Thursday, December 31, 2020

क्या लिखूँ ?

 


क्या लिखूँ या क्या न लिखूँ,

सत्य लिखूँ या अर्ध-सत्य ?

चेहरे पर हँसी लिखूँ 

या वो 

वक़्त की सिलवटें ?

उभरता व्यक्तित्व लिखूँ,

या

वो बिखरता अस्तित्व ?

कुछ दिख रहीं कोशिशें लिखूँ

या फिर 

मन के कुछ सवाल?

वो बेदर्द अपनें लिखूँ

या 

न भूलने वाले वो रिश्ते ?

कितनी कठोर है न ये ज़िन्दगी, ये वक़्त और उसके संग बीता हर पल जो हमें याद दिलाता रहता है उम्र के हर पड़ाव को, जो हमें आगे से कहीं अधिक परिपक्व करता चला जाता है । मेरे ज़हन में पलती आज भी उन ख्वाईशों से, मैं लिपटकर  सोता हूँ भले ही वो आज लाशें ही सही इन अनजान खामोश से बिस्तरों पर जो  कभी मेरे स्वप्न थे । बचपन या फिर बढ़ती उम्र के साथ उनको  पाने की अभिलाषाओं से भरा,  कितना वीरान सा सुकूँ भरा शून्य और चेतना से भी परे  एक अलग ही दुनिया का आकाश पल-पल आंखों में सपने देता हुआ सा नज़र आने लगता है । घर पर खेलतीं वो मासूम सी बच्चियाँ अपने खिलौनों से निकल वक़्त की सिलवटों को संवारते हुए उन सभी बंदिशों से निपटते हुए इस संसार रूपी भंवर में पदार्पण करती है । कर्मों के सफर में कुछ खुशियों के पल, फिर अचानक देखता हूँ, न जाने समाज की हैवानियत का वो क्रूर प्रहार और चेहरे से वो हँसी, न जाने कहाँ नदारद । कितना घिनोना है ये सत्य--कमाल है न ये ज़िन्दगी भी ?

डर ख़ौफ़ और दहशत भरे माहौल में, आस का सिर्फ इक कतरा, मेरा परवर-दिगार ।


हर्ष महाजन