Friday, April 7, 2017

रात ग्यारह बजे ( एक लघु कथा )


रात ग्यारह बजे  (लघु कथा )

राजेश जैसे ही घर दाखिल हुआ, देखा सुषमा कान से फोन लगा चुपचाप खडी है जैसे दूसरी ओर से कोई बात कर रहा हो | खाना लगा दो बेगम ---कह वो अपने कमरे में कपडे बदलने चला गया | वापिस लौटा तो बेगम उसी तरह खडी मिली | उसने उसे पास जाकर हिलाया और पुछा क्या हुआ बेगम |

वह अचेतन अवस्था से बाहर आई तो उसे याद आया |

“तुम हमेशा से ऐसे करती आई हो | पापा भी बचपन से ऐसे ही पेश आते रहे हैं मुझसे | लगता है मैं तुम्हारी बेटी ही नहीं |” ---- कान में जैसे बम की आवाज़ हुई, सुषमा सन्न खडी की खडी रह गई काटो तो जैसे खून नहीं |

“कुछ नहीं बस ऐसे ही कुछ सोच रही थी | (कह , फोन क्रेडिल पर रख परेशान सी खाना परोसने हेतु रसोई में चली गयी )
इस बीच उसकी आखों के आगे आशु के जीवन का अब तक का सारा सफ़र गुज़र गया | उन्होंने अपनी यादाश्त के अनुसार उसके साथ कभी अन्याय नहीं होने दिया | अच्छे स्कूल में पढ़ाया, नम्बर कम होने के बावजूद अच्छे कालेज में डोनेशन देकर दाखिला दिलवाया | बैंक से लोन लेकर उसके पापा ने एम्०बी०ए० में दाखिला करवाया और उसी की पसंद के होनहार लड़के से शादी भी करवा दी | फिर ऐसी क्या बात थी जो आशु ने इतना सब कह दिया | खाना परोसते हुए वह नज़रे चुराती हुई जैसे ही मुड़ी राजेश समझ गया कि बेगम ज़रूर कुछ परेशान है | वो तो खाने की थाली परोस हमेशा साथ ही बैठ जाया करती थी | थाली एक तरफ कर बेगम को जैसे ही टोका – तो वो फफक पड़ी |
          उसी शाम जहाज़ की टिकट कटा दोनों बंगलौर पहुंचे | रात ग्यारह बज़ चुके थे | जैसे ही दूसरी मंजिल के फ़्लैट नम्बर २११ की घंटी बजाई, सुषमा बेहद घबराई और डरी हुई आँखों में खालीपन लिए राजेश के पीछे दुबक गयी | दिल जैसे बैठा जा रहा था,  | अपने ईष्ट को याद कर न जाने क्या-क्या सोचने लगी थी वो | राजेश ने एक हाथ से बैग थामे दूसरे हाथ से उसको सांत्वना देते, उसकी बाजू को दबाया | इतने में दरवाजा खुला – अंदर गुप अँधेरा और एक अजीब सा सन्नाटा | कोई शख्स दिखाई भी नहीं दिया | डर के मारे वो राजेश से चिपक सी गयी | दोनों शांत से धीरे-धीरे दरवाजे को धकेलते जैसे ही आगे बढे – एक काला साया लपका और दोनों को जकड  लिया | सुषमा की एक लम्बी चीख संग घर की सारी लाईटें जगमगा उठीं | सारा परिवार “राजेश और सुषमा” की सिल्वर जुबली के उपलक्ष में एकत्रित था, डी०जे० गूँज उठा और बधाइयों के बीच सभी थिरकने लगे | राजेश ने सुषमा को संभालते हुए अपने बैग से हीरों जड़ित वो हार निकाला और सुषमा के गले में पहनाते हुए तब तलक बाहों में भर खडा रहा जब तलक सुषमा की साँसे काबू में नहीं आ गयी |
रोते हुए सुषमा बस इतना ही बोल पाई --- राजेश तुम भी !!

____________हर्ष महाजन

                                     --: ० :----

12 comments:

  1. बहुत उम्दा हर्ष जी।
    आपको पहली बार पढ़ा। पढ़कर प्रसन्नता का अनुभव हुआ।
    काव्य गरिमा और एकता की मिसाल में मेरी कविताएं भी प्रकाशित हुईं थी।

    ReplyDelete
  2. बहूत खूब लिखा है आपने एक बार को तो सिहरन मच गई फिर यकायक surprise ....👍👍

    क्या इस कहानी को मैं अपने ब्लॉग पर डाल सकता हूँ, आपकी आज्ञा अनुसार।

    मेरे ब्लॉग एक नई सोच पर आपका स्वागत है।

    http://eeknaisoch.blogspot.com


    धन्यवाद आदरणीय

    ReplyDelete
    Replies
    1. Shukriya bahut bahut shukriya....
      Ji zaroor daaliye

      Delete
  3. मन को छूती सराहनीय लघुकथा आदरणीय सर।
    सादर

    ReplyDelete
  4. वाह!!!
    बहुत ही सुन्दर लाजवाब लघुकथा
    सचमुच बहुत बड़ा सरप्राइज!!!

    ReplyDelete
  5. इतने में दरवाजा खुला – अंदर गुप अँधेरा और एक अजीब सा सन्नाटा | कोई शख्स दिखाई भी नहीं दिया | डर के मारे वो राजेश से चिपक सी गयी | दोनों शांत से धीरे-धीरे दरवाजे को धकेलते जैसे ही आगे बढे – एक काला साया लपका और दोनों को जकड लिया | सुषमा की एक लम्बी चीख
    नो कमेंट्स...

    ReplyDelete
  6. किस कदर सस्पेंस रखा । अंत में चेहरे पर मुस्कान आ गयी ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया आपको लघु कथा पसंद आई । आजकल मेरा पूरा
      ध्यान ग़ज़ल की ओर केंद्रित हौ । आते रहिएगा संगीत जी ।
      सादर

      Delete