Wednesday, March 1, 2023

गलतफहमी

 

अलीगढ़ के उस मकान में------

नितिन अपने पके बालों को शीशे में देख कई बार सोचता कि पुश्तैनी मकान में कब तक रहकर गुजारा होगा ।

उस दिन मकान में टहलते हुए खाली कमरों पर नज़र गयी तो नितिन अपनी पुरानी यादों में खोता ही चला गया ।

सोचने लगा वो वक़्त कितना अच्छा था । सयुंक्त परिवार था तो यही लगता था कि ज़िन्दगी कितनी  हसीन थी । तीन भाई, चार बहनें फिर उनके बच्चे कितना बड़ा परिवार था । फिक्र करने के लिए माँ और बाबूजी मौजूद थे । घर में कभी भी गेट-टुगेदर होता तो किसी बाहर वाले कि तो कोई आवश्यकता ही नहीं होती थी । अपने परिवार की ही रौनक़ इतनीं हो जाती थी ।

शून्य में देखता हुआ नितिन !! उसके चेहरे पर कई भाव जन्म लेते । कभी उदास कभी वो खुद ही मुस्करा देता । फिर वापिस परिवार के बारे में सोचते हुए । इतने बड़े परिवार के सभी सदस्य एक-एक कर घर छोड़ते चले गए । न जाने क्यूँ !! मगर यही कहते हुए कि ज़िम्मेदारियों को पूरा करना है इसलिए जाना तो पडेगा न । चारों बहनों की शादियां हो गईं और वो अपने-अपने घरों  की रौनक हो गईं ।

पिता राम दयाल जी का रौबदार चेहरा जब आंखों के सामने आया तो मन द्रवित हो उठा ।  गठीला बदन,  रुआब दार चेहरा और खुशी मुँह पर साफ झलकती नज़र आती थी ।  मुहल्ले में दूर-दूर तलक उनके नाम को बड़े इज़्ज़त से लोग लिया करते थे ।

लेकिन फिर कुछ ही सेकेंड्स में उसका अपना चेहरा भी उदास होता चला जाता । याद आ जातीं अपनी कुछ वो ज्यादतियाँ । जो अब उसे बेवजह सी लगने लगीं थीं । वो सोचने लगता ।  कम से कम वो अपने हिस्से का दिया दर्द तो कम कर ही सकता था ।  सोचते हुए कब उसकी आंखों से दो बैरंग कतरे निकल कर गालों पर लुढ़क गए पता ही न चला ।

  जैसे-जैसे बच्चे घर छोड़ते चले गए उनके चेहरे की रौनक ने भी धीरे-धीरे दम तोड़ना शुरू कर दिया था । चेहरा गंभीर दिखने लगा था ।  घर में सिर्फ माँ, बाबूजी थे जो भू-तल पर थे । खुद नितिन, पत्नी मालविका और दोनों बच्चे प्रथम तल पर ।

जब तलक वो थे संयुक्त परिवार की चिंताओं ने हमेशा उन्हें घेरे रखा । शायद उन्हें आभास था इसलिए उम्र से पहले ही अपने बच्चों में अस्थायी चीजों को तकसीम कर सभी बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियां, जल्द निपटा कर ज़िन्दगी को कम उम्र में ही अलविदा कह गए ।

बाबूजी को चिंताओं ने बुरी तरह घेर लिया था । चार बेटियों में से दो बेटियों के घर से टेंशन के सिवा कुछ न मिला ।

एक दिन अचानक.....!!!!

बाबूजी चले गए और भोली भाली माँ का जीवन अपने बच्चों पर मुनस्सर होकर चलने लगा । काफी ख्याल रखने के बावजूद भी धीरे-धीरे बाबू जी की कमी उन्हें बार-बार खलती रही । बच्चों के अंदर का मन-मुटाव उनकी गिरती सेहत को और भी बिगाड़ता चला गया ।

नितिन उम्र की उस दहलीज पर था, सोचने के लिए बहुत वक़्त था ।  कमाने के लिए अब गाहे-बगाहे ही कभी टूर का प्रोग्राम होता था ।  शरीर अब इज़ाज़त नहीं देता था ।

दो होनहार बेटे थे । राहुल और राकेश । राहुल बड़ा था और जो पढ़ लिख कर  नॉकरी कर रहा था । छोटा एम०बी०ए की पढ़ाई में व्यस्त था ।

भाइयों में, सभी अपने-अपने मकान लेकर उसमें शिफ्ट हो चुके थे । नितिन पुश्तैनी मकान में ही अपना गुज़र बसर कर रहा था ।

कई बार नितिन को अपने पर बहुत ग्लानि होती थी । घर में कभी किसी चीज़ की कमी तो नहीं थी ।  जब तलक बाबूजी ज़िंदा थे, अलग मकान लेने के बारे में उसने कभी सोचा नहीं था । काम भी ट्रेडिंग का कुछ ऐसा था कि ज्यादा इन्वेस्टमेंट की कभी ज़रूरत ही नहीं समझी । जितना भी आर्डर मिलता , बाजार जाते , बुक किये हुए ऑर्डर का सामान गिन कर लेकर आते और जिस-जिस से ऑर्डर लिया होता अपना मार्जन जोड़ते और उन्हें सामान भेज देते । 

ज्यादा पैसा जोड़ने के बारे में कभी सोचा ही नहीं था । ज़िन्दगी हमेशा मस्त रही । जो कमाया अपने ऊपर ही खर्च कर डाला ।

वक़्त आया तो सयुंक्त सम्पत्ति बिकने पर आ गयी ।जो डी०डी०ए० हाउसिंग सोसाइटी की मेंबरशिप थी उससे दो कमरों का फ्लैट भी आबंटित हो गया । जो किराए पर लगा रखा था । जिसका किराये से उसके छोटे बेटे की फीस का इंतज़ाम हो जाता था ।

माता जी साथ थी ।

मकान खरीदने के लिए उसके पास  बजट न के बराबर ही था ।

नितिन को अब अपने बच्चों के भविष्य की चिंता सताने लगी तो उसने अपने लिए मकान के बारे में सोचा । इस पुश्तैनी मकान में अच्छा रिश्ता मिलेगा ? ये उसे विश्वास नहीं था । इसलिए मालविका की इस्लाह कर उसने नए मकान के बारे में अब सोचना शुरू कर दिया था ।

इसी सिलसिले में अड़ियल स्वभाव के चलते सयुंक्त परिवार के किसी भी सदस्य से पूछे बगैर उसके मन में मकान को बेचने का इरादा घर कर गया ।

पुश्तैनी मकान का सौदा हो गया ।

सदस्यों में तकरार हुई लेकिन बड़ों की समझदारी ओर सूझबूझ से मामला बिगड़ते-बिगड़ते बच गया ।

मालविका को अपने बजट के बारे में मालूम तो नहीं था मगर उसने सलाह जरूर दी कि मकान अपना बजट देखकर ही देखने के लिए जाना ।

नितिन उस दिन मकान देखकर जब घर लौटा तो मालविका उसकी उदास शक्ल देख कर सब समझ गयी ।  इस बारे में उस वक़्त पूछना उसके लिए "आ बैल मुझे मार" वाली कहावत हो जाती । नितिन के गुस्सेल स्वभाव का उसे भली भांति पता था ।

गुस्सा, ईर्ष्या औऱ अहँकार का बोझ उसे अपनों से दूर करता चला गया ।

थका हुआ नितिन सोफे पर बैठ मालविका की कही बातों को सोचने लगा  था । कितने ही दिनों से देशमुख दलाल उसे रोज-रोज मकान पे मकान दिखाता लेकिन कहीं भी  कोई बात बन नहीं रही थी । आज भी देशमुख दलाल जिस मकान को  दिखाने के लिए ले गया था वो भी बजट से बाहर ही निकला।

मालविका इस बारे में कई बार कह-कह के थक गयी थी । लेकिन बचपन से ही जिद्दी स्वभाव नितिन दूसरों की सलाह को अपने से ऊपर मानना उसे गंवारा नहीं था । हालांकि मालविका उसकी पत्नी थी उसने पहले भी कहा था कि जिस इलाके में दलाल उसे मकान दिखाने के लिए ले जा रहा था वो बजट से ऊपर का इलाका है । लेकिन.......!!!

आखिर मन ही मन मालविका की बात मानकर उसने मकान देखना शुरू किया । जो बाद में उसकी अपनी कही जाने लगी ।

पुश्तैनी मकान जो बिका उसके पांच हिस्से हुए । माता जी साथ थीं उसका हिस्सा मिलाकर किसी तरह तीन हिस्सों का इंतज़ाम उसने कर लिया । कुछ इधर-उधर से कर के मकान देखने तक का बजट तैयार हो गया औऱ एक अच्छी कॉलोनी में उस बजट में दो कमरे का फ्लैट लेकर शिफ्ट भी कर लिया गया ।

मालविका अब मकान मालकिन बन चुकी थी । ख़ुशी इतनीं की पुरानी बातों को याद करके वो सोचती कि अब जो दिल में आयेगा अपने नए मकान में वो करेगी ।

नितिन पुश्तैनी मकान में कुछ करने नहीं देता था क्योंकि उसका कहना था कि पुराने मकान पर जो खर्च करोगी सब व्यर्थ चला जायेगा ।

धीरे-धीरे दिन बदलने लगे और दूसरे बेटे की भी सर्विस लग गयी । दोनों बच्चों की शादी हो गयी । और फिर दोनों अपनी-अपनी कंपनियों की तरफ से  किसी प्रोजेक्ट के नाम पर बाहर इसलिए भी चले गए कि कुछ अरसा बाहर नॉकरी कर माँ बाप के पास वापिस लौट आएंगे ।

बच्चे फार्माबदार घर में ज़रूरतानुसार पैसा भेजने लगे, आमदनी बढ़ती गयी और नितिन के हौंसले और अंहकार दोनों ने उसे अच्छी तरह जकड़ना शुरू कर लिया ।

बच्चों ने दिल्ली में संपत्ति के नाम पर चार-चार मकान अपने नाम कर लिए और जिस देश में वो गए वहां भी दोनों बच्चों ने बड़े-बड़े आलीशान मकान के मॉलिक बन गए । 

बच्चों की घर वापिसी का जिक्र अब खत्म हो गया था । जिसका सीधा मतलब की भारत के लिए वापिसी नामुमकिन थी ।

हुआ यूँ कि सम्पत्ति और अहंकार अब जैसे-जैसे बढ़ता गया करीबी रिश्ते ज़रूरत के हिसाब से छूटते चले गए ।

नोबत अब यहाँ तक पहुंच गई कि नितिन को ये लगने लगा कि वो अब बहुत सी संपति का मॉलिक हो चुका है अब उसे किसी की भी ज़रूरत नहीं थी ।

पत्नी के अरमान नए घर में आकर पूरी तरह धूमिल होने लगे । शुरू में उसकी सोच थी कि अपना घर होता तो अपने हिसाब से सजाती । लेकिन वो सब ख़्वाब बन कर ही रह गए ।

एक बार मालविका ने घर को दिल से सजाने का बीड़ा उठाया भी था । लेकिन हुआ वो जो नितिन ने चाहा । जो चीज़ नितिन को पसंद न होती वो उसे घर से बाहर कर देता ।

ड्राइंग रूम के दूसरे सोफे पर बैठी मालविका सोच रही थी । नए मकान से अच्छा तो वही पुराने साथ बिताए दिन थे । जब सब देवर देवरानियाँ इकट्ठे रहते थे ।

नितिन अड़ियल ज़रूर था लेकिन बहुत ही भावुक किस्म का एक व्यक्तित्व था । अगर उसके कहे के अनुसार कोई चलता था तो उसके लिए वो जान तक लुटा देता था । लेकिन सब अपनी मर्जी से । किसी की मर्जी उसमें कतई शामिल नहीं हो सकती थी । अगर किसी ने उसके काम में दखल कर के कोई सलाह भी दे दी । तो उसका एक ही फंडा था । ये लो----- ये पड़ा सबकुछ......करवा लो खुद ही ......!!!---इतना कह कर सब कुछ वहीं छोड़-छाड़ वो चला जाता था ।

अपने बजट से जब मकान ले लिया तो मालविका बहुत खुश थी । मन के अरमान पूरा करने का समय आ गया था । सोचा अपनी पसंद के पर्दे लगाये । दिवाली पर दरवाजों पर लटकन लगा कर सजाइँ ।

लेकिन नितिन ने ये कह कर लटकन उतार कर फेंक दीं कि ये बेकार की चीज़ों का घर में क्या काम ? लोग गंद घर से निकालते हैं और तुम गंद घर में ला रही हो?

पर्दे बचपन से जिस रंग के पर्दों की ख़्वाहिश थी वैसे पर्दे लगाकर मालविका बहुत खुश थी । लेकिन नितिन ने खुंदक से पर्दे खींच कर उतारते हुए ये कह दिया कि -"क्या पुराने जमाने के पर्दे ले आयी हो?"

मालविका के कुछ बोलने से पहले ही हाई वॉल्यूम में साथ ये बोल दिया कि कोई कलह-क्लेश मुझे घर में नहीं चाहिए ।

उस दिन मालविका मन मसोस कर ही रह गयी और उसे अब समझ आ गयी थी कि इस घर में वो रह रही है उस पर उसका कोई हक नहीं था । वो यहाँ सिर्फ एक बंधुआ मजदूर की भांति ही थी ।

ये देख मालविका का मॉलकिंन होने का गरूर एक सेकेंड में ही चकनाचूर हो गया ।

दो बैरंग आँसू उसी वक़्त उसकी पलकों का साथ छोड़ उसके दामन को रगड़ते हुए सोफे पर लटक गए ।

उसने मन में सोचा कि--उसका उस मकान में शायद कोई योगदान था ही नहीं । बच्चों ने जो मकान के लिए अगर पैसे भेजे थे शायद उन पर भी उसका कोई अधिकार नहीं था । ज़िन्दगी के साठ बरस में से चालीस बरस इसी गलत-फहमी में ही उसने निकाल दिए कि वो एक दिन मॉलकिंन बनेगी ?

~~समाप्त~~

हर्ष महाजन
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