली गड़गड़ाने लगी ।

अभी बैठे हुए कुछ ही देर हुई तो अचानक राजेश की नज़र पार्क के एक कोने में एक सीट पर गयी जहाँ एक बुज़ुर्ग बगल में एक थैला दबाए मूसलाधार बरसात में सिकुड़ कर बैठा था । उसके साथ ही उसकी लाठी भी पड़ी थी । राजेश काफी देर से उसे देख रहा था वो बुज़ुर्ग बार-बार गेट की ओर देखकर फिर आराम से सीधे हो कर बैठ जाता । राजेश समझ तो रहा था कि हो न हो वो बुज़ुर्ग किसी न किसी का इंतज़ार तो कर ही रहा था ।

लेकिन राजेश को ये समझ नहीं आ रहा था कि वो बुज़ुर्ग वहाँ बरसात में क्यों बैठा इंतज़ार कर रहा है? बरसात से बचने के लिए यहाँ छतरी थी यहाँ क्यों नहीं आ गया ? ऐसे तो इतनी उम्र में भीग कर वो तो बीमार हो जाएगा ?

राजेश अपनी तबीयत तो भूल गया और उसकी चिंता उसे परेशान करने लगी ।

उसने अपना लंच बैग उठाया और छतरी का आसरा छोड़ वो पार्क के कोने में बैठे उस बुज़ुर्ग की ओर चल पड़ा । बरसात अभी भी तेज थी ।

भीगते हुए राजेश ने उस बुज़ुर्ग के पास पहुंच कर उन्हें हाथ जोड़ कर नमस्कार किया तो राजेश ने महसूस किया कि जैसे उस बुज़ुर्ग को राजेश का उनके पास आना या उनसे बात करना उन्हें अच्छा नहीं लगा ।

राजेश ने कोशिश करते हुए उस सीट के कोने में अपने को टिकाया और झुककर बैठ गया । बरसात तेज थी थोड़ी देर भीगने के बाद तबीयत खराब होने की वजह से उसे ठंड महसूस होने लगी थी ।
उस बुज़ुर्ग ने उसकी तरफ एक बार देखकर फिर गेट की ओर देखा और ऐसे लगा जैसे वो मायूस हो गया हो?
राजेश की उत्सुकता इसलिए बढ़ने लगी थी कि इतना बुज़ुर्ग इंसान जिसकी उम्र लगभग नब्बे साल तो होगी ही जिसे ऐसी बरसात में भीगने से बचना चाहिए वो मुसलसल बरसात में ही बैठा क्यूँ इंतज़ार कर रहा है । ज़रूर कोई बात तो है? उसने कोशिश कर पूछ ही लिया--"सर आप किसी का इंतज़ार कर रहे है ?"

बुज़ुर्ग ने माथे पर बल डाल कर कुछ अजीब सी नज़रों से उसे देखा और अपने बगल में दबाए थैले को और भी जोर से दबा कर फिर गेट की ओर देखने लगा । लेकिन फिर उसने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी की ओर देखकर उसने कलाई को झटकना शुरू किया । दो तीन बार झटका दिया और फिर कान पर लगाकर सुनने की कोशिश करने लगा । शायद उसे अपनी घड़ी पर डाउट होने लगा था कि वो बन्द तो नहीं ?

फिर दुबारा घड़ी उसने अपने कान से लगाकर सुनने की कोशिश की और  राजेश की तरफ बेचैन नज़रों से देखने लगा । जब घड़ी से कुछ सुनाई नहीं दिया तो उसने उसकी ओर मुड़कर पूछा-- "आपके पास घड़ी है ?"

"हाँ-हाँ बोलियेगा?"

"वक़्त कितना हुआ है?"

"सर नो बजकर बत्तीस मिनट हुए हैं"--राजेश ने जेब से मिबाईल निकाल कर उसपर इस तरह हाथ किया कि वक़्त देखते वक़्त वो बरसात में भीग न जाये ।

"दस बत्तीस????".........!!!! एक दम हैरान होकर उस बुज़ुर्ग ने कहा ।

परेशानी उनकी पेशानी से साफ-साफ झलकने लगी थी और वो मन ही मन कुछ बड़बड़ाते हुए एकदम सीट से उठने लगे तो उनकी लाठी जो उनके साथ ही सीट पर पड़ी थी वो उन्हीं की टांग टच होने से नीचे ज़मीन पर गिर गयी ।

बरसात ने भी उसी वक़्त अपना जोर दिखाना शुरू कर दिया था ।

राजेश ने देखा कि उस बुज़ुर्ग को समझ नहीं आ रहा था कि वो अब क्या करे । कभी वो अपने लाये उस थैले को अपनी बाजू के नीचे दबाता और कभी वो अपनी लंबी कुर्ते की कमीज के नीचे करता ।

कभी वो सीट पर बैठ जाता तो कभी खड़ा हो जाता ।..............!!!!

उसकी इस असमंझस की स्थिति को देखकर राजेश को ये तो समझ आने लगा था कि वो बुज़ुर्ग किसी न किसी परेशानी से ज़रूर जूझ रहा था । उसको न जाने क्यूँ उसकी ये परेशानी में अपनी बेबसी नज़र आने लगी थी । वो चाह तो ये रहा था कि वो बुज़ुर्ग उसको अपनी परेशानी जल्दी से बता दे तो वो उसकी हर हालत में हेल्प करेगा । इसी बात को सोचते हुए राजेश ने उनसे फिर पूछा-- "आप किसी का इंतजार कर रहे हैं ? क्या मैं कुछ मदद कर सकता हूँ?"

बस इतना पूछना था कि वो बुज़ुर्ग टूट गया औऱ अपने थैले को देखते हुए सिसकता हुआ बोल पड़ा-- "सारा खाना भीग गया । अब वो क्या खाएगी ? भूखी रह जायेगी वो आज----भूखी रह जायेगी बेटा वो क्या खाएगी ?"--कहता हुआ वो बुज़ुर्ग अपने आपको सिसकने से रोकते हुए बच्चों की तरह हिचकियाँ लेने लगा । मगर अपना दर्द और वेदना रोक पाने में असमर्थ रहा और धीरे-धीरे फुट-फुट कर रोने लगा ।

राजेश से रहा नहीं गया--"अंकल आप रो क्यों रहे हैं ? बताइए न क्या बात है ? क्या पता में आपकी कोई मदद कर पाऊं?"---------!!!!

"नहीं बेटा आप कुछ नहीं कर सकते । आज वो भूखी रह जायेगी । अब तो ग्यारह भी बज गए होंगे न ?"

"हाँजी अब तो ग्यारह दस हो गए अंकल, बताओ न क्या बात है? कौन भूखी रह जायेगी ? किसने आना था आपके पास?"--रोते हुए बुज़ुर्ग से राजेश ने एक बार फिर पूछा ।

"मेरी पत्नी बेटा"--मुँह नीचे करके कहता हुआ वो बुज़ुर्ग ऐसे लग रहा था जैसे शर्मिंदगी से ज़मीन में गड़ा जा रहा हो ।

"पत्नी ???"-------!!!!---राजेश के मुँह से हैरानी से निकला .....स

"हाँ बेटा !!~~~~ क्या बताऊँ!!- मेरी पत्नी रोज आठ बजे रोज़ इसी जगह मुझे मिलती है और ये दो फुल्के (थैला दिखाते हुए) उसके लिए ही लेकर आता हूँ। रात की भूखी होती है वो यहीं से खाकर वापिस  चली जाती है । पता नहीं उसे क्या हया होगा? वो अभी तक नहीं आई?"--बिलखते हुए बुज़ुर्ग राजेश को बताने लगता है।

"लेकिन पत्नी ने आना कहाँ से था? वो आपके साथ नहीं रहते क्या?"--कुछ न समझते हए राजेश ने फिर पूछा ।

"नहीं बेटा?  वो मेरे छोटे बेटे के साथ रहती है ।"

"औऱ आप?"

"बड़े बेटे के पास"--------!!!

"ओह !!!!"---राजेश ने ह्म्म्म करते हुए गर्दन हिलाई और सीधा ऐसे बैठते हुए उनकी तरफ देखा जैसा वो सारी बात समझ गया हो और फिर धीरे से बुज़ुर्ग से पूछा---"आप दोनों एक ही बेटे के पास क्यों नहीं रहते ?"---अंदर की बात जानने के लिए राजेश ने फिर भी ये प्रश्न पूछ ही लिया ।

बुज़ुर्ग ने कांपते हुए स्वर में राजेश से कहा-- "बेटा !!! मुझे कहना तो नहीं चाहिए--(सिसकते हुए)--ऐसी औलाद खुदा किसी को न दे । इससे अच्छा इंसान बे-औलाद ही रहे तो अच्छा है ।"

"क्यों अंकल ऐसा क्या हुआ ?"

"बेटा आख़िरी उम्र में हमारे करोड़पति बेटों ने हमें बांट लिया । सारी उम्र सारी ज़िन्दगी इनके लिए हमने कुर्बान कर दी और देखो न ~~~~~~"--हाथ में पकड़े गीले थैले को दिखाता है वो रोने लगा और आगे कहने लगा-- मैं डाटा कंपनी में सिविल इंजीनियर था । मेरी पत्नी सीमांत कॉलेज की प्रिंसिपल थी । हम दोनों ने अपने बच्चों को इस काबिल बनाया की वो हमारे बुढापे का सहारा बनेंगे । मैनें और मेरी पत्नी ने इन दोनों के केरियर की खातिर अपनी हर प्रोमोशन ठुकरा दी औऱ लोन ले ले कर दोनों को एमबीए करवाया । अच्छे घरों में शादियां करवा दी ।  जब तक ये दोनों नॉकरी करते थे तो सब ठीक था ।

हम दोनों बड़े बेटे के साथ रहते थे । लेकिन धीरे-धीरे बड़े बेटे ने अपना बिसिनेस शुरू किया ओर खुदा की महर हुई बिसिनेस चल निकला। आमदनी बढ़ने लगी । जैसे जैसे आमदनी बढ़ने लगी न जाने क्या हुआ उनका दिल धीरे-धीरे छोटा होने लगा । शुरू-शुरू में उन्हें बिसिनेस टूर पर जाना होता कभी हमें छोटे बेटे के पास छोड़ कर चले जाते और कभी हम अकेले घर पर रहते । धीरे-धीरे उम्र बढ़ती गयी फिर जब भी टूर पर जाते तो पीछे से उनकी माँ को घर का सारा काम करने में दिक्कत आने लगी । कोई नॉकर रखने नहीं देते थे । मेरी पेंशन और पत्नी की भी अपनी पेंशन है  पर उनका सारा हिसाब बेटों के पास ही है । अब धीरे-धीरे जब वो छोटे बेटे के पास छोड़ के जाने लगे तो एक दिन छोटे बेटे ने अपनी मम्मी से कहा-- "जब बाहर ऐश करने जाना होता है तो उन्हें वो उनके पास छोड़ जाते है । ये क्या तरीका हुआ ?"

उसकी मम्मी ने कहा भी--"नहीं बेटा वो अपने बिसिनेस टूर पे जाते हैं ।

"आपको नहीं पता मम्मी"

इतना सुन उसकी मम्मी ने भी कहा-"अगर ऐसा भी है तो तू भी तो हमारा ही बेटा न?"

ज़िन्दगी इसी खटपट में कट रही थी पर हम दोनों इकट्ठे तो थे और खुश भी थे ।

लेकिन इन दोनों भाइयों में हमारी वजह से झगड़ा इतना बड़ गया कि वो अब एक दूसरे के नाम से भी चिढ़ने लगे थे ।

"फिर एक दिन----!!!!"---कहते हुए वो बुज़ुर्ग फिर रो पड़ा ।

"फिर एक दिन क्या? अंकल जी?"---राजेश अभी तक बिना टोके उनकी कहानी उन्हीं की जुबानी सुन रहा था और अंदर से उसे उनके बेटों पर गुस्सा भी आ रहा था ।

बुज़ुर्ग अपनी भूखी पत्नी के पार्क में आने की चिंता में भी था औऱ गेट की ओर भी देख रहा था कि शायद वो आ ही जाए?

गेट की ओर देखते-देखते उन्होंने आगे कहना शुरू किया--फिर ----वो हो गया !! जो इन बूढ़ी हड्डियों के लिए नहीं होना चाहिए था । कहता हुआ बुज़ुर्ग फिर सिसक पड़ा और अश्क़ों को बरसात में भी अपने कुर्ते की आस्तीन से पोंछते हुए आगे कहने लगा--बड़े वाले लड़के ने एक दिन सुबह-सुबह हम दोनों को उठा दिया और बोला बाऊ जी तैयार हो जाओ आज आप दोनों का अस्पताल में मेडिकल टेस्ट करवाना है कितने दिनों से तुम खांस रहे हो ।
हम दोनों खुश हो गए कि बेटे को अपने बूढ़े मां बाप की चिंता तो हुई औऱ फिर हम दोनों तैयार हो गए ।
अस्पताल से टेस्ट करवाकर जब लौट रहे थे तो बहु ने कहा --"वरुण? मम्मी और बाऊ जी को राहुल के घर ही छोड़ देते हैं न ? परसों हमने बाहर जाना है तो इस तैअफ़ फिर आना पड़ेगा ?"

"हाँ, हाँ रेणु ये ठीक रहेगा"

बड़े बेटे वरुण ने बहु कि हाँ में हाँ मिलाई औऱ कुछ ही देर में हम छोटे बेटे की दहलीज पे खड़े थे ।  बहु ने डोर बेल्ल बजायी और छोटी बहू ने दरवाजा खोला ।
हमें बाहर खड़ा देख उसके चेहरे पर अजीब से तेवर आ गए और उसने फट से कहा--"अब फिर से आ गए?"

बड़े बेटे ने तपाक से कहा---
"कैसी बातें कर रही हो अंतरा?"--औऱ फिर आगे उसने कहा--"बुजुर्गों से ऐसे बात करते है?"

"भाई साहब !!मेरा मुँह न ही खुलवाईये तो अच्छा है ?"

बस फिर क्या था । बड़ी बहु भी शुरू हो गयी और सफाई देने के लिए उसने कहा-- "अरे हमने बाहर जाना था परसों। बाऊजी जी को खांसी हो रही थी टेस्ट करवाने अस्पताल आये थे तो सोचा परसों दुबारा आना पड़ेगा इसी लिए हमने सोचा रास्ते में छोड़े जाते हैं?"

"अच्छा-अच्छा? पहले से छोड़ने का प्रोग्राम नहीं था?"--तंज करते हुए छोटी बहू ने कहा ।

"हाँ और नहीं तो क्या?"--बड़ी बहुबात को निपटता देख बोली ।

"औऱ वो जी अटैची साथ अपने आप चल के आ गयी क्या बाऊजी की?"-छोटी बहु ने हमारे आईचे खड़े बड़े बेटे के हाथ में हमारी अटैची देखते हुए कहा ।

बड़ी बहू तो ऐसे छुओ हो गयी जैसे सांप ने काट लिया हो और अपने पति वरुण की ओर बड़े गुस्से में आंखें फाड़ के देखने लगी ।

अटैची देखकर हम दोनों का तो हलक ही सूख गया । इसका मतलब हमारा बड़ा बेटा हमसे झूठ बोल के लाया । हमें यहाँ छोड़ने की तैयारी पहले से ही थी ।

उतनी देर में अंदर खड़ा हमारा छोटा बेटा भी बोलना शुरू हो गया । सारे मोहल्ले में हमारा मजाक ही हो गया ।

झगड़ा इतना हो गया कि वहीं बाहर खड़े-खड़े दोनों भाइयों की अदालत ने अपने फैसले में हमारा 'एक जिस्म दो जान' को दो हिस्सों में बंटवारा कर दिया।

हम दोनों ने हाथ जोड़ कर कहा भी कि हमारे लिए तुम आपस में झगड़ा मत करो । हमें अकेला छोड़ दो अलग राह लेंगे ।  हमारी पेंशन इतनी है कि हम अकेले ही गुजारा कर लेंगे ।

लेकिन दोनों ने एक साथ मिलकर जोर से कहा-- नहीं, आप हमारे होते हुए ,अकेले नहीं रहेंगे और फिर लोग क्या कहेंगे ? अब फैसला हो चुका है ।

औऱ

बड़े बेटे वरुण ने मेरा हाथ पकड़ा औऱ अपनी गाड़ी में बिठा कर चल दिया और मेरी पत्नी वहीं झुकी हुई मेरी ओर कदम बढ़ाने लगी तो उसकी आँखों से गिरते आंसू किसी को भी नज़र नहीं आये ।

फिर छोटे बेटे ने उनकी पतली हड्डियों को बाजू से एक बोझ की तरह पकड़ा और अपने घर के अंदर ले गया ।

हमने अपनी पेंशन बुक तक देखे अर्से बीत गए । मेरी पेंशन बड़े लड़के के पास और पत्नी की पेंशन छोटे के पास ।

"अब छोटा लड़का अपनी माँ को कुछ खाने को इसलिए नहीं देता कि तंग आकर वो खुद ही अपने बड़े लड़के के पास चली जाए ।"----कहता हुआ बुज़ुर्ग फिर गेट की ओर देखने लगा और जोर से रोते हुए कहने लगा--"कहीं वो दुनियाँ से--------!!!!"

अभी उसने इतना ही कहा राजेश ने उनके मुंह पर हाथ रखते हुए कहा--"नहीं अंकल ऐसा मत सोचो, हो सकता है कोई काम आ गया हो?"

"नहीं वो भूखी बेचारी लाचार को क्या काम हो सकता है ?"

"जैसे आज बरसात आ गयी? हो सकता है इसी वजह से न आई हो?"

"नहीं ? हमने ये प्रॉमिस किया था कुछ भी हो जाये आना ज़रूर है । कोई आंधी तूफान हमें नहीं रोक सकता । लगता है आज वो----!!!!"--कहता हुआ  वो बुज़ुर्ग ने राजेश के हाथ से लाठी ली और जैसे ही जाने को हुआ ।

तो पीछे से आवाज आई --"अजी सुनो !! कहाँ चल दिये ?.........!!!"

राजेश ने देखा एक बहुत ही सुंदर बुढ़िया । झुकी हुई गर्दन, छरहरा बदन । उम्र लगभग नब्बे साल !!
नैन नक्श पतले पतले आगे आते हुए फिर बोली-- "इतना ही इंतज़ार बस?"

अपनी बुढ़िया को देख वो बुज़ुर्ग सब गिले-शिकवे भूल गया । लाठी हाथ से छूट गयी । टेढ़े-मेढ़े चलते हुए उसने उसे अपनी आघोष में इस तरह लिया जैसे बरसों उससे बिछुड़ा मिला हो ।

राजेश अब सीट से दूर खड़ा इत्मीनान से ये मधुर मिलन देख कर अश्क़ों को बहाता हुआ बहुत ही खुशी महसूस कर रहा था और सोच रहा था कि कितने कायर और मक्कार होंगे वो बच्चे जिन्होंने इन दो पाक और पवित्र रूहों को उम्र के आखिरी पड़ाव में एक दूसरे से अलग कर रखा है ।

इतने में राजेश ने देखा कि उस बुज़ुर्ग ने झट से अपने कांपते हाथों से अपने थैले से वो कागज का पुलिंदा निकाला जिसमें वो अपनी बुढ़िया के लिए दो परांठे लेकर आया था । कागज खोला तो परांठे बरसात से गल चुके थे । वो बुज़ुर्ग कभी परांठों की तरफ तो कभी अपनी बुढ़िया की ओर देखने लगा और फिर आंसू बहाता हुआ बोला--"अब ये क्या हो गया?"---शर्मिंदगी महसूस करता हुआ फिर अपने परांठे की ओर देखने लगा ।

राजेश सब समझ गया । उसने अपने बैग से अपना लंच बॉक्स निकाला और बुज़ुर्ग अंकल के पास जाकर उनके पाँवों को हाथ लगाकर पूछते हुए बोला--"अगर माँ को खाना खिलाने का सौभाग्य आज आप मुझे दे दो तो खुदा कसम मैं अपने आपको बड़ा भाग्यवान समझूंगा ।"--कहते हुए राजेश उस बुज़ुर्ग के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया ।

उस वक़्त उस बुज़ुर्ग की आंखें भर-भर कर बहुत कुछ कहना चाहती थीं और मुसलसल  बयाँ कर रहीं थीं कि ऐसे प्यार को पाने के लिए उनकी आंखें तरस गयीं थी ।

उस दिन के बाद वो बुज़ुर्ग जोड़ी को राजेश ने कभी5जमK उस पार्क में आने नहीं दिया ।

~~समाप्त~~

हर्ष महाजन

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यह कहानी एक काल्पनिक रचना है और इसमें दिखाए गए सभी पात्र और पात्रों के नाम,स्थान और इसमें होने वाली सभी घटनाएं पूर्णतया: काल्पनिक हैं । इस कहानी/ धारावाहिक का किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति या घटना या स्थान से समानता पूर्णत: संयोग मात्र ही हो सकता है । इस धारावाहिक का उद्देश्य किसी भी व्यक्ति, धार्मिक समूह सम्प्रदाय, संस्था, संस्थान, राष्ट्रीयता या किसी भी व्यक्ति वर्ग , लिंग जाति या धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का कतई नहीं है ।
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पैन्ट्री ब्वाय राजू

 




       अमित उस दिन बहुत खुश था और ख़ुशी में दिल्ली से मुंबई का सफ़ऱ इस तरह कट रहा था जैसे  सदियाँ बीत गयी हों इस छुक-छुक करती गाड़ी में । 

आज ज़िन्दगी में पहली बार रेलगाड़ी के फर्स्ट ए०सी० कम्पार्टमेंट में सफर करते हुए उसे अपने बूढ़े माँ-बाप की खुशियाँ दिखाई दे रहीं थीं । उस बंद केबिन में अकेला बैठ कर सोच रहा था कि अब उसकी माँ लोगों के घरों में बर्तन माँजने नहीं जाया करेगी।  उसके बीमार पिता को दवाइयों के लिए इंतज़ार नहीं करना पड़ा करेगा ।

इसी उधेड़बुन में उसका ये आधुनिक सफ़ऱ उसके दिल में उमंग भर कर धीरे-धीरे कटने लगा था ।

गाड़ी में अपने कंपार्टमेंट में उन गद्देदार सीटों को और साफ-सुथरे बिस्तर और तौलियों को देखकर उनमें मजदूरी कर रहे अपने माँ-बाप की तस्वीरों को वो देख रहा था और उन्हें अपने सीने से लगाकर चूम रहा था जिन्होनें उसे यहाँ तक पहुंचाया था ।

        हाथ में प्रताप इंडस्ट्रीस के मुम्बई यूनिट में सीनियर मैनेजर की पोस्ट का नियुक्ति पत्र हाथ में लेकर सोच रहा था कि वह घर जाकर सबसे पहले उसे अपने माँ-बाप के पैरों में रखकर उनसे आशीर्वाद लेकर ही अपना नया ऑफिस जॉइन करेगा ।

जैसे-जैसे गाड़ी की सीटी की आवाज सुनाई देती अमित उसे सुनकर बड़ा खुश होता ।

गाड़ी में जो खाना भी मिला उसमें भी उसे बार-बार अपने माँ-बाप की तस्वीरें मजदूरी करते हुए ही दिखाई दे रहीं थीं । तभी उसके केबिन के दरवाजे को किसी ने दस्तक दी । अमित ने दरवाजा खोला तो सामने शाम की चाय लेकर एक पैंट्री बॉय खड़ा था ।

उसने झट से पूछा- "सर आप शाम की चाय के साथ कटलेट ब्रेड बटर लेंगे या पोहा?"

अमित ने इन सबका जवाब न देते हुए उस पैंट्री बॉय को ही पूछ लिया--"तुम्हारा नाम क्या है?

अमित ने जैसे ही उसको नाम पूछा वो घबराकर बोला-"सर कुछ गलती हो गई क्या मुझसे?"

अमित हंसते हुए बोला- "अरे नहीं नहीं भैया बस वैसे ही पूछा ?"

"राजू सर,राजू नाम है मेरा"

"वाह !! फिल्मी डायलॉग की तरह बोले हो भैया !!आओ अंदर मेरे पास तो बैठो".....!!!

मुस्कराता हुआ पैंट्री बॉय अंदर बैठते हुए अमित की शक्ल देख रहा था कि अब वो क्या पूछने वाले हैं । उसी वक़्त उसके बैठते-बैठते अमित ने उससे पूछ लिया--"कब से कर रहे हो यहाँ पर काम?"

"सर दो बरस हो गए?"

"यहाँ कैसे लग गए नॉकरी पे ?"

"सर बापू जी कुली थे । बहुत फेमस थे । फिर थोड़ा उदास होकर---वो नहीं रहे न ----- तो इसी गाड़ी के पैंट्री के ठेकेदार ने मुझे नॉकरी पर रख लिया"

"बापू नहीं रहे? मतलब उन्हें क्या हुआ?"

गमगीन होता हुआ राजू बोला--"सर दो साल हो गए इसी गाड़ी में सामान चढ़ाते हुए गाड़ी चल पड़ी तो पाँव स्लिप हो गया और वो गिर पड़े । लंबा गमछा गाड़ी के नीचे था गाड़ी के संग-संग लुढ़कते ही चले गए जब तलक किसी ने गाड़ी की चैन खींची हमारे बापू को हमारे सामने ही सामने गाड़ी अपने नीचे ही ले गयी । जब तक गाड़ी रुकी सब कुछ खत्म हो चुका था ।"

"ओह!!....!! और माँ ?"

"सर वो अपाहिज़ घर संभालती है औऱ मेरी एक छोटी बहन है 'उमा' जिसे मैं पढ़ा रहा हूँ अभी वो सातवीं क्लास में पढ़ती है । बहुत लायक है साहब । उसे मैं बड़ी शख्सियत बनाऊँगा"

उसके ये लफ्ज़ सुन अमित को अपने माँ-बाप की याद आ गयी । वो भी यही कहा करते थे लोगों को कि वो अपने बेटे को बहुत बड़ा आदमी बनाऊँगा औऱ उसे बड़ा बनाते-बनाते अपनी पूरी ज़िंदगी ही दाव पे लगा दी । ये सोचते-सोचते अमित ने फिर राजू से पूछा----

"माँ को क्या हुआ था ? वो कैसे-----?"

राजू, अमित की बात पूरी होने से पहले ही बोल पड़ा-- "बहुत लंबी कहानी है सर , सारी बता नहीं पाऊँगा वक़्त नहीं है लेकिन छोटे में बताता हूँ" औऱ कहानी सुनाते हुए उसने मुँह नीचे कर लिया । उसने कहना शुरू किया --"सर मैं उन दिनों देहरादून बोर्डिंग स्कूल में था"

"क्या?"--बोर्डिंग् स्कूल का नाम सुनकर अमित एकदम हैरान हो गया ।

"जी हाँ सर"---कहते हुए राजू की आंखें नम थीं ।औऱ उसने आगे कहना शुरू किया --"सर, पहले सुन लीजिये वक़्त नहीं है अभी फिर ठेकेदार आ जायेगा"

"हाँ कहो"

सर मेरे बापु बहुत बड़ी कंपनी में डिपुटी मैनेजर थे । उस कम्पनी का सारा हिसाब किताब उन्हीं के हाथों में था । उनके नीचे बहुत से वर्कर काम करते थे । कंपनी का मालिक मेरे बापू जी पर बहुत विश्वास करते थे । वो एक दिन टूर पर गए । तो मौका पाकर एक दिन मेरे बापूजी का एक विश्वास पात्र क्लर्क ने बापू जी की दराज में से साईंन किये हुए चैक चुरा कर कम्पनी एकाउंट से चालीस लाख रुपये निकलवा लिए । जब तक पता चला तब तक बहुत देर हो चुकी थी । तो आखिर में चोरी के इल्जाम में बापू जी को चार साल की सजा हो गयी । लेकिन सर कंपनी मॉलिक को अंदर से बापू जी की शराफत पर भरोसा था लेकिन पुलिस के पास सारे सपूत मेरे बापू जी के खिलाफ ही थे । बापूजी को जेल हो गयी ।

बापूजी जब जेल में थे मैं देहरादून में पढ़ाई कर रहा था । मेरी माँ अकेली (राजू उस वक़्त रो रहा था) हम खाने को मोहताज हो गए ।

गाज़ियाबाद में हमारा बड़ा मकान था । उसके बिजली के बिल, पानी जे बिल , मेरी फीस अब माँ कहां से देती ?

हमारी गाज़ियाबाद में आसपास अच्छी साख थी लेकिन माँ ने सारी शर्म छोड़ लोगों के घरों में काम करना शुरू कर दिया । माँ को तीन चार अच्छे घर मिल गए । गुजारा अच्छा चलने लगा । स्कूल के ऑफिस से पता चला कि मेरी फीस भी मेरी माँ वक़्त पर भिजवाने लगी थी। लेकिन न जाने स्कूल के बच्चों को कहां से पता चला और वो मुझे स्कूल में "ओ चोर की औलाद"  चिढ़ाने लगे थे । मेरा ध्यान अब टेंशन में बीतने लगा । लेकिन मैंने भी ठान लिया कि उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लूँगा और मैनें उनकी परवाह करनी बन्द कर दी और अपने आपको होस्टल के कमरे में ही बंद कर लिया ।

उन दिनों मेरे बाहरवीं के बोर्ड के इम्तिहान चल रहे थे और गाज़ियाबाद से खबर आई मेरी माँ जिस घर में काम करती थी उसकी तीसरी मंजिल से छलांग लगाकर उन्होंने आत्महत्या की कोशिश की थी ।

वहाँ के स्थानीय लोगों ने औऱ पुलिस ने मिलकर उन्हें अस्पताल पहुंचाया और पुलिस ने बापू जी को खबर कर दी और उन्होंने पैरोल पर बाहर आकर उनका इलाज करवाया । लेकिन बापू जी ने मेरी पढ़ाई खराब न हो इसलिये जब वो कुछ ठीक हो गयी तब खबर भिजवाई और मां से स्कूल के ऑफिस के फोन पर ही बात भी करवा दी ।"

अमित से रहा नहीं गया और उसने भीगी आंखों से राजू को पूछा--"कि माँ ने आत्महत्या के लिए इतना बड़ा कदम उठाया क्यूँ ?"

इस वक़्त राजू कहानी सुनाता हुआ पूरा टूट चुका था ।  वो जैसे-जैसे इस कहानी के साथ आगे बढ़ रहा था उसकी आँखों के आगे वही सीन बार-बार चल रहा था । वो उन्हीं बेदनाओं और संवेदनाओं से गुज़र रहा था । पीड़ा का एक अथाह सागर उसके मानस पटल पर छा रहा था ।

थोड़ी देर चुप रह कर उसने अपने आपको संभाला और फिर आगे कहना शुरू किया --"सर जिस घर में ये हादसा हुआ उस घर में मेरी माँ सभी घरों से काम निपटाने के बाद ही जाया करती थी ।

बड़े ही अच्छे दंपत्ति थे और दोनों ही बड़ी अच्छी पोस्ट पर लगे थे । इलाके के बड़े प्रतिष्ठित लोगों में उनका नाम शुमार था । उनके दो छोटे-छोटे बच्चे थे "शगुन और प्रीति" बहुत ही सुंदर और सुशील अपनीं माँ की तरह । उनके घर से मेरी माँ को बहुत प्यार मिला और वो मम्मी के हालात को समझते हुए उनसे बहुत लगाव भी हो गया था । दोनों बच्चे भी मेरी माँ के बिना नहीं रहते थे । लेकिन उस काली रात को......!!!" ---कहता हुआ राजू सिसक पड़ा ।

अमित ने भी आंसू टपकाते हुए उसकी पीठ पर हाथ रखा और अपने पास पड़ी बिसलरी की बोतल उसके हाथ में थमा दी ।

राजू ने भी उसमें से दो घूंट पीकर अपनी कहानी आगे शुरू की-- "दो दिन पहले उस दंपत्ति में से जो बच्चों की माँ थी वो अपने मायके इंदौर अपने भतीजे के मुंडन सरेमोनी में चली गयी थी  । साहब बच्चों के साथ घर पर अकेले थे । मॉलकिन मेरी माँ को घर में सबका ख्याल रखने को बोल कर गयी थी ।

उस दिन शनिवार का मनहूस दिन था । साहब ने अपने बच्चों को रौनक दिखाने के लिए घर में एक पार्टी रखी । एक दिन पहले ही साहब ने माँ को एक फिरोजी कलर की साड़ी लाकर दी जिस पर काले मोतियों का वर्क था, और कहा था-- "स्नेहा !! कल घर में एक छोटी सी गैट-टुगेदर (पार्टी) रखी है तुम ये पहन के आना" और माँ वही साड़ी पहन कर उस पार्टी में गयी थी और पार्टी में खूब धूमधाम हूई औऱ खूब दारू भी चली ।  उस पार्टी में दस जोड़े आये । उनके छोटे-छोटे बच्चे भी थे । सबका खाना मां ने पहले ही तैयार कर लिया था । पार्टी में दारू का दौर खत्म हुआ औऱ डाइनिंग टेबल पर खाना लगा दिया गया । सभी खाना खाने में मस्त थे ।

अचानक एक चीख की लंबी आवाज और सब के मुँह खुले के खुले रह गए । अचानक सब नीचे की ओर भागे । माँ तीसरी मंजिल से नीचे गिर कर बेसुध पड़ी थी । लोगों ने बाद में बताया कि पहले नीम के पेड़ पर बड़ी जोर से हलचल हुई फिर नीचे धड़ाम से गिरने की आवाज हुई औऱ धीरे-धीरे भीड़ इकट्ठा हो गयी"

अमित पसीने-पसीने हो गया था और हल्क सूख चुका था । बड़ी मुश्किल से अमित पूछ पाया-- "फ़िर?"---------!!!!

"नहीं नहीं !! तुम जो सोच रहे हो वैसा तो बिल्कुल भी नहीँ था । लेकिन मेरी माँ ने आत्महत्या भी नहीं की थी । ये मुझे मालूम है ।

साहब भी बहुत ही शरीफ आदमी थे । लेकिन पुलिस साहब को गिरफ्तार कर के थाने ले गयी और एक और दाग हमारी फेमिली की झोली में आ गिरा --"बदचलन का"--जिसे धो पाना अब किसी के बस की बात नहीं थी ।"

"ओह !! गॉड !!"--अमित अब सोच रहा था कि उसका अपना औऱ उसकी फेमिली का दुख तो राजू की फैमिली के दुख के आगे तो कुछ भी नहीं है? अमित ने फिर 'सिसकते हुए राजू' को पानी की बोतल पकड़ाई ।

राजू ने फिर दो घूंट पीए और बोतल वापिस सीट पर रख दी और आगे बताया --"बापू जी को जेल में सजा काटते दो साल हो चुके थे कि अचानक केस ने पलटा खाया और बापू जी पैरोल से जैसे ही छह महीने बाद मम्मी का इलाज करवा कर वापिस जेल गए तो उसके तीन महीने बाद ही वो जेल से रिहा हो गए और छुड़वाने के लिए उसी कम्पनी के मॉलिक ने ही केस वापिस लेकर उन्हें झेल से बाहर निकलवाया ।

पता चला वो क्लर्क दुबारा चैक चुराता हुआ रंगे हाथों जब पकड़ा गया तो उसने पुलिस की थर्ड डिग्री के आगे बाकि के सभी जुर्म भी कबूल कर लिए । उसमें मेरे बापू जी का भी केस सॉल्व हो गया ।

उसके बाद तीन साल तक बापू जी ने मेरी माँ का इलाज करवाया । मेरी माँ ठीक तो हो गयी । लेकिन  मम्मी के इलाज में ग़ाज़ियाबाद का मकान सस्ते दामों में बिक गया ।

बापु जी की ज़िन्दगी और कैरियर दोनों ही तबाह हो चुके थे ।

तब तक बापू जी को एक ठेकेदार ने मजदूर की नोकरी देकर ईंटे ढोने का काम दे दिया था । अपने साथ काम करने वाले एक मजदूर की सहायता से  बापूजी मेरी छोटी बहिन के साथ मिंटो रोड़ पुल के नीचे एक झुग्गी में आ गए और इतनी मेहनत से काम कर के मुझे उन्होंने एम०बी०ए तक करवा दिया । मैनें आई०ए०एस० दो बार पास किया लेकिन मुझे साक्षात्कार में बापूजी और माँ के जीवन में दिए गए दाग ने कभी.........!!!!"---कहते हुए वो चुप हो गया ।

अभी वो आगे कुछ कहने वाला ही था कि उसका ठेकेदार उसे ढूँढता हुआ आया और चिल्लाता हुआ बोला-- "राजू तुम्हें पता भी है पैसेंजर की कितनी कम्प्लेंट्स इकट्ठी हो गयी हैं । किसी के पास उनका खाना नहीं पहुंचा?"

राजू फट से उठा और वहां से हवा की तरह ये कहता हुआ गाड़ी के अंदर बहुत दूर निकल गया--"सर चिंता न करो अभी दस मिनट में सभी पैसेंजर्स की कंप्लेंट रिवर्स हो जाएगी--"

अमित के हाथ में राजू की दी हुई शाम की चाय की ट्रे एक कहानी कहती हुई उसे देख रही थी । उस ट्रे को देखते हुए उसकी खुशियाँ न जाने कहाँ गायब हो चुकी थी । काफी देर तक अमित अपने केबिन का दरवाजा खोल कर बाहर खड़ा उस ओर देख रहा था जिस ओर वो कहता हुआ दौड़ गया था कि दस मिनट में...........!!!!

वापिस आकर अमित अपने बिस्तर पर लेट तो गया मगर सारी रात करवट बदलता रहा । सुबह हो गयी ।

सुबह उठ कर अमित उसकी राह देखता रहा । लेकिन वो नहीं आया । उसकी तमन्ना घी कि वो भी राजू को अपनी बेबसी की कहानी सुनाता ।उसे अंधेरी उतारना था लेकिन राजू से मिलने की खातिर वो बाँधरा तक चला गया था औऱ गाड़ी वहीं तक जानी थी ।

सब लोग उतर गए लेकिन अमित राजू का इंतजार करता हुआ सबसे आखिर में उतरा !! लेकिन उदास उतरा !!

अमित अपनी नॉकरी से खुश था लेकिन राजू के मिलने के बाद इतना नहीं था ।

उसके दिमाग़ में सिर्फ एक ही प्रश्न घूम रहा था कि राजू ने ये क्यों कहा--"कि जो तुम सोच रहे हो वैसा बिल्कुल नहीं है ? माँ ने आत्महत्या भी नहीं की थी"

"फिर क्या हुआ था उसकी माँ को ?"

अमित अब भी कई बार सुबह टहलता हुआ स्टेशन चला जाता है और उसी गाड़ी में कई बार जाकर राजू को ढूँढने की कोशिश करता है कि कहीं उस से मुलाक़ात हो जाये ।

~~समाप्त~~

हर्ष महाजन 'हर्ष'
💐💐💐

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यह कहानी एक काल्पनिक रचना है और इसमें दिखाए गए सभी पात्र और पात्रों के नाम,स्थान और इसमें होने वाली सभी घटनाएं पूर्णतया: काल्पनिक हैं । इस धारावाहिक का किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति या घटना या स्थान से समानता पूर्णत: संयोग मात्र ही हो सकता है । इस धारावाहिक का उद्देश्य किसी भी व्यक्ति, धार्मिक समूह सम्प्रदाय, संस्था, संस्थान, राष्ट्रीयता या किसी भी व्यक्ति वर्ग , लिंग जाति या धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का कतई नहीं है ।
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बेकसी

 

                           बेकसी

रमाकांत ने बताया कि उस दिन सुबह-सुबह किसी ईश्वर दत्त गुप्ता जी का उसे फोन आया था और कह रहे थे कि उन्होंने मंदिर से बेटी अंतरा का बायोडेटा लेकर गए थे और वो अपने बेटे चेतन के रिश्ते के बारे में उनसे बात करना चाहते थे  ।

"लड़की और लड़के की एजुकेश भी तकरीबन एक जैसी है । दोनों ही इंजीनिरिंग के साथ एम०बी०ए है ।" तो लड़के के पिता ईश्वर ने जब ये कहा--तो रमाकांत ने भी कह दिया कि उनकी लड़की अंतरा ने साथ में एम०एड० भी कर रखी है जी"

औऱ साथ में रमाकांत ने खुशी-खुशी उन्हें ये भी कह दिया कि "क्यों नहीं, क्यों नहीं ।" अगर आपने बायोडेटा का मिलान कर लिया है औऱ पसंद भी है तो एक दिन किसी रेस्टोरेंट में या मंदिर में लड़की और लड़के दोनों का देखने-वेखने का प्रोग्राम बना लेते हैं ।

रजिया ने मटर छीलते हुए ही अपने पति केवल से पूछा-- - "अच्छा वो तुम्हारे पुराने दोस्त की बेटी अंतरा के लिए? अच्छा~~~ फिर?"

"फिर क्या ? रमाकांत ने अपनीं पत्नी लाजो से बात की होगी कि वो बेटी अंतरा से पूछ ले, कि वो किस दिन ऑफिस से छुट्टी ले सकती है या वो किस दिन फ्री है ।  तो उसी दिन किसी रेस्टोरेंट में देखने-दिखाने का प्रोग्राम बना लेते हैं । अब पता नहीं इस लड़की के मुक़द्दर यही लड़का लिखा हो ?

रमाकांत ने लाजो से अभी इतनी ही बात की थी कि बेटी अंतरा जो साथ वाले कमरे में बैठी ये सब सुन रही थी । वो एकदम  भड़कती हुई आग बबूला हो अपने कमरे से बाहर आई और चिल्लाती हुई आवाज में बोलती ही चली गयी  .......!!!

"अरे ?... क्या कहा उसने?".......!!!

यही कि "तुम लोग समझते क्यों नहीं हो ? कितनी बार मुझे लोगों के आगे फ़ोटो फ्रेम की तरह पेश करते रहोगे? कितनी बार मुझे रोज नए-नए कपड़े पहनाकर थाली में एक व्यंजन की तरह  परोसते रहोगे? तंग आ गई हूं मैं इन सब से । हर बार किसी न किसी के साथ बिना सोचे समझे देखने-दिखाने के नाम पर मुझे जलील करने के लिए अपने साथ ले जाते रहोगे और फिर वही "एक ही बात के साथ वही सिलसिला शुरू हो जाता है -----!!!!

हमें लड़की तो पसंद है । घर-बार भी पसंद है मगर हम चाहते हैं कि लड़का-लड़की आपस में एक दो बार मिल कर एक दूसरे को जान पहचान लें, उसके बाद फिर रिश्ता पक्का कर लेते हैं और ये सिलसिला हमारे साथ चार साल से मुसलसल चला आ रहा है ? क्या अभी भी आप लोगों का दिल नहीं भरा?" --- रो-रो कर कहती हुई अंतरा पाँव पटकती हुई अपने रूम के अंदर वापिस चली गयी और घंटो पलंग पर पड़ी रोती रही .......!!!!

औऱ माँ लाजवंती फिर उसको पलंग पर बैठे घंटो उसे सहलाती रही, मनाती रही.....!!!

फिर कई दिन तक माँ ने उसके मूड को ठीक करने में लगा दिए ।

"हाय राम !! चार साल हो गए क्या? उन्हें लड़का देखते-देखते?"--रजिया ने उसी बात को सोचते हुए बोली ।

"हो तो गये रजिया"-- उसके पति केवल ने उदास और बैचेन होते हुए कहा ।

रजिया ने फिर कहा-- "अरे रमाकांत की बिटिया अंतरा तो चाँद सी सुंदर भी है और ज़हीन भी । फिर ये आजकल के लड़कों को और क्या चाहिये? फिर अब तलक ये रिश्ता हो क्यों नहीं रहा?"

"पता नहीं भागवान अब क्या मामला है ? छोटे भाई की लड़की है इसलिए कुछ कह भी नहीं सकते न?"

"क्या मतलब?"

अरे सीधी सी बात है कि हमारे दोस्त की बिटिया अंतरा बहुत भोली-भाली और संस्कारी है । लेकिन आजकल के लड़के तो बहुत चालाक हैं न?"

"अरे तो फिर इसमें क्या बात हुई? तुम क्या कहना चाहते हो खुल के कहो न? मुझसे ही तो बात कर रहे हो, उनसे जाकर थोड़े ही कुछ कह रहे हो?"

"अरे कुछ ज्यादा नहीं । असल में मुझे लगता है अभी तक जो भी लड़के उसे देखने आए उन सबने अंतरा का बायोडाटा देखा और लड़की को भी देखा, मां, बाप से भी मिले । सब कुछ ठीक-ठाक रहा । सब कुछ उन्हें पसंद आ भी जाता है ।"

"तो फिर?"

जैसे ही लड़की-लड़के को बाहर दो तीन बार अकेले मिलने के नाम पर डेट करते है तो बस उसके बाद उनके फोन का इंतज़ार ही करते रह जाते हैं ।

तो इसका मतलब क्या हुआ?

"मतलब तो फिर साफ है न?"--केवल समझाते हुए बोला -----इसी डेट में ही कहीं कोई गड़बड़ होती है ।जबकि अंतरा  को दो तीन बार मिलने के बाद भी वो लड़का पसंद होता है ।

लेकिन

लड़के वालों की तरफ से कोई जवाब ही नहीं आता ?

"क्यों?"

"ये ही सोचने वाली बात है ।"

"हाँ यही तो मैं कह रही हूँ, ऐसा क्यों जी?"

"मैनें कहा न भागवान, कि रमाकांत के बेटी अंतरा बहुत भोली-भाली  है । हर बार लड़का, चालाकी से लड़की के अंदर की बातें, उसके सीक्रेट्स उससे वर्गला के पूछ लेता है और जब वो अंदर की बातें जान लेता है फिर उसमें कमी देख कर,  दुबारा इधर का रुख ही नहीं करता ।"

"मैं समझी नहीं, तुम क्या कहना चाहते हो?"

"तुम भी न बस डफर ही हो"

"हाँ- हाँ, वो तो मैं हूँ ही। पर तुम मुझे समझाओ तो?"

"मेरे कहने का मतलब ये है कि--लड़का, लड़की को झाँसा देकर पहले तो मीठी-मीठी बातें करता है, फिर लड़की को ऐसा शो करता है जैसे उसे सो प्रतिशत लड़की पसंद है और उसी से शादी करेगा । फिर लड़की को भी ऐसा फील होने लगता है कि ये लड़का उसे पसंद करने लगा है । जैसे ही लड़के को महसूस होता है कि उसने लड़की का विश्वास पा लिया है तो फिर वो अपना पासा फेंकता है।"

"क्या?"--रजिया आगे को झुक कर कुछ न समझते हुए पूछती है ।

"लड़का खुद के बारे में पहले कहेगा कि वो पहले बता देना चाहता है कि उसका किसी के साथ अफेयर था लेकिन अब ब्रेकअप हो चुका है ।
फिर आगे कहेगा , देखो अब हम जब रिश्ते में बंधने ही लगें है तो क्यों न हम पुरानी कुछ बाते शेयर कर लें । इतना कह कर वो हंसने लगेगा और फिर कहेगा--मेरा तो एक अफेयर था और अब तुन्हें देखकर सब खत्म   उसके बाद वो लड़की को पूछेगा--तुम्हारा भी की अगर कोई क्रश था तो उसे तुम भी भूल जाओ । अगर कोई है तो तुम भी बता दो ? लड़की तो यही समझती है कि जब सब कुछ सेटल हो ही गया है  तो बताने में हर्ज ही क्या है?
बस यहीं लड़की मार खा जाती है और लड़का लड़की का सीक्रेट पॉइंट और नेगेटिव बात लेकर चला जाता है और फिर मुड़कर वापिस ही नहीं आता ।"

"हाय राम !! ऐसे करते हैं लड़के? फिर तो ये देखने-दिखाने  का प्रोग्राम होना ही नही चाहिए?"

"ज़रूरी नहीं कोई अफेयर की बात ही हो? कोई और भी सीक्रेट हो सकता है जो लड़की ने बता दिया हो और वो लड़के को पसंद न आया हो?
कोई मम्मी/पापा के बारे में, या फिर अपनी मौसी या बुआ, चाचा, चाची या फिर दादा दादी के बारे में, कुछ भी ?"

"तो फिर आप ही समझाओ लड़की को कि क्या बात करनी चाहिए और क्या नहीं ? आपका अपना खास दोस्त ही तो है । उसकी बेटी भी तो आपकी बेटी हुई न?"

"नहीं भागवान !! अगर उसने कुछ गलत समझ लिया तो हमारा अपना रिश्ता भी हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा ।"

"मुझे पहले ये बताओ कि तुम्हें अपना रिश्ता टूटने का डर है या लड़की के भविष्य का?"--रजिया ने पति को कटाक्ष करते हुए आगे पूछा ---"कि फिर लड़की को कैसे पता चलेगा कि वो कहाँ गलती कर रही है ? उसे कोई समझायेगा तो ही पता चलेगा न? तुम बताओ तो सही उसे क्या करना चाहिए?"

केवल ने कुछ सोचते हुए कहा-- "सही तरीका यही है कि पहले आप अपने अंदर छिपे जज्बातों पर नियंत्रण रखें और फिर सामने वाले की फीलिंग्स को ध्यान में रखकर अपनी बात कहें । घर की बातें, दिल की बातें जिनके बिना बताए भी गुजारा हो सकता है, कम से कम बताएँ बल्कि जितना हो सके उससे जानने की कोशिश करें ।  उसके साथ कम से कम समय बिता कर घर वापिस आने की कोशिश करें ।"

"हम्म्म्म हाँ जी बात तो तुम ठीक कह रहे हो जी ये जो मिलने-मिलाने का नया फैशन  है जो इंटरव्यू बन के हमारी अंतरा को बार-बार फेल करा रहा है ।"

~समाप्त~

हर्ष महाजन 'हर्ष'

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यह कहानी एक काल्पनिक रचना है और इसमें दिखाए गए सभी पात्र और पात्रों के नाम,स्थान और इसमें होने वाली सभी घटनाएं पूर्णतया: काल्पनिक हैं । इस धारावाहिक का किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति या घटना या स्थान से समानता पूर्णत: संयोग मात्र ही हो सकता है । इस धारावाहिक का उद्देश्य किसी भी व्यक्ति, धार्मिक समूह सम्प्रदाय, संस्था, संस्थान, राष्ट्रीयता या किसी भी व्यक्ति वर्ग , लिंग जाति या धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का कतई नहीं है ।
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Sunday, February 26, 2023

मैं और मेरी पत्नी

 

हम दोनों

आज दुपहर हमारी सोसाइटी की अचानक लाइट चली गई तो जेनरेटर ऑन होते ही लाइट फिर  ट्रिप कर गई । क्योंकि सभी फ्लैट्स की एमसीबी नीचे ही लगीं थी । गार्ड आकर पता नहीं कब एमसीबी उठाता । गर्मी बहुत थी तो मैंने सोचा मैं खुद ही नीचे जाकर एमसीबी उठा आता हूं । इसलिए मुझे नीचे जाना पड़ा ।

आज मुद्दत बाद घर से निकला था वो भी एम०सी० बी० को उठाने के लिए । लिफ्ट में घुसते ही जैसे मैंने ग्राउंड फ्लोर का बटन दबाया तो बस एक झटका लगा और लिफ्ट चली और रास्ते में ही अटक गई । 

पता नहीं किसकी शक्ल देखी थी कि मूहर्त ही गलत हुआ । हां याद आया जब घर का दरवाजा खोला था तो ऊपर से कोई शख्स टोपी पहन कर सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था । अब खैर शक्ल तो मुझे याद नहीं ।

तीसरी मंजिल से लिफ्ट पकड़ी थी और दूसरी पर पहुंचने से पहले ही रास्ते में अटक गई ।  गर्मी से वैसे ही जान निकली जा रही थी । मुकद्दर खराब हाथ में मोबाइल भी नहीं लिया कि बस नीचे गया और आया ।

पत्नी भी मेरे से थोड़ी देर पहले ही बाहर निकली थी दूध लेने के लिए तो मैं मेन डोर पर ताला ठोक आया था । अब फिकर ये भी थी कि पत्नी दूध लेकर घर पहुंचेगी तो उसे घर पर ताला मिलेगा और वो फिक्र करेगी कि मैं कहां चला गया ।

मुसीबत ये थी कि लिफ्ट का इंटरकॉम देखा वो भी काम नहीं कर रहा था । उसकी तार ही किसी ने काट दी थी । अब किसी को फोन करके बता भी नहीं सकता था कि मैं लिफ्ट में फंसा हूं ।

लिफ्ट का दरवाजा भी बहुत पीटा । लेकिन सुनने वाला कोई नहीं था । भरी दुपहरी का वक्त था । सभी लोग अपने अपने घरों में ए०सी० चला कर आराम फरमा रहे थे । बाहर कौन घूमेगा?

सारी सोसाइटी में वैसे भी कंस्ट्रक्शन का काम चल रहा था । दरवाजे को पीटना भी व्यर्थ ही लग रहा था क्योंकि पीटने की आवाज को लोग तो यही समझ रहे होंगे कि कोई लेबर काम कर रही है उसी की आवाज होगी ?

पसीने से पूरी तरह लथपथ हो चुका था । घबराहट अलग हो रही थी । कोई उपाय नजर ही नहीं आ रहा था ।

अचानक दिमाग ने करवट ली और इंटरकॉम की लटकती तार पर  मेरी नजर गई तो सोचा इसे किसी तरह जोड़ कर देखते हैं ।

तार दांतों से छील कर देखी तो जुगाड बनता दिखाई दिया । किसी तरह दोनों हाथों से जोड़ कर फोन का हैंडल कानों को लगाकर देखा तो फोन चालू था ।

थोड़ी सी जान में जान आई और मैंने 9 नंबर लगाकर गेट पर फोन लगा दिया । किस्मत अच्छी थी । गेट पर गार्ड ने फोन उठा भी लिया और उसे संदेसा भी दे दिया कि एक घंटे से लिफ्ट में फंसे पड़े हैं भैया जरा भाग के कुछ करो ।

गार्ड भी अच्छा था, फौरन भागता हुआ आया और उसने मेन फेस की लाइन को एक बार ऑफ एंड ऑन किया तो लिफ्ट हरकत में आ गई ।

दिल को बड़ी राहत और सकून मिला कि लिफ्ट नीचे को उतरने लगी ।

लिफ्ट का दरवाजा खुला तो एक ठंडी हवा की लहर ने बदन को छुआ तो सांस में सांस आई ।  ऐसे लगा कि जैसे  बड़े दिनों बाद जेल से छूटे हों ।लिफ्ट से बाहर आकर बड़ी राहत मिली ।

लेकिन अगले ही क्षण एक और झटका लगा और मेरी हैरानी का ठिकाना नहीं रहा । मेरे सामने वाली लिफ्ट से मेरी धर्म-पत्नी भी हांफती हुई उस लिफ्ट से बाहर निकली । उसकी हालत तो मेरे से भी ज्यादा  खस्ता और बदतर थी । क्योंकि वो तो मेरे से काफी पहले घर से निकली थी ।

तो हम दोनों पति पत्नी इन दोनों खस्ता लिफ्टों के शिकार हो गए ।

गार्ड को मैनें कोटि-कोटि धन्यवाद किया ।

अब हम पति-पत्नी आमने-सामने हुए तो दोनों के मुंह से एक जैसे शब्द इकट्ठे निकले - "न जाने आज निकलते वक्त किसका मुंह देखा था?"
🌳🌳🌳
~ समाप्त~

🌿हर्ष महाजन🌿

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यह कहानी एक काल्पनिक रचना है और इसमें दिखाए गए सभी पात्र और पात्रों के नाम,स्थान और इसमें होने वाली सभी घटनाएं पूर्णतया: काल्पनिक हैं । इस कहानी का किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति या घटना या स्थान से समानता पूर्णत: संयोग मात्र ही हो सकता है । इस कहानी का उद्देश्य किसी भी व्यक्ति, धार्मिक समूह सम्प्रदाय, संस्था, संस्थान, राष्ट्रीयता या किसी भी व्यक्ति वर्ग , लिंग जाति या धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का कतई नहीं है ।
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आर्या

 





★फरवरी का महीना कड़ाके की ठिठुरने वाली ठंड औऱ सुधा फिरोजी रंग की साड़ी औऱ उसके ऊपर हल्के ब्राउन रंग का ओवर कोट पहने, नई दिल्ली स्टेशन पर खड़े, इस उम्र में भी बला की खूबसूरत लग रही थी ।

उसको ज्यादा देर इंतज़ार नहीं करना पड़ा था । गाड़ी प्लेटफॉर्म पर जल्दी ही आकर लग गई थी ।

उसने दुर्ग फेस्टिवल स्पेशल ट्रेन अभी पकड़ी ही थी कि उसने पटरी पर रेंगना शुरू कर दिया । ट्रेन में अपनी सीट पर बैठ, अपना बैग सीट के नीचे रखा और इत्मीनान से अपनी खिड़की वाली सीट पर बैठ गयी । उस दिन वो बड़ी खुश थी । बेटी आर्या के पास जाने का सुखद आनंद लेते हुए अपनी सीट पर सेट होने के बाद उसका दिमाग़ फिर पहले की ही तरह अपनी पुरानी यादों में खोकर खिड़की से बाहर शून्य में देखने लगी थी ।

ख्याल उचाईयां छूने लगे थे और सोच रही थी कि आज वो काफ़ी अरसे बाद लगभग दस साल के बाद अपनी बेटी आरु के पास मिलने जा रही थी । फख्र था उसे कि वह उस वक़्त बहुत बड़े ओहदे पर कार्यरत थी  । 

सुधा सोच रही थी कि अगर उसको उसकी कंपनी का मालिक *प्रताप वासवानी*  ने उस वक़्त सहारा न दिया होता तो उसका क्या होता ?

उन्होंने अपनी कंपनी का पूरा भार उसके काँधे पर डाल दुनियाँ से विदा ले ली थी ।

सुधा का सोच तंत्र तब भंग हुआ जब एक छोटा सा बच्चा नानी-नानी करता हुआ सुधा से आकर लिपट गया ।

ये देख सुधा ने हैरान हो पहले उस बच्चे की ओर फिर पीछे आती उसकी माँ की ओर देखा ।

उसकी माँ लगभग बाईस या तेईस वर्ष की होगी ।  शक्ल से बहुत ही सुंदर और सुशील लेकिन उसकी उदासी उसके चेहरे पर साफ-साफ झलक रही थी । वो बिना किसी भाव के उसके सामने वाली सीट पर आकर बैठ गयी ।

बच्चे के साथ उसका वार्तालाप बता रहा था कि वो दो साल का बच्चा जो उसकी बेटी ही थी ।

एक बैग जब उस लेडी ने सीट के नीचे रखा तो उसकी गर्दन पर पड़े कुछ ताजे ऐसे निशान दिखे जो ऐसा लग रहा था कि किसी से उसके साथ मारा पीटी की है ये उसी का नतीजा है । 

उस लड़की ने अपनी बच्ची को गोद में बिठा लिया और अपनी सीट पर बैठ कर खिड़की से बाहर देखने लगी ।

सुधा उसे एक टक देख रही थी । उस लड़की की पलकें उसके आंसूओं का बोझ शायद सहन नहीं पा रही थीं ।

सुधा को कुछ-कुछ तो समझ आ रहा था । वो दो साल की प्यारी सी बच्ची सुधा की ओर देख कर बार-बार मुस्करा कर उसे नानी-नानी पुकार रही थी । सुधा ने प्यार से उसे अपने पास बुलाया तो वो चुम्बक की तरह आराम से उसके पास चली आयी ।

उसकी माँ जो अभी तक आँसू बहा रही थी ---हैरान होकर सुधा की ओर देखने लगी और बोली--"कमाल है? ये तो किसी के पास नहीं जाती । चाहे कोई भी हो? लेकिन आपके पास तो बिना बुलाये औऱ एक बार बुलाने पर ही चली गयी ? वेरी स्ट्रेंज !"

"हॉं~~~~प्यार में बहुत ताकत होती है~~~~~"

"रुबीना!!!----मेरा नाम रुबीना है"---उस लड़की ने अपना नाम बताते हुए आगे मुस्कराते हुए कहा -- "और इसका नाम *अनाया* है"

कुछ देर का सन्नाटा

फिर सुधा बोली--"प्यार एक ऐसी चीज़ है जो खुद ही रूहों को अपनीं ओर खींच लेता है"

"नहीं ! ------(फिर थोड़ा रुक कर) मैं नहीं मानती ।"--अनाया के सर पर हाथ फेरते हुए *रुबीना* ने कहा ।

तुरंत ऐसा जवाब सुनकर *सुधा* ने एक बार रुबीना की ओर देखा और फिर अनाया के सर पर हाथ फेरते हुए पूछा--"इसके पापा नहीं आए साथ क्या ?"

ये पूछते हुए सुधा को अपना वक़्त याद आ गया । जब दो महीने की आर्या बस नन्हीं कली थी  औऱ उसके पिता ने चुपके से अपने हाथ का साया पीछे खींच लिया था ।

सुधा के इस प्रश्न ने रुबीना को एकदम असहज कर दिया ।

उसके चेहरे के भाव धीरे-धीरे बदलने लगे । कुछ देर अपने को संभाल अपने उबलते भावों को रोकते हुए  बोली---"इसके पापा के बारे में न ही पूछें तो अच्छा है ।"

सुधा ने सब कुछ थोड़ा समझने की कोशिश करते हुए ।

"क्यों ऐसा क्यों ?"---सुधा ने पूछा और फिर रिलॉइस किया कि उसे ये प्रश्न नही पूछना चाहिए था ।

लेकिन रुबीना ने बताया--"वो इसका पापा कम, दुश्मन ज्यादा था ।"

"था ? मतलब?"

"हॉं--था !  छोड़ आयीं हूँ उसे हमेशा के लिए ।

फिर थोड़ा रुक कर

तंग आ गयी थी मार खा-खा के । जब से *अनाया* पैदा हुई, मतलब जब से ये इस दुनियाँ में आई, उसके बाद से ही उस शख़्स के तेवर ही बदल गए"

"क्यूँ ? ऐसा क्यूँ ?"

"वही धकियानूसी समाज, उसे भी लड़का ही चाहिए था न ?"

"ओह !~~~~~तो अब फिर कहां जा रही हो आप ?

"भिलाई !! अपनी माँ के पास"

"आपके पिता ?"

"वो नहीं रहे ! दो साल पहले उन्हें अटैक आया और~~~"

"और माँ क्या करतीं हैं?"

"पापा की पेंशन आती है न"

इतनी बात सुन सुधा का दिमाग़  घूमने लगा । उसको अपनी जवानी में बीती वो सारी दास्ताँ एक फ़िल्म की तरह याद आने लगी थी ।
💐💐💐

सुधा का उस दिन फाइनल ईयर का आख़िरी इम्तिहान था । वो बहुत उदास और घबराई हुई थी । लेकिन जल्दी से तैयार हो कर पूरी तैयारी के साथ वो कॉलेज जल्दी पहुँची थी कि उसे गेट पर ही टाईम का पाबंद मुकेश मिल गया ।  मुकेश ने देखा कि वो थोड़ा  घबराई हुई सी लग रही थी ।

मूकेश ने उसकी घबराहट कम करने के लिहाज से उसे समझाने की कोशिश की कि उस दिन आख़िरी इम्तिहान है घबराने की क्या बात है ? तुम इंटेलिजेंट हो सब ठीक होगा चिंता मत करो सुधा डियर ?

"अरे इम्तिहान से थोड़े ही डर रही रही हूँ मुकेश, तुम भी न"

"तो फिर?"

"मुझे डर लग रहा है आज आख़िरी इम्तिहान है । आज के बाद सारा-सारा दिन मुझे घर पर ही रहना पड़ा करेगा और वही पापा की चिकचिक सुननी पड़ा करेगी । तुमसे मिलना भी मुश्किल हो जाएगा"

"ऐसा क्या है यार वो ऐसा क्यों करते हैं?"

"उन्हें लड़कियाँ बिल्कुल भी पसंद नहीं । पहले जब उमा दीदी पैदा हुई थी तो भी मुहल्ले वाले बताते हैं कि घर में उस वक़्त भी बहुत हंगामा हुआ था । मम्मी को कई बार  तंग आकर मायके भी जाना पड़ा था ।"

"और जब तुम पैदा हुई तो?"

"तो तुम खुद अंदाजा लगा सकते हो कि क्या हुआ होगा ।"

"तुम्हारे सो कॉल्ड पापा श्री चंद्र टेक्चन्दानी जी का कोई तो इलाज होगा?"

"कोई इलाज नहीं है"

" तुम्हारे रिश्तेदार नहीं हैं क्या ? सब मिलके कुछ कहते क्यों नहीं उन्हें ?"

"मुसीबत में कोई किसी का नहीं होता मुकेश । सब तुम्हारी तरह नही होते"

'मेरे बस में होता तो उन्हें सबक ज़रूर सिखाता"

सुधा उसकी शक्ल देखते हुए बोली --"क्या कह रहे हो?"

"हॉं यार तुम्हें दुखी अब देखा नहीं जाता । लड़कियों के बिना तो घर सूना ही लगता है । तुम्हें पता है ? हम भी दो भाई है और हम तो बहनों के लिए तरसते हैं "

"चलो इस बात की तो चिंता नहीं है न अब मुझे ?"--सुधा उसकी ओर प्रश्न भरी दृष्टि से औऱ मुस्कराकर देखते हुए बोली ।

"तेरे पापा तुम्हें भी कुछ कहते हैं क्या?"

"कुछ भी बोल देते हैं । ये तो मम्मी हमारे आगे ढाल बन के सामने खड़ी हो जाती है ।  नहीं तो मैं तुम्हें कॉलेज में नज़र थोड़े ही आती ।"

"पापा तो हमारी पढ़ाई के भी खिलाफ़ ही थे । जब स्कूल में दाखिला लेना था तो पापा ने बोल दिया था । लड़कियां हैं इन्हें घर का काम सिखाओ । पढ़ाने-वढाने की कोई ज़रूरत नहीं है ? समझे?"

मूकेश गुस्से में बोला--"अरे लड़कियाँ कोई खैरात है या वो नॉकरानियाँ है ? हद हो गयी ।"

मम्मी ने उन्हें बहुत समझाया कि बच्चियाँ पढ़ लिख जायेंगी तो उनको अच्छे घरों में शादी कर सकेंगे ।

लेकिन पापा ने साफ मना करते हुए मम्मी को कहा था--"देखो स्नेहा ! मेरे पास इतना सरमाया नहीं है कि बेटियों को पढाने के लिए पहले उन पर पैसा लगाऊँ और फिर किसी को मुफ्त में सौंप दूँ । इसमें हमें क्या मिलेगा?"

"मैं उस वक़्त बहुत छोटी थी । मुझे अच्छी तरह याद है । उस दिन मम्मी बहुत रोई थी और बहस करते हुए दाल भी जल गई थी । इस बात पर मम्मी पे उस दिन पापा ने हाथ भी उठाया था ।"---कहते हुए सुधा की आंखों में आँसू छलक आये थे ।

"तो मम्मी ने पुलिस में रिपोर्ट क्यों नहीं की?"

"रिपोर्ट करने के बाद कहाँ जाती वो ? आना तो फिर घर पर ही था न?"

"फिर क्या हुआ?"

"उस दिन सारा दिन मम्मी रोती रही और जब रो-रो कर थक गयी तो फिर रात का खाना बनाना शुरू किया ।"

"यार ऐसे इंसान को तो पड़ौसियों को भी मिलकर मार लगानी चाहिए थी और सबक सिखाना चाहिए था कि बेटियाँ भी देश का भविष्य होती हैं ।"--तैश में मुकेश बोलता चला गया ।

लेकिन खाना बनाते हुए भी मम्मी बड़बड़ाती जा रही थी तुम जितना मर्जी मना करो-- "बेटियों को तो मैं ज़रूर पढ़ाऊंगी"

हम दोनों बहनें सिमटी हुई एक कौनें में बैठी मम्मी की सिसकती आवाजें सुन रहे थे कि अचानक पापा अंदर से बाहर रसोई में गए और कहा-- "तो फिर इन्हें मायके ले जाओ वही पढ़ा लेना"

"तो फिर मम्मी को उसी वक़्त तुम दोनों को साथ लेती और चली जाती?"

सुधा अभी भी सिसक रही थी और सिसकते हुए बोली-- "मम्मी ने यही किया औऱ हम दोनों को लेकर हमारी नानी के घर आ गई ।"

"अच्छा? वैरी गुड़ ! ये हुई न बात"-उछलता हुआ मुकेश बोला औऱ पूछा-- "तो फिर खर्चा?"

"नाना जी तो दो साल पहले ही गुज़र गए थे । नानी जी को फेमिली पेंशन मिल जाया करती थी जो उनके लिए बहुत थी ।

मम्मी जी ने एक सिलाई कढ़ाई संस्था जॉइन कर ली । उस संस्था का मॉलिक *प्रताप वासवानी* बहुत अच्छा आदमी था । मम्मी पढ़ी लिखी थी तो उसने मम्मी जी को सुपरवाइसर की पोस्ट पर रख लिया । जिससे  मम्मी जी की पगार से बाकी का घर का सब खर्चा आराम से चलने लगा ।"

मुकेश अब बिल्कुल सीरियस था । अभी वो ये सब सोच ही रहा था कि आगे क्या हुआ होगा कि सुधा ने आगे बोलना शुरू किया  --"अभी एक महीना ही जॉइन किया था कि मम्मी ने अपने मॉलिक से दो छुट्टियों के लिए एप्पलीकेशन लगाई तो मॉलिक ने उन्हें अपने केबिन में बुलाकर कारण पूछा तो मम्मी ने स्कूल में हमारे दोनों के एडमिशन करवाने की बात की । तो मॉलिक ने हमारी पढ़ाई का खर्चा अपनी कंपनी के खाते से करने का फैसला किया और बताया कि वो एम्प्लाइज के सभी कन्या बच्चों के लिए शिक्षा का इंतज़ाम भी करते है"

"वाऊ"---मूकेश के मुँह से एक दम निकला ।

"मम्मी की वजह से ही और उनकी मेहनत की कमाई से ही हम दोनों बहनें अभी तक पढ़ लिख रही हैं औऱ तभी मैं तुम्हारे सामने खड़ी हूँ"

"तुम चिंता न करो सुधा हम दोनों मिलकर सब ठीक कर देंगे"

"इम्तिहान के बाद हम काफी हाउस चलेंगे और तय करेंगे कब औऱ कहाँ मिलेंगे ।"

"मुकेश मुश्किल है । पापा की नज़र हमेशा पीछा करती है । हमेशा डर ही लगा रहता है"

"लेकिन सुधा, ये बताओ जब तेरी मम्मी अपनी नॉकरी से कमा कर तुम्हें पढ़ा रही  है तो अब तुम्हें किस बात की रोक टोक?"

"यही शर्त रखी थी पापा ने कि अगर वो नॉकरी कर के बच्चियों को अपने पैसों से पढ़ाना चाहती है तो घर के काम पूरे होने चाहिए । चाहे माँ करे या बेटियाँ"

"अच्छा बाप है ये?"-आँखें तरेरता हुआ मुकेश बोला ।

"अच्छा मुकेश तुम मुझे एक बात बताओ ?"

"क्या ?"

"हमारा पहला बच्चा लड़की हुई तो क्या नाम रखेंगे?"

              उसी वक़्त कॉलेज में इम्तिहान के लिए आये बच्चों के लिए अंदर जाने के लिए गेट खुल गया ।

अच्छा इम्तिहान के बाद में बात करते हैं सुधा । बेस्ट आफ लक ।

सुधा ने जाते हुए मुकेश को जोर से सुनाते हुए बोला--"आर्या रखेंगे मुकेश ! सुन रहे हो?"

कहते हुए सुधा अंदर चली गयी ।
💐💐💐

बड़ी बहन उमा ने एम०बी०ए० कर के अपने साथ ही पढ़ रहे एक होनहार लड़के के साथ अपनीं ज़िन्दगी बिताने का फैसला किया तो पापा उसके खिलाफ खड़े हो गए । क्योंकि वो लड़का इतना पढ़ने लिखने के बाद भी नॉकरी नहीं, अपने पिता के बिसिनेस में ही जाना चाहता था ।

लेकिन माँ की जिद्द के आगे उनकी एक न चली । पापा ने आज तक हम दोनों बहनों तथा माँ के लिए कभी कुछ नहीं किया था ।  इसलिए उनका वर्चस्व सबकी नजरों में उतना नहीं था ।

लेकिन हम दोनों बहनों ने उनके सामने कभी भी अपनी ज़ुबाँ नहीं खोली थी ।

बड़ी बहिन उमा कुछ ज्यादा ही सुलझी हुई थी । वो माँ को भी पापा के किये कुछ बोलने से मना किया करती थी ।

पापा को भी उसकी ज्यादा ही चिंता थी । भले ही उन्होनें उसके लिए भी कभी कुछ नहीं किया था । मैं तो मुँह फट थी न । इसलिए पापा मुझे  ज्यादा पसंद नहीं करते थे ।

मगर ऐसा नहीं था कि हम उनकी इज़्ज़त नहीं करते थे । उन्हीं की वजह से बाहर किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि हमारी तरफ कोई आँख भी उठा कर देख सके । उनकी जोरदार पर्सनालिटी बड़ी रुआब वाली थी ।

मेरा पूना से एमबीए खत्म हुआ तो कॉलेज से ही एक बैंक में ऑफिसर पद पर मेरा चयन हो गया ।

आखिर बहन उमा ने किसी तरह पापा को मना कर अपनी शादी अपनी पसन्द के लड़के के साथ करवाने के लिए राजी कर ही लिया ।

मयंक एक रईस परिवार का बड़ा सुलझा हुआ लड़का था ।  शादी के बाद उमा, मयंक के साथ इलाहाबाद में सेटल हो गयी ।  वहीं उसकी नॉकरी एक एम एन सी में, ऊंचे ओहदे पर हो गयी । पहले ही साल के बाद उसके घर एक सुंदर कन्या ने जन्म लिया । पापा को ये भी अच्छा नहीं लगा ।

पापा बिना हाथ उठाये ही माँ को टॉर्चर किया करते थे । लेकिन उनके बिना  रह भी नहीं सकते थे । बातें सुनाने की शायद उन्हें आदत सी पड़ गयी थी । उनकी बातों की वजह से जब मम्मी बीमार हो जाती तो वो यही कहते कि उन्होंने तो कुछ  कहा ही नहीं । या कहते कि उन्होंने तो मजाक में कहा था ।

  माँ की ज़िंदगी को पापा ने  ऊल जलूल बातें सुना-सुना कर नरक बना दिया था ।  माँ धीरे-धीरे टूटती चली गयी ।

माँ ने अपनी तबीयत को देखते हुए मुझ पर प्रेशर बनाकर जल्द शादी के लिए राजी कर लिया और उन्होंने मेरी शादी मेरे कहने पर आनन-फानन में मुकेश से करवा दी ।

मुकेश इतना खुश था कि उसने हमारा हनीमून मनाने के लिए वर्ल्ड टूर की टिकटें बुक करा ली और हम शादी के बाद उस टूर पर निकल गए ।

बदकिस्मती ये थी कि अभी हम तीन चार ही देश घूमें थे कि दीदी का फोन आ गया कि माँ इस दुनियां में नही रही ।

मेरी तो जैसे दुनियाँ ही उजड़ गयी ।

उसी रात वापिसी की टिकट बुक करा हम दिल्ली वापिस लौटे औऱ माँ का बड़े भारी दिल के साथ अंतिम संस्कार किया था ।

माँ के चले जाने के बाद पापा अकेले हो गए थे और वो अपनी आदतों को लेकर बहुत पछतावा करने लगे थे । जब भी कभी अब पापा के घर चक्कर लगता है तो पड़ौस से पता चलता है कि  पापा कई रोज तक अब बाहर ही नहीं निकलते । कई बार तो स्नेहा- स्नेहा की आवाजों के साथ पापा की रोने की आवाजें गूंजती । उनके लिए हमारा मन अब भी बहुत तड़पता है ।

कई बार मैंने पापा को बोला कि मेरे साथ मेरे घर चलो--लेकिन हर बार वो यही कहते -- नहीं बेटा --तेरी माँ की यादें इसी घर में हैं बाकि ज़िन्दगी उन्हीं के साथ जीना  चाहता हूँ ।

कुछ दिनों में ही ज़िन्दगी उसी ढर्रे पर वापिस लौटनी शुरू हुई तो एक दिन मम्मी की कंपनी से उनके मालिक श्री प्रताप वासवानी जी का फोन आया जिनकी बदौलत हम दोनों बहनों ने अपना ये मुकाम हासिल किया था । उन्होंने मुझे अपने पास आफिस बुलाया ।

अगले दिन उनके पास जाने पर मालूम हुआ कि मम्मी ने अपनी टेबल की दराज में एक लेटर उसके नाम छोड़ा था ।

जिस पर लिखा था बेटी सुधा-- अगर उसे कुछ हो जाये तो याद रखना बेटा हम सब की ज़िंदगी इस कंपनी की धरोहर है । जब इसे ज़रूरत हो बे-हिचक इसे जॉइन कर लेना ।

तेरी मम्मी सुधा ।

माँ का इशारा और उसकी आखिरी इच्छा मैं समझ चुकी थी ।

अगले दिन ही बैंक से रिसाईंन कर जल्द ही मम्मी की कंपनी मैनें प्रताप सर के अंडर जॉइन कर ली ।

दो तीन महीनों में ही मालूम चल गया कि अब मैं माँ बनने वाली हूँ ।  सर प्रताप वासवानी, मेरे पिता के समान थे । उन्होंने धीरे-धीरे सारी ज़िम्मेवारी मुझ पर सौंपनी शुरू कर दी । छह महीने के अंदर ही मेरे काम को देखते हुए प्रताप सर ने मुझे कंपनी का सीईओ बना दिया ।

मेरे एमबीए ने औऱ सर पर, प्रताप सर के हाथ ने, मुझे कंपनी को भरपूर ऊंचाइयों को छूने की काबलियत बक्श दी थी ।

उधर मुकेश भी बहुत खुश था कि वो बाप बनने वाला था । गर्भ सात महीने का हो चुका था । न जाने क्या रूह थी पेट में की ऊंचाइयाँ रुकने का नाम ही नहीं ले रहीं थीं । मुकेश भी अपनी कंपनी बदल बदल कर अपना प्रोफ़ाइल बढ़ाता चला जा रहा था ।

रोज़ जब घर आता कभी कोई  खिलौना तो कभी कोई खिलौना साथ लेकर आता और लाकर कपबर्ड में सजा देता ।

एक दिन जैसे ही मैं ऑफिस पहुंची तो आफिस में पार्टी का माहौल चल रहा था ।

मैं तो अचानक ऐसा माहौल देखकर विश्वास नहीं कर पा रही थी कि ऐसी पार्टी जिसका उसे इल्म ही नही हो सका और प्रताप सर ने ही उसको ऑर्गेनाइस किया था ।

पार्टी जब प्रताप सर ने शुरू की तो पहला नाम मेरा लेकर स्टेज पर बुलाया गया और मेरे हाथ में एक चाबी सौंप कर कहा कि-- ये ग्रेटर केलाश में एक बंगले की चाबी है जो कंपनी की तरफ से उसे दी जाती है ।

चाबी हाथ में आते ही मेरी नज़रें सीधी आसमान की ओर उठीं औऱ मां की याद में अपने आप दो आंसू गालों पर सफर तय कर गए ।

हम दोनों नए घर में शिफ्ट हो गए ।

मेरी कंपनी के प्रति जिम्मेदारियां भी बढ़तीं चलीं गयीं औऱ आफिस से घर, लेट आने लगी ।

नौंवा महीना भी चल रहा था इसलिए कोशिश यही रहती कि छुट्टी जाने से पहले आफिस का जितना ज्यादा काम निपटा लिया जाए तो उतना अच्छा है ।

मुकेश भी अब ज्यादा ही व्यस्त रहने लगा था । लेकिन मुकेश का रोज़ बच्चे के लिए खिलौना लाना बंद नहीं हुआ ।

वक़्त आ गया उसे जब फील हुआ कि अब उसे अस्पताल जाना चाहिए उस वक़्त शाम के आठ बजे थे । दर्दे शुरू हो चुकीं थीं । मुकेश अभी आफिस से घर नहीं आया था ।

सुधा ने फोन किया तो उसने जल्दी आने के लिए उसे कहा । लेकिन काफी इंतजार करने के बाद भी जब वो नहीं आया तो उसने मुकेश को एसएमएस कर प्रताप सर को फोन किया और उसने खुद ही अपने लिए टैक्सी बुक करवाई औऱ अस्पताल पहुंच गई ।

अस्पताल पहुँचते ही उसे सीधे डॉक्टर लेबर रूम में ले जाया गया ।

दस मिनट में ही एक नार्मल डिलीवरी द्वारा सुधा ने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया ।

उसी वक़्त मुकेश अस्पताल पहुंचा और सामने सुधा के मालिक प्रताप वासवानी को देखा तो खुद को शर्मिन्दा महसूस करते हुए आगे बढ़ा ।

प्रताप ने मुबारकबाद देते हुए मुकेश को कहा-- "बधाई हो बर्खुदार आप एक खूबसूरत कन्या के पिता बन गए हैं ।"

प्रताप वासवानी की बूढ़ी आंखें सब कुछ पढ़ गयीं ।

मुकेश जल्दी से आगे बढ़ गया और सुधा के पास पहुँचा ।

सुधा ने उसकी आहट सुनीं तो आँखें खोल उसकी तरफ देखा । वो मुस्करा रहा था ।

सुधा की आंखें मुकेश की आंखों में कुछ टटोल रहीं थी और मूकेश को भी ये महसूस हो रहा था ।

ये देख मुकेश ने खुद ही बोला-- "सॉरी सुधा ! आफिस से निकलते-निकलते ही थोड़ी सी देर हो गयी । बाकि सब ठीक है न? तुम ठीक हो न?"

बच्चे के बारे में एक बार भी नहीं पूछा ।

घर में आये एक हफ्ता हो गया था। मेड मनीषा के साथ वक़्त बीतने लगा ।

बच्ची बड़ी प्यारी थी । जैसे तय था , मैनें उसका नाम *आर्या* रखा ।

मुकेश आफिस से रोज़ उसी तरह ही लेट आता रहा और सुधा सारा दिन इंतज़ार करती  रहती ।

मुकेश आफिस की दो चार बातें करता । आधा से उसका हाल पूछता फिर डिनर करता ये कहकर की बहुत थकावट हो गयी, सो जाता । रोज यही दिनचर्या आगे बढ़ने लगी ।

कई दिनों बाद लेटे-लेटे सुधा की नज़र अचानक कपबर्ड में मुकेश के लाये खिलौनों की ओर गई तो उसे महसूस हुआ कि उनमें कोई भी ऐसा खिलौना नहीं था जो किसी कन्या के लिए हो । सभी लड़कों वाले खिलौने थे ।

कोई मोटर साइकिल, कोई कार,  आदि आदि । उनमें कोई भी गुड़िया वगैरह नहीं थी । ये देख उसे एक जबरदस्त धक्का लगा ।

कुछ दिनों में उसे महसूस होने लगा कि मुकेश भी उसी मनहूस केटेगरी का ही शख्स निकला ।

लेकिन उन दोनों की आमने सामने इस बात की कभी चर्चा नहीं हुई ।

उसकी हरकतें उसी प्रकार तब्दील होती जा रही थी जिस तरह उसके पापा की थीं ।

फर्क सिर्फ इतना था कि पापा साफ दिल के थे और वो मम्मी को साफ-साफ बोल देते थे कि लड़कियां उन्हें पसंद नहीं और मुकेश एक साइलेंट ज़ह्र था जो अपने अंदर साइलेंटली नफ़रत पाल रहा था ।

शायद ये मेरी कंपनी में मेरा पोजीशन  या वर्चस्व का असर था ।

मुकेश का साइलेन्स मुझे औऱ भी ज्यादा खतरनाक महसूस हो रहा था ।

धीरे-धीरे दूरियाँ बढ़तीं गयीं औऱ मुकेश का कई बार रात को घर पर आना मिस भी होने लगा था । मैं वापिस अपनी कंपनी जॉइन कर चुकी थी ।

बहुत बड़ा झटका मुझे एक दिन तब लगा जब मेरी ही कंपनी की लेडी ने मुझे डरते हुए आकर बताया कि मुकेश को उसने कई बार औऱ कई जगह एक ही लेडी के साथ घूमते देखा था । अभी तक तो उसे उम्मीद थी कि कभी न कभी सब ठीक हो जाएगा । लेकिन ये सब पता लगने के बाद ---------

उसके बाद सब कुछ खत्म होता नजर आया ।
💐💐💐

उस दिन  मेरा जन्म दिन था । सर प्रताप वासवानी जी ने मुझे अपने केबिन में बुलाया और कहा -- "बेटा ज़िन्दगी में कई ऐसे दुख लिखे होते हैं जो कभी पीछा नहीं छोड़ते और कई ऐसे सुख होते हैं जो कब आपकी झोली में आ गिरें पता भी नहीं चलता । तुम अपनी ज़िंदगी अब अकेले जीना सीख लो बेटा"

सर की ये बात सुन मैं उनकी आंखों में देखने लगी ।

वो समझ गए कि मैं क्या पूछना चाहती हूँ ।

उन्होनें उसी वक़्त सर हिलाते हुए कहा-- "हॉं बेटा ! मैं जानता हूँ  मुकेश तुम्हारी ज़िन्दगी से जा चुका है । लेकिन ये मत समझना तुम अकेली हो । मैं तुम्हारे साथ हूँ"

इससे बड़ा झटका आज तक मुझे नहीं मिला था । हालांकि मुझे पहले पता था मुकेश के बारे में । लेकिन सर के मुँह से सुनने के बाद जैसे उस पर मोहर लग गयी थी ।

मुझे याद है बड़े भारी मन से मैं घर लौटी थी और  जैसे ही घर पहुँची मेड मनीषा ने मुझे एक लिफ़ाफ़ा दिया ।

लेकिन उस लिफाफे को जब मैनें खोल कर देखा तो मुझे उसमें मुकेश द्वारा भेजे गए तलाक के कागज देखकर रत्ती भर भी झटका नहीं लगा था ।
💐💐💐

*दस साल बाद*

रात नो बजे थे । मोबाईल बजा । देखा तो हमारी कंपनी के वकील का फ़ोन था । फौरन प्रताप सर के घर पहुँचो ।

मैनें उसी वक़्त वकील साहब को  कुछ पूछना चाहा कि अचानक ऐसा क्या हुआ है ? लेकिन तब तक फ़ोन बन्द हो चुका था ।

कुछ अनहोनी का अंदेसा घर करने लगा था ।

मैनें जल्दी से ड्रॉइवर *दिलावर* को फोन कर बुलाया और सर के घर पहुंची । प्रताप सर भी ग्रेटर कैलाश में ही चार-पांच किलोमीटर की दूरी पर रहते थे ।

उनके घर के बाहर जब हमारी कार पहुँची तो मेरा शक हकीकत की ओर मुड़ने लगा था ।

कंपनी के सभी लोग वहां पहुँच चुके थे । जब मैं अंदर पहुँची तो उसके पैरों तले से ज़मीन निकल गयी ।

ज़मीन पर प्रताप सर की बॉडी पर सफेद चादर पड़ी थी । मेरा सर घूम गया । मुझे ऐसा लगा मेरे सर से मेरे पिता का साया उठ चुका है और मैं चक्कर खाकर वहीं फर्श पर नीचे गिर गयी ।

जब  संभली तो वकील ने मेरे सामने कई स्टाम्प पेपर साईंन करने के लिए रख दिए तो मुझे इतना गुस्सा आया कि मैं भरी सभा में चीखते हुए बोली--"तुम्हें शर्म नहीं आती?"

मेरी ज़ुबाँ लड़खड़ाने लगी थी । मुझे मेरा सर्वस्व लुटता दिखाई दिया ।

वकील ने उसे बड़े प्यार से औऱ तरीके से प्रताप सर की वो वसीयत दिखाई जिसमें साफ-साफ लिखा था कि उनकी अर्थी उठने से पहले सुधा के नाम सब कुछ हो जाना चाहिए ।

मजबूरन मुझे वो साईंन करना पड़ा औऱ इसके बाद प्रताप सर की अंत्येष्टि मेरे द्वारा कर दी गयी ।
💐💐💐

*बारह साल बाद*

धीरे धीरे मुझे पता चलता जा रहा था कि मेरी प्रॉपर्टी कहाँ-कहाँ पर है । मैं अरबों खरबों की मालकिन बनती जा रही थी ।

कई जगह हमारी कंपनी की ब्रांचेज खुलती जा रहीं थी ।

आर्या तब तक आईपीएस की ट्रैनिंग करने के बाद वापिस आयी तो उसकी पोस्टिंग छत्तीस गढ़ हुई ।

💐💐💐

गाड़ी अनुपुर स्टेशन रुकी तो सुधा को अचानक  शोर सुनाई दिया । चाय पकौड़े वाले वेंडर्स इधर उधर अपना सामान बेचने के लिए भागा दौड़ी कर रहे थे ।

रुबीना ने चाय वाले को आर्डर देने से पहले सुधा से पूछा -- "आप भी चाय लेंगी क्या?"

"हॉं में सर हिलाते हुए उसने कहा-कुछ पकौड़े भी ले लेते हैं ।" --कहते हुए सुधा ने पकौड़े वाले को इशारा कर के अंदर ही बुला लिया ।

पकौड़े वाले से ढेर सारे पकौड़े लिए औऱ रुबीना से पूछा-- "ये अनाया के लिए भी तो कुछ लेना होगा न? क्या खाती है ये?"

"नानी मुझे वो वाले चिप्स लेने है ।"--ट्रेन के बाहर चिप्स वाले की ओर इशारा करते हुए अनाया बोली ।

सुधा ने उस प्यारी सी बच्ची को गोद में उठा कर बड़े प्यार से उससे पूछा--"ओल क्या खायेगी मेरी रानी बिटिया"

"बितकूत"--तोतली बोली में फिर अनाया बोली ।

सुधा ने चिप्स वाले को भी अंदर बुलाया और उससे दस बारह चिप्स के और चार पांच बिस्कुट के पैकेट लेकर उन्हें पांच सौ रुपये का नोट दे दिया और बोला--"चाय वाले के साथ बराबर- बराबर बांट लेना ।"

रुबीना ये सब देखकर परेशान हो गयी । वो समझ न सकी ये इतनी सुंदर बुढ़िया एक अनजान राही पर इतनी रकम क्यों खर्च कर रही है ।

रुबीना चाय के सिप ले रही थी और साथ में सुधा को निहार रही थी जो उसकी बेटी के साथ अठखेलियाँ कर रही थी । उसे ऐसा लग रहा था जैसे वो ही असल में उसकी नानी है । ध्यान से निहारते हुए उसका मन करने लगा कि वो उनके बारे में सबकुछ जाने । चाय खत्म हुई तो अपनी उत्सुकता को वो रोक न पाई और खाली कप सुधा के हाथों से लेते हुए उसने पूछ ही लिया-- "आँटी ! आपने अपने बारे में कुछ नहीं बताया ?"

सुधा ने अनाया को गोद में खिलाते हुए और मुस्कराते हुए जवाब दिया-- "तुमने कुछ पूछा नहीं, मैनें बताया नहीं"

"बताइए न कुछ?"

"क्या बताऊँ बेटा ? घर-घर की कहानी है ये । अपने काम में इतनी मसरूफ रही हूँ आर्या की कई पोस्टिंगस के बाद काफी अरसे बाद पहली बार उससे मिलने भिलाई जा रही हूँ"

"बिटिया की पोस्टिंग? क्या मतलब ? भिलाई जॉब करतीं है क्या आपकी बेटी आर्या?"--रुबीना ने आश्चर्य चकित होकर पूछा ।

"हाँ--उसे मिलने के लिए दिल तड़प रहा है"

"अच्छा? कौन सी कंपनी में जॉब करती हैं?"

"कंपनी नहीं बेटा ! वो भिलाई में कमिश्नर की पोस्ट पर है"

"वाऊ--अच्छा वो आर्या !!!आर्या टेकचंदानी?"--रुबीना को ऐसे लगा कि उसकी ज़ुबाँ को जैसे लकवा ही मार गया हो । उससे आगे वो कुछ पूछ ही नहीं पाई ।

वो सोच रही थी कि अगर इनकी बेटी इतनी होनहार है तो वो खुद भी बहुत पहुंची हुई और किसी बड़े ओहदे पर कार्यरत होगी ।

सुधा समझ चुकी थी कि रुबीना किस दूविधा में पड़ चुकी है । उसने रुबीना से ही प्रश्न किया--"कभी भी अपने को छोटा न समझो । क्योंकि कोई कितना भी बड़ा हो जाये वो अपने लिए ही होता है । तुम्हारे लिए नहीं । तुम खुद के लिए बहुत बड़े हो"

रुबीना को इस सेंटेंस ने ज़िन्दगी का पाठ पढ़ा दिया था औऱ उसी वक़्त एक विश्वास के साथ उसने सुधा से वापिस प्रश्न पूछ लिया -- "तो आँटी आपने कहा कि आप बहुत ज्यादा मसरूफ रही थीं इसलिए बेटी से मिलने नहीं आ सकी? तो क्या आप भी पुलिस में कहीं-----"

"अरे नहीं नहीं--"--रुबीना को बीच में ही काटते हए सुधा बोली---"मेरा एक एक्सपोर्ट हाउस है "प्रताप एक्सपोर्ट हाउस" । मैं उसकी छोटी सी मालकिन हूँ।  बस उसकी थोड़ी सी छोटी मोटी ब्रांचेज हैं जिन्हें मुझे देखना होता है । उसी में बिसी रहती हूँ"

रुबीना ने फिर बड़ी मुश्किल से अपना थूक गले के नीचे उतारा औऱ पूछा--"आप इतनी बडी हस्ती औऱ ट्रेन में~~~~?"

सुधा ने उसका आशय समझ बताया--"गरीबी देखी है मैनें । ज़मीन पर ही रहना चाहती हूँ । हवा में उड़ कर चुपचाप छह घंटे का सफ़र करने वाले भीड़-भाड़ वाली ट्रेन के छत्तीस घंटे के सफ़ऱ का मुकाबला नहीं कर सकते । जहाँ भांति-भांति के लोगों के साथ बातेँ करने का मौका मिलता है ।

हवाई जहाज में कहां मिलता है ?"-हंसते हुए सुधा ने कहा ।

"आप अकेले?"

रुबीना जी, जो भी पूछना है खुल के पूछिये । तुम्हारी कहानी औऱ मेरी कहानी में कुछ ज्यादा फर्क नहीं है । मेरे पापा भी लड़कियों को पसंद नहीं किया करते थे । उनकी ज्यादितियों की वजह से ही मेरी मम्मी ने ये एक्सपोर्ट हाउस जॉइन किया था और इसी एक्सपोर्ट हाउस की वजह से हम पढ़े लिखे और नॉकरियों तक पहुंचे ।

मेरी शादी के बाद हम हनीमून पर थे कि माँ पीछे से चली गयी ।

एक्सपोर्ट हाउस के मॉलिक ने मां की जगह मुझे रख लिया । मैं बैंक में अफसर थी । रिसाईंन कर एक्सपोर्ट हाउस जॉइन कर लिया ।

उसके बाद जो हमें पति मिले जिन्हें पता था मेरे पापा के बारे में । तब उन्हें वो भी बहुत भला-बुरा कहते थे लेकिन जब आर्या हुई तो उनका भी बदलता रंग पता चल गया ।

आर्या उस वक़्त अनाया से भी छोटी थी मुकेश मुझे तलाक देकर चला गया । लेकिन हमारे बीच कभी इस बारे में कोई बात नहीं हुई । न ही कभी कोई झगड़ा और न ही कोई तू तू मैं मैं । सब कुछ साइलेंट था । वो बस एक पुरानी चीज़ की तरह ज़िन्दगी से चला गया ।

आर्या बचपन से ही बहुत इंटेलिजेंट थी  ।

उसके बाद आर्या को मैनें अकेले ही पढ़ाया लिखाया औऱ आज वो कहाँ है तुम देख सकती हो ।

"ओ माय गॉड"--रुबीना का मुँह खुला का खुला रह गया ।

"आप इस वक़्त खरबों पति हैं लेकिन आप कितनी सादी ज़िन्दगी जी रही हैं ?"

"सब कुछ यहीं रह जाना है ।"--कहते हुए सुधा ने अनाया को उठाया और अपने वक्ष से लगाते हुए कहा-- "क्या तुम मेरे साथ चलोगी अनाया?"

"हाँ नानी"--अनाया ने अपनी माँ की तरफ देखते हुए फिर कहा ---"मम्मी, नानी के साथ चलोगी न?"

सुधा ने रुबीना की तरफ देखते हुए कहा--"कभी माँ के ऊपर बोझ बन के न रहना । अगर अनाया को आर्या तक का सफर तय करना है तो तुम्हें उस बारे में गहराई से सोचना होगा ।

एक दृढ़ संकल्प करना होगा ।

गाड़ी दुर्ग स्टेशन पर पहुँच कर खड़ी हो चुकी थी । पैसेंजर्स की गाड़ी से उतरने की गहमा-गहमी शुरू हो चुकी थी ।

सुधा ने अपना सूटकेस सीट के नीचे से निकाला औऱ गाड़ी से उतरने की तैयारी करने लगी ।

लेकिन उतरने से पहले उसने अपने हैंडबैग में हाथ डालकर कुछ निकाला और रुबीना की ओर बढ़ाते हुए हुए कहा--

मन करे तो, ये  मेरा विजिटिंग कार्ड है। फोन करके कभी भी चली आना ।"

और

सुधा मुस्कराते हुए, अनाया के सर पर हाथ फेरते हुए उसको प्यार करती हुई गाड़ी से नीचे उतर गयी औऱ  सूटकेस के हैंडल को ठेलते हुए प्लेटफ़ॉर्म से निकल गयी । उसने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा ।

रुबीना अचंबित सी गाड़ी से नीचे उतर, उसको जाते हुए देखती रही जब तक वो महान शख्सियत उसकी आंखों से ओझल नहीं हो गयी ।

💐💐💐समाप्त💐💐💐

◆◆◆◆◆
यह रचना काल्पनिक रचना है और इसमें दिखाए गए सभी पात्र और पात्रों के नाम,स्थान और इसमें होने वाली सभी घटनाएं पूर्णतया: काल्पनिक हैं । इसका किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति या घटना या स्थान से समानता पूर्णत: संयोग मात्र ही हो सकता है । इस कहानी का उद्देश्य किसी भी व्यक्ति, धार्मिक समूह सम्प्रदाय, संस्था, संस्थान, राष्ट्रीयता या किसी भी व्यक्ति वर्ग , लिंग जाति या धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का कतई नहीं है ।


अटूट दोस्ती

 

     पंकज औऱ रावी गुलमर्ग में अभी बस से उतरे ही थे कि उनकी छह साल की राशिता बर्फ में दौड़ पड़ी । रावी उसको आवाज मारती हुई उसके पीछे-पीछे दौड़ पड़ी ।

पंकज बस से नीचे उतर, रावी को उसके साथ हंसते खेलते देख, मन में बहुत खुश हुआ ।

एक तरफ खड़ा ही वो सोच रहा था इस बार छठा साल था वादियों में आने का । वो हर साल आते थे तभी राशिता को हर जगह की पहचान हो गयी थी । इसी लिये वो निडर होकर भाग रही थी ।

   बेटी राशिता जब थक हार कर वापिस आयी तो रावी भी हांफ रही थी और राशिता को बोल रही थी --- "इस तरह मत सता बेटा बर्फ कच्ची है कहीं दब न जाना ?"

जब वो पास आई तो गले से लगाकर उसे बोली --"सहेली को तो खो दिया था अब तुझे नहीं खोना चाहती । मुझसे दूर न जाया कर । मेरे पास ही रह कर खेल बेटा ।"

राशिता फिर माँ का हाथ छुड़ा कर मम्मी,मम्मी करती हुई बर्फ की ओर भागने लगी ।

पंकज दोनों को देख-देख कर दूर बैठा मुस्कराता रहा । थोड़ी देर बाद तीनों एक रेस्टोरेंट में बैठे थे कि पीछे से एक जानी पहचानी आवाज आई-- "निशिता?"

रावी ने हैरान होकर पीछे मुड़कर देखा तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ ।

वो सिद्धार्थ था । उसकी बचपन की जिगरी दोस्त का पति ।

सिद्धार्थ किसी लड़की को आवाज मार रहा था औऱ वो भी "निशिता" को ?

ये कैसे हो सकता है?

सिद्धार्थ जिसको आवाज लगा रहा था । वो लड़की भी बड़ी खुश नजर आ रही थी ।

रावी ने पंकज को आवाज लगाई तो उसने वहीं से बताया -- "मैं भी देख रहा हूँ रावी ! वही देख रहा हूँ । पर है तो वो सुंदर न?"

"पर इसका नाम भी निशिता ?"--रावी ने बड़बड़ाया और आगे कहा--
"जब हम इंदौर छोड़ कर दिल्ली शिफ्ट हुए थे तो उसके बाद सिद्धार्थ से कभी मुलाक़ात भी तो नहीं हुई न । हम भी अपने औऱ अपने बच्चे में बिजी हो गए और न ही सिद्धार्थ ने कभी कांटेक्ट किया"

सिद्धार्थ उस लड़की के साथ बहुत खुश था । उस लड़की के हाथ में नया-नया चूड़ा भी था । इसका मतलब सिद्धार्थ ने शादी कर ली थी ।

"चलो अच्छा हुआ" --पंकज ने कहा ।

रावी नए चूड़े में उस लड़की को देख पुराने ख्यालों में खोती चली गयी ।

आठ साल पहले जब उसके पापा की दिल्ली ट्रांसफर हुई थी तो रामनगर में ही वो मकान पसंद आया था ।
💐💐💐

निशिता रामनगर सेकेंडरी स्कूल की छठी क्लास में पढ़ती थी । अपने स्कूल के सबसे शरारती बच्चों में उसका नाम दर्ज था ।  क्लास में उसकी अजीब सी शरारतों से उसकी क्लास टीचर इंदु बहुत परेशान हो जाती थी । लेकिन वो पढ़ाई में हमेशा अव्वल आया करती थी । इसलिए इंदु मैडम उसकी सब शरारतें माफ कर दिया करती थी ।

अपनी कॉलोनी में भी अपनी हम उम्र बच्चों में उसका बहुत ही रुआब था । रोज़ कोई न कोई नई गेम को ईजाद कर वो अपने ही रूल बनाकर खेल शुरू कर दिया करती थी । सभी बच्चे उसकी हाँ में हाँ मिलाया करते थे । मुहल्ले का हर बच्चा उसकी बातों के बीच इसलिए बोलने से डरता था कि वो उसे गेम से बाहर ही न करदे । उसकी हर बात मानने की सबको आदत सी हो गयी थी ।

ज़ुबाँ की तीखी निशिता अपने माँ बाप की इकलौती संतान थी । देव बाबू और कमलेश को अपनी बेटी पर बहुत नाज़ था । इतनी छोटी उम्र में वो हर काम में उन्हें परफेक्ट लगती थी ।

निशिता ने माँ को आकर बताया कि उनकी कॉलोनी में एक नई फैमिली शिफ्ट होकर आयी है वो लोग बहुत अच्छे है । उनकी भी एक बेटी है रावी, जो उसके जितनी ही है । उसने भी उसी के स्कूल में दाखिला ले लिया है ।

माँ ने हंसते हुए कहा--"फ़िर तो तेरी टीम और बड़ी हो जाएगी?"

मुस्कराते हुए वो उछलती हुई बाहर खेलने चली गयी । बाहर उसने देखा सब उसकी दोस्त एक जगह बैठकर ज़मीन की तरफ कुछ गौर से देख रहे हैं । वही सब देखने निशिता जब वहां पहुंची तो उसे अच्छा नही लगा । उसने देखा रावी ज़मीन पर  बैठी उन सबको कोई गेम सीखा रही थी और बाकि सब बड़े ही चाव से उसकी गेम को दिल लगाकर समझ भी रहे थे । इस बात से निशिता थोड़ी ख़फ़ा हो गयी । उसने दूर से अपनी दो तीन सहेलियों के नाम लेकर ऐसे आवाज़ लगाई जैसे उसे कुछ पता ही नही ।

उसकी सहेलियों ने भी उसकी आवाज को सुना-अनसुना कर दिया । उसको इस बात से बहुत ठेस लगी । अगले दिन उसने थोड़ा पहले जाकर कुछ लड़कियां इकट्ठी की और फिर अपनी गेम में रूल चालू किये । इतने में रावी भी आ गयी । रावि को जब उसने अपने ही रूल्स बताये तो उसने मानने से इनकार कर दिया । बोलने की तहज़ीब और प्यार ने सभी लड़कियों को धीरे-धीरे उसी की तरफ मोड़ दिया ।

इस तरह आखिर में निशिता अकेली रह गयी औऱ वो उदास रहने लगी थी ।

रावी दिल की बहुत अच्छी इंसान थी । उसे ये बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था । धीरे-धीरे निशिता स्कूल में भी सभी से अलग-थलग पड़ने लगी थीं औऱ अपने में ही उदास-उदास रहने लगी थी ।

ये बात रावी को भी परेशान करने लगी थी । उसने एक दिन निशिता को अपने पास बुलाया और दोस्ती का हाथ आगे बढ़ा दिया ।

निशिता ये देख एकदम भावुक हो उठी और उसने उसको गले से लगा लिया । उसने उसे बड़ी गर्मजोशी के साथ स्वीकार कर  लिया और उनकी दोस्ती आगे चल कर परवान चढ़ने लगी ।

निशिता ने हंसते हुए रावि को बताया कि तूने तो मुझे हर जगह निल कर दिया रावी । मेरा पूरी कॉलोनी में और स्कूल में पूरा रुआब था ।

रावी ने भी उसे हंसते हुए जवाब दिया--"अब भी तेरा ही रुआब है निशिता । चिंता न कर ।" और दोनों हँस पड़ी ।

हर क्षेत्र में दोनों आगे-आगे रहने लगीं । एक दूसरे के बगैर वो कोई भी काम नहीं करती थी । स्कूल से घर आकर मुहल्ले के बच्चों को इकट्ठा कर खेलना । फिर रावी, निशिता को अपने घर की छत पर ले जाकर घंटो बातें करना ।

निशिता ने रावी को अपनी इच्छा बताते हुए कहा-- "रावी मुझे पहाड़ों पर सैर करने की बहुत इच्छा है एग्जाम खत्म होंगे तो कोई ऐसा प्रोग्राम हो जाए कि कहीं पहाड़ों की ओर घूमने का कार्यक्रम बन जाये ।"

"अरे निशिता अभी हम बहुत छोटे हैं । खुद का प्रोग्राम कैसे बन सकता है? एग्जाम सर पर हैं उसकी तैयारी कर पहले बाद में देखते हैं ।"--मुस्कराते हुए रावी ने उसे समझाया ।

इन्हीं चर्चाओं के बीच उनमें कभी खटपट तो कभी सुलह । इसी तरह दिन बीतते चले गए । पढ़ाई में रावी ज्यादा तेज थी औऱ निशिता भी कम तेज़ न थी लेकिन रावी के नंबर ज्यादा आते थे ।

इसी तरह स्कूल पास कर ग्रेजुएशन का वक़्त आया तो दोनों एक साथ एक जगह एडमिशन लेना चाहती थीं । लेकिन कहीं भी उनका नंबर इकट्ठे नहीं आया । आखिर रावी ने पूना इंजीनिरिंग कॉलेज में एडमिशन ले लिया औऱ वो पूना चली गयी ।

निशिता को इस बात का बहुत ही धक्का लगा । उसने भी दिल्ली के एक आर्ट्स कॉलेज में उसने एडमिशन ले लिया । दोनों अपनी-अपनी ज़िंदगी में बिजी होती चली गईं ।

अब जब कभी रावी दिल्ली आती तो घर आकर वो सबसे पहले निशिता के घर उसे मिलने जाती । वो भी उसको मिल कर बहुत खुश होती औऱ निशिता उसको पहाड़ों की याद ज़रूर करवाती औऱ रावी से कहती भी कि कभी इकट्ठे प्रोग्राम बनाने के लिए । लेकिन निशिता की तबियत को देखते हुए रावी उसे बस प्रॉमिस ही करती ।

रावी ने नोट किया जिस तरह से निशिता पहले चंचल थी वह उस तरह से अब नहीं रही थी । अंदर से वो टूटती जा रही थी । पूछने पर भी वो रावी को कुछ भी नहीं बताती थी । बात करते हुए भी उसे सांस चढ़ जाती थी । उसकी तबियत अब ठीक नहीं रहती थी ।  डॉक्टर ने जो भी कभी टेस्ट लिखा उसने वो सभी टेस्ट करवाती लेकिन कभी उसमें कुछ नहीं निकलता । सब कुछ नार्मल ही आता था । फिर भी न जाने क्यों उसकी सेहत दिन पर दिन गिरती ही जा रही थी ।

चार साल बीत गए । रावी ने अपनी इंजीनियरिंग और निशिता ने अपना फाइन आर्ट्स  & डिजाईंन का कोर्स अच्छे नंबरों से पूरा कर लिया ।

मुक़द्दर से दोनों की शादी भी एक ही शहर, इंदौर में औऱ अच्छे घरों में हो गयी । रावी और पंकज तो एक ही आफिस में थे ।

निशिता अपने पति सिद्धार्थ के खाली वक़्त में हमेशा नेचर से सम्बन्धिन्त बातें करके खुश होती । सिद्धार्थ ने उसे प्रॉमिस किया कि वो जल्द काश्मीर या किसी ऐसी जगह का टूर ज़रूर बनाएंगे जिसमें पहाड़ ही पहाड़ हों ।

रावी औऱ पंकज अपनी नॉकरी में बहुत बिजी रहने लगे लेकिन फिर भी जब भी वक़्त मिलता वो छोटी मोटी जगह सैर को निकल जाते ।

धीरे-धीरे उनका एक दूसरे के घरों में आना जाना भी शुरू हुआ और उनके पति भी एक दूसरे को अच्छी तरह से समझने लगे थे । दोनों में अच्छी दोस्ती भी हो गयी थी ।

एक दिन पंकज जब ऑफिस में अपनी सीट पर कंप्यूटर पर बैठा काम कर रहा था कि उसको मेल का नोटिफिकेशन आया । उसने झट से खोला तो देखा उसका यूएसए के प्रोजेक्ट के लिए चयन हो गया है ।

वो सीट से उठ कर रावी की सीट की ओर बताने के लिए भागा तो वो भी इधर ही आ रही थी । उसे भी वैसा ही नोटिफिकेशन मिला था ।

बस फिर क्या था दोनों ने अपनी पैकिंग शुरू कर दी । शादी से पहले ही उनकी बाहर जाने की तमन्ना थी औऱ शादी के बाद उसने रावी का भी उसमें नाम दर्ज करवा दिया था ।  वो इच्छा युंकि उस दिन पूरी हुई थी ।  दो दिन बाद उन्हें निकलना था ।

अब सबसे बड़ा काम निशिता को बताना था । बिजी लाइफ के चलते उसके घर भी गए काफ़ी दिन हो गए थे ।

ऑफिस से घर आकर सबसे पहले दोनों उसके घर ये खुश खबरी सुनाने गए तो देखा उसके घर ताला लगा था ।

पड़ौस से पता चला कि रात निशिता की तबीयत अचानक खराब हो गयी थी तो उसे उसके पति अस्पताल ले गया था । अभी तक तो वो आये नहीं । अस्पताल का नाम पता कर वो वहां पहुंचे तो पता लगा उसके प्लेटलेट्स कम हो गए थे । लेकिन अब अस्पताल वालों ने उसको चढ़ा दिए थे । अब वो घर वापिस आ ही रहे थे ।

रावी ने निशिता को अपनी खुश खबरी सुनाई । निशिता ख़ुश तो हुई मगर फिर उदास भी हो गयी ।  रावी समझ गयी कि निशिता उदास क्यों हो गयी थी । उसने उसके साथ प्रॉमिस किया । अबकी बार जैसे ही थोड़ी छुट्टियां मिली और इंडिया का टूर लगा न तो आते ही वादियां घूमने का प्रोग्राम ज़रूर बनाएंगे । यही बातें करते हुए वो घर पहुँचे औऱ बाजार से डिन्नर मंगा कर किया । निशिता रावी से मिलकर बहुत खुश थी ।

वीसा की कार्यवाही पूरी कर रावी औऱ पंकज दोनों यूएसए निकल गए । वहां जाकर  वो अपने प्रोजेक्ट में इतने बिजी हो गए कि उन्हें इंडिया में किसी से भी बात करते महीनों बीत जाते ।

इंडिया में निशिता की तबीयत संभलने पर नहीं आ रही थी । उसी बीच निशिता बीमारी में ही प्रेग्नेंट हो गयी । डॉक्टर के पास अबॉर्शन के लिए पहुंचे तो उन्होंने जान का खतरा बता कर अबॉर्शन कराने के लिए मना कर दिया ।

एक दिन निशिता को रावी का फोन आया ।

फोन उठाते ही रावी बोलती चली गयी--"निशिता सॉरी आ ही नहीं पाई । बहुत बिजी हो गए थे हम दोनों । ऊपर से प्रेग्नेंट भी हो गयी हूँ । तुम सुनाओ कैसी हो?"

उधर से कोई भी जवाब न आने पर रावी ने फिर बोला-- "हेलो निशिता?"

उधर से निशिता की जगह सिद्धार्थ की बहुत ढीली सी आवाज आई-- "रावी ! निशिता इस वक़्त बात करने के लायक नहीं है । वो काफी दिनों से बैड पर ही है ।  तुम्हें मिलने का उसका बहुत मन है । रोज़ तुम्हें ही याद करती है । अगर आना हो सके तो उसकी आख़िरी ख्वाहिश पूरी हो जाएगी ।"

"आखिरी ख्वाहिश ? क्या बात कर रहे हो ? ऐसी बातें तो मत करो सिद्धार्थ !!"--रावी ने उदास स्वर में कहा ।

सिद्धार्थ सिसकते-सिसकते फिर बोला-- "वो प्रेग्नेंट भी है और डॉक्टर ने कहा है कि निशिता अब अपने आख़िरी वक़्त से जूझ रही है ।"

"आख़िरी वक़्त? क्या कह रहे हो?"

"हाँ ! उसे ब्लड कैंसर है । औऱ आख़िरी स्टेज पर है"

"ओह ! गॉड"

"अच्छा रावी, उसको दवाई देने का वक़्त हो गया है । फिर बात करता हूँ"-- सुबकते हुए सिद्धार्थ बोला औऱ फोन रख दिया ।

पंकज को जब निशिता के बारे में पता चला तो उसके पाँवों तले से ज़मीन सरक गयी । औऱ मन ही मन बोला --"बस इतनी सी ज़िन्दगी ?"

   रावी की तो रो रो कर जान ही निकली जा रही थी ।

पंकज ने उसी वक़्त अपने एजेंट को बोलकर,  इंदौर की दो टिकट बुक कराई औऱ  वो तीसरे दिन दोनों इंदौर राजधानी अस्पताल पहुंचे ।

सिद्धार्थ उन्हें अस्पताल के बाहर ही केमिस्ट से दवाई लेता हुआ मिल गया ।

दोनों को देख कर उसकी खोई हुई आशा फिर से जाग उठी । उसने बताया कि निशिता आपको याद कर-कर के बेहाल हो रही थी । उसकी आँखों की पुतलियाँ तुम्हारी याद में बंद ही नहीं हो रही थी । कहती है अगर पुतलियां बन्द की तो ऐसा न हो कि खुले ही नहीं ।

अब तबीयत कैसी है उसकी ?

"खुद ही चल के देख लो। "- सिद्धार्थ ने कहा ।

उसने ये भी बताया कि निशिता एक कन्या को जन्म दे चुकी है ।

"फिर तो मुबारक हो आपको । अब वो ठीक भी ही जाएगी ।"---रावी कहने लगी तो सिद्धार्थ ने टोक दिया ।

"नहीं रावी, बच्चे के चलते उसका प्रॉपर इलाज भी नहीं हो पाया ।  बच्चे को नुकसान न हो जाये इसलिए कीमो हो नहीं सकती थी । बच्चा गिरा नहीं सकते थे । बस -~~"--कहते-कहते सिद्धार्थ फिर सिसक पड़ा ।

पंकज ने उसके कंधे पर हाथ रख दिलासा दिया ।

अब तक वो तीनों चलते-चलते निशिता के पास पहुंच चुके थे ।

उन्हें देखते ही निशिता में जैसे करंट दौड़ गया । खुशी के मारे वो खिल गयी । सिद्धार्थ ये सब देख रहा था । कितने महीनों बाद उसके मुंह पर ऐसी हँसी देखी थी उसने ।  पता नहीं इतनी हिम्मत कहां से आई उसमें कि वो बैड पर उठ बैठी औऱ हाथ फैला कर रावी को गले से लगा लिया औऱ दोनों ने बड़ी देर तक एक दूसरे को छोड़ा ही नहीं ।

फिर एकदम खुद को छुड़ा कर निशिता पीछे होती हुई नाराज़ होकर बोली-- "तुम बहुत झूठी हो । तुमने मेरे साथ ठीक नहीं किया, कोई भी प्रॉमिस, पूरा नहीं किया ।"

" अब देखना निशिता, मैं तब तक वापिस नहीं जाउँगी, जब तक तुम ठीक न हो जाओ बस । फिर यहाँ से सीधे वादियों में"--कहते हुए आंसुओं में नहा रही थी रावी

"अब बहुत देर हो चुकी है रावी । सच्चाई को झुठलाना ठीक नहीं । पर तुझसे एक प्रॉमिस चाहिए । पूरा करोगी ?"--निशिता, रावी का हाथ अपने हाथ में लेती हुई बोली ।

"अरे बोल तो सही ? तेरे लिए तो जान भी हाज़िर है पगली"--रावि आंसू बहाती हुई बोली ।

"नहीं नहीं ! जान नहीं चाहिए तेरी । बस क्या तू इस नन्ही सी जान को माँ का प्यार दे पाएगी? इस मासूम को पहाड़ों की सैर करा पाएगी?"--निशिता कहते हुए बड़ी उम्मीद भरी नजरों से उसे देख रही थी जैसे भीख मांग रही हो ।

इतना सुन रावी सुन्न पड़ गयी । वो सोचने लगी ये फैसला वो अकेले कैसे ले सकती थी ? उसने दया भाव से पहले पंकज की ओर देखा तो उसने हल्के से सर हिलाते हुए हामी भरी तो फिर उसने सिद्धार्थ की ओर देखा तो उसने दोनों हाथ जोड़कर सर नीचे झुका लिया ।

अब रावी ने अपने आपको उस परी को संभालने के लिए बिल्कुल तैयार पाया ।

हाँ में सर हिलाते हुए रावी ने जैसे ही सर हिलाया, निशिता ने अपने दिल के टुकड़े को उसके हाथों में सौंपते हुए कहा-- "ये लो ये राशिता अब तेरी हुई ।"

"राशिता?"--रावी विस्मय में थी ।

रिशिता ने कहा--"हाँ, रावी का "रा" औऱ निशिता का "शिता" । हो गया न "राशिता" ?"

राशिता को रावी के हाथों में सौंप निशिता ने जैसे अपने आपको बड़ा हल्का महसूस किया और एक लंबी सकूँ की सांस ली ।

जो उसकी वो आख़िरी सांस थी ।


💐💐💐समाप्त💐💐💐


Friday, February 24, 2023

रिश्ता पतंगों का

 

आज सुबह ड्राइंग रूम में बैठा खिड़की से एक बहुत ही ऊंचे दरख़्त पर लटकी उस पतंग पर चली गयी जो अपनी डोर के सहारे कभी इधर कभी उधर झूल रही थी । मैं ये सोचने पर मजबूर था कि इतनी बरसात हुई लेकिन ये पतंग वैसे ही अटल तरीके से आज भी हवा से वैसे ही झूल रही थी । शायद वो पॉलीथिन की बनाई पतंग थी । पतंग की तरफ ध्यान इस लिए भी ज्यादा जाता रहा क्यों मेरा औऱ पतंग का रिश्ता बचपन से ही रहा है ।चाय की चुस्की लेते-लेते ख्याल खान से कहां उड़ान भरने लगा मुझे पता भी न चला ।
बचपन के वो  दिन जब खेलों के नाम पर बस---स्कूल से घर आकर बस्ता फेंका औऱ घर के बाहर खो-खो, रबर की गेंद के साथ लान टेनिस, चिड़ी छिक्का, लंगड़ी टांग, कबड्डी, क्रिकेट या फिर चोर सियाही  औऱ सावन में सीधे छत पर पतंग ।

मुझे बचपन का वो किस्सा आज भी भुलाए नहीं भूलता । उस वक़्त मैं छठी क्लास में पढ़ता था । पतंग उड़ाने का शौक ज़िन्दगी में शायद सभी बच्चों का रहा होगा पर मुझे कुछ ज्यादा ही था । ये तो स्वाभाविक है कि किसी भी शौक को अगर किसी के द्वारा भी रोका जाए तो वो ओर भी उभर कर बाहर निकल कर आता है । या यूँ कहिये कि वो विद्रोह बन बढ़ जाता है । मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही था । पिता जी को मेरा पतंग उड़ाना पसंद नहीं था । इस लिये नहीं कि उन्हें पतंग से नफरत थी बल्कि इसलिए को बच्चों से हद से भी ज्यादा मुहब्बत किया करते थे । वो नहीं चाहते थे कि पतंग की वजह से छत पर कोई हादसा न हो जाये । क्योंकि अखबारों में सावन के दिनों में बहुत सी ऐसी खबरें आ जाय करती थी । मैं फिर भी उनसे छिप-छिप कर उनसे नज़रें बचाता हुआ छत पर पहुंच जाता । 

उन दिनों जेब खर्च के लिए बंदी खर्ची मिला करती थी । महीने बाद इकट्ठी ले लो या रोज़-रोज़ ले लो । सारी ख़र्ची पतंगे उड़ाने और डोर लाने में ही जल्द खत्म हो जाती थी । औऱ हम फिर से ठन-ठन गोपाल । फिर मैं तो छत पर जा कर आसमान में उड़ती पतंगों को देख कर ही आनंद ले लिया करता था औऱ आंखें लाल कर लिया जरते था । 

कुछ पतंगे जो कट कर छत पर आतीं थी उन्हें इकट्ठा करना भी एक शौक हो गया था ।

हमारा मकान ऐसी पोजिशन पर था कि कट कर हमारी छत पर बहुत पतंगे आती थी । मैं उन्हें इकट्ठा कर छत पर हमारी एक टीनों से बनी बरसात रोकने के लिए एक आधे से कमरे सी टपडी बनी थी, जहां हमारे छत पर सोने के बाद सुबह सारी खाटें वहीं रख दिया करते थे । मैं अपनी सारी पतंगे उसके नीचे ही रख दिया करता था । डोर को भी बहुत सी चारपाइयों के पीछे छुपा दिया करता था ।

जिस गली में हम रहते थे । उस गली में हमारे सामने भी एक चार मंजिला मकान था जिसकी छत पर उन लोगों ने वहॉं  बहुत सारे कबूतर पाल रखे थे जिन्हें वो तेज़-तेज़ सीटियां मार-मार कर उड़ाया करते थे । चूंकि वो पालतू कबूतर थे तो वो आसमान की दूर तक फेरी लगाकर आते और उनकी छतपर वापिस आकर बैठ जाया करते थे। यही सिलसिला वो दिन में कई बार दोहराते ।

मुझे भी उनके कई रंग के कबूतर उड़ते हुए बहुत अच्छे लगते  थे । मैं कभी पतंगों को, तो कभी उनके कबूतरों को निहारता खुश होता ।

अब मेरे साथ एक अजीब सा सिलसिला शुरू हो गया । मैं पतंगे इकट्ठी कर चारपाई के पीछे रख के जाता । कई बार वो सारी पतंगे गायब हो जाया करती ।  कभी-कभी तो एक दो पतंग बची होती बाकी गायब । औऱ जो बच जाती वो भी कहीं न कहीं से फटी हुई होती ।  ये सिलसिला बड़े दिनों तक चलता रहा ।  जिस दिन गायब न होतीं उस दिन मेरा ख़ुशी का ठिकाना न रहता ।

अब ये पतंग चोर कौन था ? उसे ढूंढना मेरे लिए तो एक पेचिदा सवाल था ।

मेरी समझ से बिल्कुल बाहर था कि पतंगे जाती कहाँ है । हमारे साथ वाला मकान बहुत ऊँचा था । उस मकान से कोई नीचे आ नहीं सकता था । दूसरी साइड वाला मकान इतना नीचे था कि वहाँ से भी कोई ऊपर नहीं आ सकता था । अब पतंगों के गायब होने की पहेली  मेरे लिए सर दर्द बनी हुई थी । अब ये बात पूछूं तो पूछूं किससे या बताऊँ किसे ?

मैं बार-बार जब पतंगों के इस सिलसिले से परिशान हो रहा होता था तो वो लड़का जो कबूतर उड़ाता था वो निरंतर मुझे परेशान होता देखता रहता था । लेकिन मुझे इस बात का जरा भी इल्म नहीं था ।

मेरे पिताजी को मेरा पतंगे उड़ाना पसंद नहीं था इसलिए उन पतंगों को मैं नीचे भी नहीं ले जा सकता था ।

एक दिन हमारे घर में कोई फंक्शन था काफ़ी रिश्तेदार घर पर आये थे उन्होंने हमें सगण के तौर पर कुछ पैसे दिए थे जिनसे मैं बाजार से खूब सारी पतंगे औऱ डोर ले आया । मुझे याद है उस दिन मेरे पास मेरी छत पर 35 पतंगें थी ।  कुछ पतंगे छत पर वैसे ही कट कर आयीं थी वो भी थीं । सब मैनें जगह बदल कर अलग से रखीं थीं  ।

मैं अगले दिन जब स्कूल से आया । फ़टाफ़ट खाना खाया और उसके बाद जब मैं ऊपर गया तो देखा कि मैं जो भी पतंगे  तथा डोर बाज़ार से लाया था और जो पतंगें मैनें छत पर जमा भी की थीं । सब गायब थीं । एक भी पतंग नहीं थी औऱ सबसे ज्यादा दुख मुझे उस शीशे की सुराही का हुआ, जो पिछले दिन मैं ऊपर ही छोड़ गया था । वो नीचे गिर कर टूटी पड़ी थी ।

मुझे बहुत तगड़ा झटका लगा । मेरे जैसे होश उड़ गए हों । दिमाग़ भिन्ना गया । मैं अपना सर पकड़ कर खाट बिछा कर बैठ गया ।  मेरी आँखों से धीरे-धीरे आँसू निकलने लगे थे ।

वो सामने छत पर कबूतर उड़ाने वाला लड़का उस दिन भी मुझे देख रहा था । उसे उस दिन शायद मुझ पर तरस आ गया या उसे भी मेरे दुख में शरीक होना था ।

उसने मुझे आवाज़ लगाई --"ओ डॉक्टर !!"

मेरे पिताजी डाक्टर थे तो आसपास सभी मुझे डॉक्टर के नाम से ही बुलाते थे ।

मैनें भीगी आँखों से अपना सर ऊपर उठाया और उसकी तरफ देखा । वो लड़का मेरी तरफ इशारा कर बोला --"ज़रा नीचे आ"

मैं घबरा गया कि अब ये क्यों मुझे नीचे बुला रहा है । उससे मेरी कभी भी बात नहीं होती थी । सच कहूँ तो मैं जल्दी-जल्दी किसी के साथ फ्री भी नहीं हुआ करता था । थोड़ा रिसर्व स्वभाव समझ लो ।

उसने मुझे दुबारा आवाज़ लगाई तो मैं नीचे जाने को तैयार हो गया ।

वो समझ गया था कि मैं घबरा रहा हूँ। उसने मुझे इशारे से बताया कि पतंग की बात है ।

मुझे अब कुछ-कुछ महसूस होने लगा कि शायद इसे पतंगों की चोरी के बारे में कुछ पता ज़रूर है ।

उसने मुझे बताया कि उस दीपक तुम्हारी पतंगे चुराता था । वो साथ वाले मकान से एक लंबी  लोहे की सीख जिसके कोने में गुंडी बना रखी थी उससे वो सारी  पतंगे औऱ डोर खींच लेता था । कल उसने जब पतंगे खींची तो देखा कि तुम्हारी नई पतंगे बहुत ज्यादा थीं तो मुझे ये अच्छा नहीं लगा । इसलिए तुम्हें बताना मैनें ठीक समझा । उसने मुझे मेरी हैल्प के लिए भी कहा-- की कहो तो उसे कूट दूँ ? जिस्म से वो बहुत ताकतवर भी था ।

मैनें मना करते हुए उसे धन्यवाद कहा और उसे अपनी दुविधा भी बता दी कि अगर पिताजी को पता चल गया तो पिटाई औऱ हो जायेगी ।

मैनें दिल ही दिल में उसे सबक सिखाने का मन बना लिया था । जिस से सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे ।

मेरी क्लास में मनमोहन नाम का एक लड़का पड़ता था । वो मेरा पक्का दोस्त था । उसके पापा बिजली का काम करते थे । स्कूल से वापिस आने के बाद वो पापा के साथ दुकान पर बैठा करता था ।

मैनें उसको सारा किस्सा सुनाया औऱ बताया की लोहे की छड़ से वो समान उठाता औऱ चोरी करता है ।

उसको पल भर में ही सारी बात समझ में आ गयी । उसने दुकान से एक लंबी पतली तार ली और उसके साथ एक ऐसा सिस्टम बना दिया कि पतंगों के साथ जैसे ही उसकी लोहे की सीख टच करेगी । उसे बहुत तगड़ा झटका लगेगा । फिर कभी ज़िन्दगी में इधर रुख नहीं करेगा ।

सबसे पहले हमने 35 बड़ी-बड़ी सुंदर-सुंदर पतंगे ली । और अगले दिन हम दोनों ने स्कूल से छुट्टी ले ली औऱ सुबह से ही छत पर ये सिस्टम का जाल लगाकर बैठ गए औऱ दीपक का बेसब्री से इंतज़ार करने लगे ।

सुबह से दुपहर । दुपहर से शाम हो गयी । वो नहीं आया । हम दोनों ने दुपहर की रोटी भी नहीं खाई थी । भूख भी लगी थी । सोचा कि अब कल फिर जाल लगाएंगे औऱ हम दोनों कल के लिए बात कर नीचे उतरे ।

मैं खाना खाकर टहलने के लिए गली में निकला तो वही कबूतर वाला लड़का दूर से आवाज़ मारता हुआ बोला--"डॉक्टर ! आज तो तुम्हारी पतंगे सब सही सलामत है न ?"

मैं सोचने लगा शायद इसने हमें छत पर रखवाली करते देख लिया होगा । वो कहता हुआ थोड़ा पास आया तो मैनें भी उसे कहा आज अगर वो ये गलती कर देता तो शायद उसकी ज़िन्दगी की आखिरी गलती होती।

लेकिन मेरी इस बात पर वो लड़का थोड़ा सीरियस होकर बोला- "दीपक सच में ये गलती इस ज़िन्दगी में तो दुबारा नहीं कर पायेगा। ? वह अब नहीं आएगा, सुबह-सुबह उसकी  बाइक से एक्सीडेंट में मौत हो गयी ।

मैं उसके मुँह से ये शब्द सुनकर एकदम  स्तब्ध रह गया, अगले ही पल सब कुछ बदला-बदला सा नजर आने लगा। जो मन द्वेष से भरा था वो मन एकदम दुखी हो गया उसकी मृत्यु की खबर सुनकर ।

कुछ भी हो मौत एक शाश्वत सत्य है, जिसके सामने सब झूठ है, मृत्यु सारे गिले-शिकवे, द्वेष मिटा देती है और हर कोई मृत आत्मा की शांति की कामना करता है । 

 मुझे अब कुछ अच्छा नहीं लग रहा था । मुझे अपने ऊपर गुस्सा आने लगा था । परिस्थितियां बदल चुकीं थी ।

मैंने तुरंत घर जाना ही उचित समझा । घर आकर मैं सीधा छत पर गया और अपनी सुंदर पतंगों पर नजर डाली । खूबसूरत चुन कर लायी गयी पतंगे थी । रोज़ ऐसी पतंगों को निहारा करता था तो दिल प्रफुल्लित हो जाया करता था ।

इतनी खूबसूरत पतंगे देखकर भी मन प्रसन्न नहीं हो रहा था ।
कोई भी पतंग अब अच्छी नहीं लग रही थी । आसमान में उड़ती पतंगों की उड़ान में अब वो आनंद नहीं आ रहा था ।

पतंगे वही थी । जगह भी वही थी । वो कबूतर उड़ाने वाला लड़का आज भी वैसे ही मुझे रोज़ की तरह देख रहा था । पर आसमान में उड़ती पतंगों पर कोउ ध्यान नहीं था । लेकिन जो पतंगे मेरे पास भी थीं अब वो मुझे आनंदित नहीं कर पा रहीं थीं ।
एक अनजान सा मोह उस अनजान व्यक्तित्व से हो चला था शायद ।

मैनें वो सारी पतंगे उठाईं औऱ बनेरे के पास खड़े ही एक-एक कर सबको हवा में उछलता चला गया ।

वो कबूतर वाला लड़का आज कबूतर नहीं उड़ा रहा था वो भी शायद मौन हो मेरे साथ इस शोक में श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा था ।

आज भी पतंगों को देखता हूँ तो वो दीपक आंखों के आगे चला आता है ।

मेरी सोच का तातां तब टूटा जब मेरी शरीक-ए-हयात ने जब मेरे हाथ से चाय का भरा प्याला मुझसे वापिस मांगा ।

"★★★★★समाप्त★★★★★


अनक और नफरत (Ego &Hate)

 



    शहर में बड़ा घर हो तो फिर क्या कहने । घर में राजेश की शादी का माहौल था । सब तरफ धूम-धाम चल रही थी । अभी शादी को एक महीना बाकि था । कोई कपड़े लेने में मस्त तो कोई राशन इकट्ठा करने में । 

राजेश के पापा केवल सिंह स्वभाव से बहुत ही गुस्से वाले मगर बहुत ही प्यार करने वाले औऱ भावुक इंसान थे । केवल सिंह ज़मीदार थे मगर आलसी थे । उनके दो भाई भी थे जिनसे अपने गुस्से के चलते नाता तोड़ चुके थे । उम्र 50 की आते आते सठियाने भी लगे थे । ज़मीन पट्टे पर दे रखी थी तो अब उन्हें भी राजेश ही देखता था । अपनी इस पुश्तैनी हवेलीनुमा घर का केवल सिंह अब अकेला ही वारिस था क्योंकि उनके पिता ने अपने होते  हुए ही जायदाद का बंटवारा कर दिया था । उन्हें केवल सिंह का पता था कि बाद में यही क्लेश करेगा ।

           उसे मधुरिमा की ख़ूबसूरती ने इस तरह मोह लिया था कि उसने उसे देखते ही  शादी के लिए हाँ कह दी थी । मधुरिमा बहुत पढ़ी लिखी लड़की थी उसके पिता बहुत बड़े व्यापारी थे । वक़्त ने दोनों को दो खूबसूरत बच्चे दिए । राजेश और स्वाति । राजेश पढ़ लिख कर  एन०डी०ए० में दाखिला लेकर एक फौजी बनना चाहता था । लेकिन पापा के गुस्से का शिकार हो उसने अपनी इच्छा के विरुद्ध एक अच्छी कंपनी में नॉकरी जॉइन कर ली । लेक़िन पापा केवल सिंह को अपने बेटे की शादी को लेकर बहुत ही खुशी थी । माँ मधुरिमा पढ़ी लिखी थी इस लिए उसे बच्चों के लिए कुछ चीजों को लेने के लिए, मनवाने के लिए कई बार पति से नोंक-चोंक भी हो जाया करती थी । खास बात ये थी कि केवल सिंह की अगर पूछ लो तो दिख खोल के खर्च कर दिया करता था । ज्यादा पढ़े लिखे न होने की वजह से बहुत सी चीजों और दुनियाँदारी से अनजान केवल सिंह,  से मधुरिमा छोटी मोटी खटपट होना आम सी बात थी । हर बात में केवल सिंह का अहम आड़े आ जाता था । कोई भी काम घर के लिए अच्छा भी है अगर मधुरिमा ने खुद कर लिया तो हंगामा । वही काम अगर केवल से पूछ कर करो तो वो उसकी तारीफ किये नहीं थकता था । पापा के इस स्वभाव से बच्चे भी उद्धिग्न थे लेकिन डर के मारे चुप रहा करते थे । वो दोनों अंदर से पापा की आदत से परेशान रहते थे । कई बार तो किसी छोटी सी बात पर भी केवल सिंह का गुस्सा नोक झोंक का कारण बन जाता था और इसी वजह से पापा का दो तीन दिन के लिए कोप भवन में बैठ जाना आम सी बात थी । बच्चे कई बार, घर से भाग जाने की प्लानिंग भी करते थे लेकिन मम्मी की वजह से मन मसोस कर रह जाते थे । मम्मी से बहुत प्यार करते ठगे दोनों ।

शादी का माहौल था । घर में पहली शादी थी । अब घर में शादी है तो हर किसी काम के लिए उनसे पूछ-पूछ के करना तर्क संगत तो नहीं था न । फिर भी जितना भी हो सकता था बच्चे और मधुरिमा कोशिश यही करते कि केवल सिंह से पूछ लिया जाए । एक दिन वो दोस्तों में बिजी थे तो मधुरिमा ने अपनी बहु को फ़ोन कर बाज़ार बुला लिया और वहाँ ले जाकर मधुरिमा उसकी पसंद की दो सिल्क की साड़ियाँ खरीद लायी ।

                    शाम को खुशी-खुशी मधुरिमा ने बताया कि वो दो साड़ियाँ लायी है देखो तो जरा । उस वक़्त तो उन्होंने कह दिया बहुत अच्छी है । मगर धीरे-धीरे न जाने क्या-क्या सोचकर उनका चेहरा रूठा-रूठा नज़र आने लगा । सबने सोचा होगा कुछ अपने आप ठीक हो जायेंगे । क्योंकि उनको जितना मनाओ वो उतना ही और गुस्सा करने लगते थे। अगर कोई नही पूछता तो धीरे-धीरे अपने आप ठीक हो जाते थे । रात को भी चुपचाप खाना खाया और सो गए । सुबह होते ही फ़टाफ़ट उठे और नहा धोकर तैयार हो लिए । वैसे वो आराम से ही उठते थे । फिर हर छोटी बात पर भी गुस्सा होने लगे । मधुरिमा ने चाय लाकर दी तो एक घूँट पीते ही कप उठा कर फेंक दिया और कहा--"ये भी कोई चाय है?" बाकि सब समझ गए कि कोई न कोई बात हो गयी है । गुस्से में ये भी नहीं देखते थे कि घर में अपना ही फंक्शन चल रहा है और रिश्तेदार आये हुए हैं । मधुरिमा ने बहुत समझाया कि बहु के पसंद के हैं लेकिन नहीं माने औऱ घर से निकल गए ।

पहले भी कई बार ऐसे ही घर से निकल जाया करते थे तो दो या तीन दिन बाद वापिस आ जाया करते थे । सोचा कि गए है अपने आप जब गुस्सा शांत होगा आ जाएंगे । लेकिन दिन बीतता गया वो नही आये । धीरे-धीरे दिन बीतने लगे । पच्चीस दिन होने को आये वो नहीं आये । खबर तेज़ी से फैलती हुई बहु के घर तक पहुंची तो रिश्ता टूटने का संदेसा आ पहुंचा ।

घर में ऐसे हो गया जैसे मातम छा गया हो ।

रिश्तेदार सब परेशान । सबने मिल के पोलिस में रिपोर्ट लिखवाने की सलाह दी । लेकिन उसकी पत्नी और बच्चों ने  रिपोर्ट लिखवाने से भी मना कर दिया । पापा को दोनों बच्चे पहले ही पसंद नहीं करते थे । मगर उनकी इस हरकत से  दोनों  की नफ़रत और भी प्रगाड़ होती चली गई । राजेश की नफ़रत तो इतनी बढ़ गयी कि उसने उनकी सभी तस्वीरें तक जला डालीं ।

             रिश्तेदार धीरे-धीरे सभी अपने घर रवाना हो गए । घर अब बिल्कुल खाली हो चुका था । राजेश और स्वाति ने अपना-अपना आफिस फिर से जॉइन कर लिया । ज़िन्दगी धीरे-धीरे पटरी पर लौट आयी । 

घर में जितने भी फ़ोन थे सब के सब बंद करवा दिए गए । नए सिम लेकर उन्हें इस्तेमाल करना शुरू किया ।

तीन साल बीत चुके थे । सब लोग केवल सिंह का अस्तित्व तक भूल चुके थे । राजेश अब ज़मीदारी से थक चुका था । वो इससे निजात पाने की जुगत पर काम करने लगा । मुसीबत अब ये थी कि वो सारी ज़मीनें उसके पापा के नाम पर थीं । उसने मम्मी से इस बारे में बात की तो उसने कहा-- "बेटा जैसे दिल को शांति मिले वैसे ही करो । कोई बन्दिश नहीं है ।"

तहसील में जब बात की तो उन्होंने कहा या तो डेथ सर्टिफिकेट लाओ या पापा की गुमशुदगी की रिपोर्ट के सात साल बाद ही आप इस जमीन का कुछ कर सकते हैं । इस बात पर राजेश ने जोर से माथे पर हाथ मारा और मुँह से ओहो निकल गया । ढीला हो वो तहसील से बाहर निकल  पछताता हुआ बाहर आया औऱ सोचने लगा अच्छा भला सब उस वक़्त बोल रहे थे कि रिपोर्ट  लिखवा लो लेकिन हमने अपनी नफ़रत के चलते नहीं लिखवाई । अब ज़मीनों का ख्याल दिमाग़ से छोड़ वो घर की ओर चल दिया ।

घर पर जब आकर अपनी बहन और मम्मी को सारी बात बताई तो उन दोनों ने भी यही सलाह दी कि अब जो हो गया सो हो गया । हमें कम से कम अब रिपोर्ट तो लिखवा ही देनी चाहिए । वक़्त आएगा तो कुछ न कुछ तो होगा न । अगले दिन तीनों ने थाने जाकर रिपोर्ट लिखवाने की बात की तो उन्हें काउंटर से उस लेडी ने उजागर सिंह को गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखने को कहा । उजागर सिंह दस साल से रिपोर्टें ही दर्ज करता रहा है । जब राजेश उसे रिपोर्ट लिखवाने गया तो उजागर ने  आश्चर्य से राजेश से पूछा--"अब कौन भाग गया?"

राजेश ने अजीब सी नज़रों से न समझते हुए उजागर सिंह को देखा । स्वाति साथ खड़ी थी वो पापा की फ़ोटो दिखाती हुई बोली--"सर पापा की गुमशुदगी की रिपोर्ट है जो हमने तीन साल पहले नहीं लिखवाई थी अब लिखवा रहे हैं"

उजागर सिंह मुस्कराता हुआ बोला कि --"आप लोगों की यादाश्त थोड़ी कमजोर हो गयी है"--- वो पुरानी फाइल ढूँढता हुआ फिर बोला--"मुझे डेट बताओ तुम?"

मधुरिमा ने फिर कहा-- 'सर गलती हो गयी थी रिपोर्ट नहीं लिखवाई थी"

उजागर बोला--"देखो मैडम ! मेरी यादाश्त बहुत तेज़ है जो फ़ोटो आप दिखा रहे हैं इसका नाम केवल सिंह है न?"

तीनों ने एक दम कहा --"हाँ-हाँ आपको कैसे मालूम ?"

"क्योंकि मैंने ही रिपोर्ट लिखी थी"-उजागर ने कहा ।

फ़ाइल मिल गयी थी और रिपोर्ट जो लिखी थी उजागर ने वो भी दिखा दी । उसने बताया रिपोर्ट लिखवाने वाले का नाम "विक्रम सिंह राठौड़"

मधुरिमा और बच्चों के मुँह से एक दम निकला---पापा? ---नानू?

उन्होंने उसकी नकल की फीस जमा करवाई और अप्लाई कर दिया ।

       कुछ दिन ही बीते थे स्वाति का रिश्ता आया । जब लड़के देखने वाले आये तो पता लगा कि वो लड़का राहुल उसके कॉलेज में उसी के साथ ही पढ़ता था । दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह जानते थे और एक दूसरे को पसंद भी करते थे लेकिन पापा के स्वभाव की वजह से स्वाति ने कभी कोई कदम आगे नहीं बढ़ाया था । उसे देख स्वाति भी खुश थी ।

सभी की मर्ज़ी से रिश्ता पक्का हुआ दो महीने में शादी भी हो गयी । राहुल इनकम टैक्स में ऑफिसर पोस्ट पे था । पोस्टिंग जमशेदपुर थी और स्वाति भी वही चली गई ।

राजेश की ज़िंदगी सामान्य तरीके से मम्मी की जरूरतें पूरी करते हुए होने लगी । मधुरिमा ने कई किट्टी पार्टियां जॉइन कर लीं । रोज़ ही पार्टियों के दौर चलने लगे । एक डर की ज़िंदगी से निकल वो आज़ाद पंछी की तरह जीने लगे । दो साल में ही मधुरिमा ने अपनी एक  सहेली की बेटी अनुपमा, जो कॉलेज में लेक्चरर थी, उससे राजेश की भी शादी करवा दी । राजेश के पापा के जाने के छः साल बाद सारे मुहल्ले में अब वो सबसे ज्यादा सम्मानित व खुशहाल परिवार था ।
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            केवल सिंह का क्या हुआ?

केवल सिंह पत्नी से लड़ कर घर से ये सोचकर निकल गया कि बाहर पार्क में जाकर दो घंटे आराम करके वहीं के ढाबे से चाय नाशता  तक करूँगा तब तक मधुरिमा की अक्ल भी ठिकाने लग जायेगी । फिर अपने आप फोन करती फिरेगी ।

पार्क में लेटे-लेटे केवल सिंह की आँख लग गयी । क्यूँकि रात को परेशानी इतनी हुई कि नींद नहीं आयी । अपने अहम की बेइंतहा चिंता जो थी वो भी एक अबला नारी और अपने ही बच्चों से ।

जब जाग खुली तो शाम के चार बजे चुके थे । मोबाईल को चेक किया तो उसमें कोई भी मिस्ड कॉल नहीं थी । वो हैरान था । किसी ने भी उसे काल नहीं किया ? उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था ।

उसने सोचा हो सकता है कि नेटवर्क न मिला हो ? अब खुद को समझाने के लिए कई चीजें सोचने लगा । अभी भी उसे यकीन था उसका बेटा और बेटी तो बड़े ही फर्माबदार हैं, और बेटे की तो शादी भी है वो कैसे भूल सकता है ? उसे तो मेरी बहुत जरूरत होगी? उसको जब अहसास होगा तो वो ज़रूर फोन करेगा ।

लेकिन रात नो बज गए कोई फोन नहीं आया।  सुबह का भूखे पेट केवल सिंह ने हार कर चाय वाले के पास जाकर चाय के साथ दो परांठे बनवाये  फिर मन को और कड़ा कर चायवाले को बोला चार पैक भी कर दो ।

पैक करवाते-करवाते दिमाग़ अब और भी कड़ा कर अहम/ईगो को सातवें आसमान पर ले जाकर खड़ा कर, खुद से बातें करने लगा कि अब फोन आया, तो मैं ही नहीं उठाऊँगा और बस स्टॉप की ओर चल दिया ये सोचकर वहां पर पहुँचते-पहुँचते तो फोन आ ही जायेगा । लेकिन फोन नहीं आया ।

सोचते-सोचते, दिल को तसल्ली देते देते, अगले दिन तक केवल हरिद्वार पहुंच चुका था । पन्द्रह दिन में एक बार हुड़क उठती कि फोन तो आना चाहिए पर नहीं आया ।

वहां कभी एक धर्मशाला कभी दूसरीं कभी तीसरी बदलते दो साल बीत गए वो अब थक चुका था । इस दौरान कई पंडे उसके दोस्त भी बने कई फिर केवल के गुस्से की वजह से छूट भी गए । कई लोगों से दुश्मनी भी हुई । अब मन में बुरे विचार भी आने लगे कि कहीं किसी को उस दिन कुछ हो न गया हो ? शायद इसी वजह से फोन न किया हो ?

रोज़ ही ऐसा कुछ सोचते-सोचते उसे नींद आ जाती और वो खर्राटे लेने लगता । वक़्त बीतता गया और वो हरिद्वार में हर आने वाले पर नज़र रखता कोई, शायद अपना ही निकल आये । रोज़ सुबह उठ के फोन चेक करता । छह साल बीत गए अब तक उसे अपने जैसे बस दो दोस्त ही मिले, जिनकी कहानी लगभग इसी की तरह थी । तीनों ने मिलकर फिर एक कमरा किराये पर लिया । बाकी दोनों दोस्त कभी-कभी अपने बच्चों से बात कर लिया करते थे तो उस वक़्त केवल कान लगाकर उन्हें बात करते हुए सुन लिया करता था ।

मन तो केवल सिंह का भी खूब करता था अपनी पत्नी और बच्चों से बात करने को । लेकिन ईगो इतनी बड़ी थी कि उसे बात करने से रोक देती थी । कई बार उसने उनके नंबर को डायलिंग स्क्रीन पर डायल करने के लिए रखा भी, लेकिन ईगो सामने आते ही स्क्रीन खाली कर दिया करता था । इसी उलझन में आठ साल बीत गए ।

एक दिन केवल सिंह सुबह-सुबह उठ के नहाने के लिए अकेले ही हर की पौड़ी पहुंच गया । वहाँ गिनती के कुछ ही लोग डुबकी लगाने के लिए आये हए थे । केवल ने अपनी चप्पल  उतारी और हर की पौड़ी पर अभी चार सीढियां ही उतरा था कि पैर फिसला औऱ सीधा गंगा के बीच पहुँच गया । लंबी चीख निकली लेकिन सुनता कौन । जो थे किसी को तैरना ही नहीं आता था । केवल सिंह लहरों में फंसता ही चला गया । बड़े हाथ पैर मारे लेकिन धीरे-धीरे मौत की आगोश में जाने लगा तो भगवान  को याद कर कहने लगा - "है भगवान सिर्फ एक मौका दे दे सिर्फ एक मौका मैं अपनी मधुरिमा औऱ बच्चों से सिर्फ एक बार बात कर लूँ फिर चाहे मुझे के जाना ।"

      लेकिन गंगा का बहाव इतना तेज था उसने उसे कई किलोमीटर तक यूँ ही बहाकर ज़ोर से पटक दिया । केवल सिंह देख रहा था वो निश्चल होता जा रहा है । कुछ देर बाद उसने देखा इसकी बॉडी के साथ तीन बॉडी ओर बह रही रही हैं । उसे महसूस हुआ वो चारो किसी जाल पर जाकर फंस गए हैं ।

अगले दिन उन चारों बॉडी को निकाल कर किसी ने बाहर रखा और चादरें डाल दी । पहली बॉडी ने दूसरीं बॉडी से पूछा- यार ये बता तुझे लंबू कौन लगाएगा? --- उसने कहा मेरा बेटा है । पहले वाले ने कहा बड़े ही किस्मत वाले हो मेरे रिश्तेदार देखो वो इतने सारे खड़े हैं । इलेक्ट्रिक शव दहन की तैयारी कर रहें हैं ।

दूसरीं बॉडी ने तीसरी से पूछा --तुम्हें कौन लगाएगा ? उसने कहा-मेरे तीन बच्चे हैं दो बेटे दोनों बाहर अफ्रीका में है  उनके पास तो वक़्त ही नहीं है बहुत काम है उन दोनों के पास । लेकिन वो ख्याल बहुत रखते है मेरा । फिर उदास होकर बोला पर वो लंबू लगाने तो नही आ सकते । लेकिन मेरी बेटी है न वो ही सब कुछ करेगी । बहुत प्यार करती है मुझसे । पहली और दूसरीं बॉडी ने कहा तुम तो सबसे ज्यादा लक्की हो कि तुम्हारे पास बेटी है ।

तीसरी बॉडी जब चौथी बॉडी यानि केवल की बॉडी से पूछने लगी, तो केवल जोर से चिल्लाया मेरा बेटा ही मुझे लंबू लगाएगा । मेरा बेटा ही लंबू लगाएगा ।

केवल सिंह इतनी जोर से चिल्लाया कि उसके दोस्त घबरा के उठ बैठे और चिल्ला रहे केवल को हिला कर उठाने लगे ।

केवल उठा तो इधर-उधर देखते हुए अपना फ़ोन ढूँढने लगा । साथियों ने पूछा ---क्या हुआ, कुछ बुरा सपना देखा क्या? केवल डरा हुआ था उसने रोते हुए वो सारा सपना हुबहू सुनाया । उसके दोस्तों ने उसे समझाया -"तुम घर एक बार फोन कर लो शांति हो जाएगी । हो सकता है उन्होंने फोन किया हो और किसी वजह से न मिला हो ?"

                केवल ने उसी वक़्त ईगो त्याग कर सबसे पहले मधुरिमा को फोन लगाया । आठ साल बाद ईगो ने थोड़ा रंग बदला लेकिन तब तक सब कुछ बदल चुका था । मधुरिमा का नंबर रोंग नंबर निकला । बारी-बारी से सभी के नंबर गलत निकले । कोई दूसरा ही बोलता था । कुछ अनहोनी सोच उसने अपनी पोटली बांधी औऱ भगवे कपड़े पहने ही दिल्ली रवाना हो गया ।

अपनी हवेली के बाहर खड़ा हो वो देख रहा था । सब कुछ बदल चुका था । घर की दीवार के साथ जो नीम का दरख़्त था जिसकी छांव में रोज़ शाम को केवल चाय पीता था वो अब वहां नही था । दरवाजे के साथ बैठने के लिए दोनों तरफ चबूतरी थी वो सब गायब थीं । यानि के जो जो केवल की पसंद थी सब गायब थीं । दादाओं के वक़्त से हवेली तोतिया रंग से पुता करती थी लेकिन अब वो पीले समोसम से बड़ी शानदार लग रही थी ।

इतने में एक टैक्सी आकर दरवाजे के आगे रुकी । केवल ने अपने आपको थोड़ा साइड में किया और देखने लगा । हवेली से एक नोजवान, एक सुंदर सी लड़की के साथ दो तीन सूटकेस लेकर बाहर निकला और टैक्सी में सामान रखने लगा । केवल सिंह देख रहा था कि वो तो उसका बेटा राजेश ही है । लेकिन ये लड़की वो तो नहीं लग रही जिससे शादी हुई थी ? राजेश ने सामान लाद कर अपनी पत्नी अनुपमा को आवाज लगाई । अनुपमा और राजेश ने अभी अभी बाहर आई अपनी मम्मी के पाँव छुए औऱ गाड़ी में बैठ गए ।

केवल सिंह जल्दी से आगे बढ़ा कि बेटे को निकलने से पहले एक बार मिल लूँ। गाड़ी तक पहुंचने से पहले ही गाड़ी चल पड़ी । राजेश ने चलती गाड़ी से ही आवाज लगाते हुए मम्मी को आवाज लगाई -- "अम्मी अमेरिका पहुंच कर फोन करूँगा और मम्मी इन बाबा को खाना ज़रूर खिला कर भेजना भूखे लगते हैं ।"

राजेश ने कहा तो मधुरिमा ने बाबा को आवाज लगाई जो पहले ही मधुरिमा की ओर देख रहे थे ।
केवल सिंह अपनी बड़ी हुई दाढ़ी और आँखों पर लगे चश्में के पीछे से देख रहा था कि मधुरिमा तो एक दम बदल चुकी है । मॉडर्न हो चुकी है । क्या सच में मुझसे इतने दुखी थे? जो मुझे याद तक नहीं किया ?

मधुरिमा ने उसकी तरफ देखते हुए बाबा बने केवल को आवाज लगाई--"अरे बाबा आओ न ? खाना खा के जाओ ।"

                          केवल ने दूर से ही मधुरिमा को दोनों हाथों से आशीर्वाद देते हुए वापिस मुड़ कर, ये सोचते हुए चल दिया कि जिस घर से मैनें कभी किसी को एक अन्न का दाना दान में नहीं दिया उस दहलीज़ से गरीबों को अन्न बांटा जा रहा है । इतनी बरकत दी है खुदा ने तो ऐसे खुशहाल घर को फिर से क्यूँ ग्रहण लगने दूँ ।

हर्ष महाजन 'हर्ष'

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