Friday, May 1, 2015

कटी पतंग


  (कहानी)
हर्ष महाजन
प्रकाशित
1988
 

      कटी पतंग
                          
सुलेखा अपने घर का सारा काम काज निपटा कर दहलीज़ पर अपने बेटे को ले आ बैठी | यही समय होता था की वह थोडा आराम कर लिया करती थी | धूप सेकने का कुछ समय वह रोज़ निकाल लिया करती थी | आराम करते हुए वह अपने पति का स्वेटर भी आजकल बुन रही थी | बेटा राजू, जो इस समय आठवें साल से गुजर रहा था, अपने दोस्तों के साथ घर के आगे बने मैदान में पतंग उड़ाते हुए बच्चों को देख रहा था | वह कभी मैदान में पतंग उडाती हुई किसी एक टोली के पास खड़ा हो जाता तो कभी दूसरी | उसे पतंगों से इतना प्यार था की वह तब तक घर नहीं लौटता, जब तक आसमान में एक भी पतंग दिखाई देती |

               
   सुलेखा स्वेटर बुनते हुए अपने बच्चे को निहार रही थी और अपने भविष्य के सपनों में अपने बुदापे का सहारा देख रही थी | वह अपनी गुजरती ज़िन्दगी से बहुत ही खुश थी | उसका पति, घर से चार किलोमीटर दूर एक लक्कड़ काटने वाली फेक्टरी में काम करता था, जहाँ से उसे अच्छी तनख्वाह मिल जाती थी | घर परिवार का खर्च उठाकर वह दोनों बहुत सा हिस्सा बचा भी लिया करते थे | परिवार में तीन लोगों के इलावा और कोई भी नहीं था उनमें वो खुद , उसका पति, राम किशन और बेटा  राजू | पति रामकिशन बड़ा ईमानदार और मेहनती व्यक्ति था | उसका मालिक, जिसकी फेक्टरी में वह काम किया करता था रामकिशन के  काम से बहत खुश था इसलिए मालिक ने उसको गाज़ियाबाद के छोटे से गाँव, महाराजपुर में  दो कमरों का मकान रहने के लिए दे दिया था | इसकी वज़ह से उसकी आर्थिक स्थिति काफी मज़बूत हो गई थी | उनकी सम्पन्नता देखकर आसपास की पडौसन उससे जला करती थीं | इसको भांपकर वह मन ही मन खुश भी हुआ करती थी | उसके ख़्वाबों की लड़ी तब टूटी जब राजू रोता हुआ आया और माँ से बोला माँ-माँ मुझे भी पतंग ले दो न | वो लोग मुझे पतंग नहीं दिखाते | सुलेखा बोली कोई बात नहीं बेटे पापा अभी शाम को आ जायेंगे और तुझे बहुत सारी  पतंग ले देंगे | अच्छे बच्चे रोते नहीं हैं बेटे | माँ के प्यार से पुचकारने से बच्चा चुप होकर वापिस बच्चो के बीच चला गया | सुलेखा ने जाते हुए बच्चे से नज़र हटा कर अपनी कलाई पर बंधी घड़ी पर नज़र डाली जिसमें  दुपहर के दो बजे थे | उसके पति को घर लौटने में अभी चार घंटे बाकि थे | वह अभी सोच ही रही थी कि बाज़ार जाकर अगले दिन के लिए तरकारी भाजी आदि ले आये | क्यूंकि शाम को उसके पति उसे घर से बाहर निकलने नहीं देते थे | इतने में पडौस में रहने वाली एक महिला उसके पास आकर बोली भई सुलेखा क्या कर रही हो ?  सुलेखा बोली – करना क्या है रामकली, बस शाम तक का वक़्त काट रही हूँ | "भई लगता है कि मियाँ बिन दिल नहीं लगता"—रामकली चटकारे लेते हुए बोली | "नहीं- नहीं  ऎसी बात तो नहीं है"--- बात को आगे न बढ़ाते हुए सुलेखा ने कहा – "तुम बताओ तुम कहाँ चली इतना सज़-धज कर" | रामकली बोली--" मैं तो लाजो को लेने उसके घर जा रही हूँ | वहां से हम दिल्ली में चांदनी चौक जायेंगे | वहाँ सुना है एक योगी महाराज आये हैं | जो कि बिना कुछ लिए दिए भविष्य का सब हाल बता देते हैं | अगर तुमने चलना है तो चल हमारे संग |तेरे उनके आने से पहले ही घर लौट आयेंगे" |
                सुलेखा को अपने भविष्य के बारे में जानने में वैसे भी बड़ी जिज्ञासा लगी रहती थी | सो वह दो मकान छोड़ कर, अपने पति रामकिशन के दोस्त रमेश के यहाँ गई और राजू का ध्यान रखने को कहकर, रामकली के साथ चल दी | वहाँ से तीनों सहेलियां दिल्ली के चांदनी चौक में उस योगी के पास पहुंची |  वहाँ काफी संख्या में लोग बैठे थे | लेकिन इसके बावजूद वहाँ शोरगुल नहीं था | वह तीनों भी उनके बीच जा बैठी | योगी महाराज आँख बंद कर अपना आसन जमाये बड़े सहज भाव से अपने एक शिष्य के द्वारा एक एक करके सब को अपने पास बुला रहे थे | योगी महाराज की उम्र लगभग ३० और ३५ वर्ष के बीच लग रही थी | देखने में एक साधारण से पुरुष लग रहे थे | उनके और लोगों के बीच इतना फासला ज़रूर था कि उनके पास बैठे व्यक्ति के अतिरिक्त उनकी आवाज़ किसी दुसरे को सुनाई नहीं पड रही थी | पता नहीं सुलेखा को अपने भविष्य के बारे में योगी के पास जाते हुए बहुत डर सा महसूस हो रहा था | धड़कन अभी से तेज़ हुई जा रही थी | हालांकि अभी ये भी मालूम नहीं था कि उसका नम्बर आएगा भी के नहीं | अभी वह ये सब सोच ही रही थी कि गुरु जी के शिष्य ने आवाज़ लगाई ‘सुलेखा देवी’ !!!
              सुलेखा, अपना नाम उस व्यक्ति के मुख से सुनकर हैरान हो कर इधर-उधर देखने लगी | वह सोचने लगी कि किसी ओर सुलेखा देवी को बुलाया होगा, लिहाजा वो अपनी जगह पर वैसे ही बैठी रही | दो तीन आवाज़ लगाने पर भी जब वह नहीं उठी तो योगी महाराज जी ने खुद सुलेखा देवी की तरफ उंगली का इशारा करते हुए आगे आने को कहा | यह देख सुलेखा ने पहले पीछे मुड कर देखा फिर अपने वक्ष पर हाथ रख कर , अपने को संबोधित कर कहा ‘मैं’ ??  दिमाग से चारो खाने चित वो उनकी ओर चल दी और पास जाकर हाथ जोड़कर बैठ गई | योगी महाराज ने उसी प्रकार अपनी आँखें मूँद ली और कुछ क्षण बाद सुलेखा को बोले –बेटा तुम सीधे घर जाओ | तुम्हारी इस वक़्त घर में बहुत आवश्यकता है | सुलेखा पहले ही बहुत घबरा रही थी | अब इस बात पर महाराज जी के इस कथन से पसीना-पसीना हो गई | चाहते हुए भी मुँह से एक शब्द भी न निकल पाया | बिना आँखे खोले योगी महाराज बोले –बेटा  ज़िंदगी में घबराना नहीं , अभी बहुत कुछ झेलना बाकी है | बहुत लम्बी ज़िंदगी है जो अकेले ही गुजारनी है | घर जाओ वहां तुम्हारी इस वक़्त बहुत ज़रुरत है |
                   सुलेखा घब्रई हुई वहां से अपनी सहेलियों की परवाह किये बिना निकली और बस अड्डे से बस पकड़ अपने गाँव आकर रुकी | घर के नज़दीक पहुंची तो उसके होश फाख्ता हो गए | उसके घर के आसपास काफी भीड़ थी | उसका दिल धक् से रह गया | वहां लोग उसी के इंतज़ार में थे | उनमें से एक शख्स ने उसे झट से बताया कि उसके पति राम किशन का आरे से, एक हाथ और एक पाँव कट गया है | उसे अस्पताल ले गए हैं | ये सुन उसके हाथ पाँव फूलने लगे | लोगों के दिलासा देने पर अधमरी सी सुलेखा किसी तरह उस अस्पताल पहुंची | वहाँ की खस्ता हालत देखकर सुलेखा ने हिम्मत दिखाकर उसे एक प्राईवेट अस्पतान में भर्ती करवाया |
                  ज़िंदगी और मौत में काफी कशमकश के बाद अपाहिज होकर एक हाथ और एक पाँव के साथ तीन महीने बाद वह घर वापिस घर लौटा | अप्रैल का महीना था..गर्मी बढ़ने लगी थी | अगले तीन महीनों में घर की सारी  जामा पूँजी बीमारी में समाप्त हो चुकी थी | इस हालत में रामकिशन का मालिक कब तक साथ निभाता | लिहाजा उसने भी मकान खाली करने का नोटिस दे दिया | नौकरी तो पहले ही जा चुकी थी अब बे-घर होने का समय भी आ गया  |किसी तरह सुलेखा ने रिश्तेदारों की मार्फ़त दिल्ली में करोल बाग़ के नज़दीक  देवनगर में एक कमरा किराए परले लिया | जिसका किराया मकान मालिक के घर बर्तन सफाई तथा खाना पकाने के काम से चुकाना था | इसके इलावा दो सो रूपये तय हुआ | यह कमरा उस मकान की चौथी मंजिल पर था | कमरे के आगे खाली छत थी | जहां रामकिशन बैसाखी के सहारे इधर-उधर घूम लेता था | वह अपनी ज़िंदगी से काफी बेजार हो चूका था | तथा स्वभाव से भी काफी चिडचिडा भी हो चुका था | बात-बात पर अपनी पत्नी और बच्चे को डांट दिया करता था | सुलेखा सुबह शाम नीचे मालिक के यहाँ काम करती तथा खाने के वक़्त ऊपर अपने पति तथा बच्चे को खाना दे जाया करती |
                 इसी बीच दो महीने और बीत गए | कड़कती धुप शुरू हो चुकी थी | बरसाती में वैसे भी गरमी जियादा लगती थी | इस तरह ज़िंदगी बीतने लगी | राजू रोज़ सकूल से आता और छत पर पतंगों की ओर देखता रहता | कभी-कभी कोई पतंग उसकी छत पर आ जाती , वह बहुत खुश हो जाता | उसे इधर-उधर भाग कर कभी उडाता और कभी छत से नीचे की ओर लटकाता | पतंग फट जाती तो पापा के पास पतंग की फरमाईश करता | पापा उसे डांट देते तो बहार लौट आता | फिर मायूस होकर आसमान पर फिर से पतंगों को निहारता रहता | उसकी छत काफी हवादार थी | क्यूंकि उनके मकानों के दोनों ओर कोई मकान नहीं था | एक तरफ सड़क थी तथा दूसरी और एक मंजिल का खाली मकान था जो एक खंडहर में तब्दील हो चूका था क्यूंकि उसमें कोई रहता नहीं था | उसकी मकान की छत भी टूटी हुई थी | राजू कभी सड़क की तरफ झांकता कभी उस खंडहर की तरफ | क्यूंकि जो पतंग कट कर आती – वह कभी सड़क की तरफ चली जाती तो कभी उस खँडहर में गिर जाती | राजू मन मसोस कर रह जाता और मायूस होकर उस खंडहर में पड़ी पतंग को देखता रहता | उसके मायूस चेहरे को देखकर उसकी माँ मन ही मन घुट्ती रहती---- मगर क्या करती | उसके लिए गृहस्ती चलाना इतना मुश्किल हो गया था कि पतंग खरीदने के लिए चाह  कर भी पैसे नहीं निकाल पाती थी | राजू माँ के पास पतंग के लिए मांग करने आता तो माँ उसे अगले दिन लाने के लिए कह कर बहला फूसला देती | राजू अगले दिन की इंतज़ार में,  वो दिन भी ख़ुशी से गुज़ार देता |
                         दिन पर दिन बीतते पतंगों को उड़ाने का महान दिन १५ अगस्त समीप आ गया | सुबह-सुबह अर्थात १४  अगस्त को जब राजू उठा तो उठते ही माँ से कहने लगा कि  माँ – माँ आज तो मुझे पतंग ले दोगी न ? मैं कल पतंग उड़ाऊँगा कल १५ अगस्त है न | माँ ने बच्चे के सर पर हाथ फेरकर कहा – हाँ बेटे तू जब स्कूल से आएगा तो तुझे बाज़ार से बहुत सी पतंगे ला दूंगी | राजू ख़ुशी ख़ुशी स्कूल चला गया और दोस्तों को अपनी ख़ुशी में शामिल किया | स्कूल में १४ अगस्त को आज़ादी का कार्यक्रम था जिसमें उसने भी भाग लिया और उसने पतंग के ऊपर ही एक कविता भी वहाँ सुनाई | जिसके बोल थे ---


मेरे घर जब आई पतंग
पापा को न भाई पतंग |
छुप-छुप मैंने जब उड़ाया,
खुशियों के रंग लाई पतंग |

एक छोटा सा इनाम लेकर वो जब घर पहुंचा तो  माँ को चारपाई पर लेता देखकर थोडा घबरा सा गया | क्यूंकि अपनी छोटी सी ज़िंदगी में उसने माँ को इस समय कभी चारपाई पर आराम करते नहीं देखा था | वह जल्दी-जल्दी भागता हुआ माँ के पास आया और नन्हा सा इनाम माँ को दिखाते हुए पुछा माँ- माँ आपको क्या हुआ | सुलेखा ने उसका इनाम हाथ में लेकर देखा और शाबाशी दी और धीमी सी आवाज़ में बोली कुछ नहीं हुआ बेटा थोडा सा बुखार है | राजू मन ही मन उदास हो गया | उसकी सारी उमीदों पर पानी फिर गया | वो समझ चुका था कि अब उसकी पतंग नहीं आएगी | वह चुपचाप माँ के सर पर हाथ सहलाता हुआ छत की तरफ चल दिया | माँ का अहसास आँखों से टपकने लगा | लेकिन वह कुछ नहीं कर सकती थी | पैसे के अभाव में उसे बच्चे के सामने बीमारी का नाटक करना पड़ेगा ...ऐसा कभी उसने सपने में भी नहीं सोचा था | अगला दिन १५ अगस्त था | सूबह -सुबह राजू  ७  बजे उठा और अपने लिहाज़ से सबसे अच्छे कपडे निकाल कर नहा धोकर तैयार हो गया और छत पर खड़ा हो गया | बहुत सारी पतंगे आसमान में झूल रही थीं | हवा काफी तेज़ थी | उसकी नज़र एक रंग बिरंगी पतंग पर थी | जो देखने में बहुत सुंदर नज़र आ रहा ही | वह पतंग उसकी छत के आसपास इधर-उधर मंडरा रही थी | उसकी बड़ी तमना थी कि यह पतंग उसके पास होती | क्यूंकि वह कई पतंगों को काट रही थी और जो पतंग कट जाती वह पतंग उसकी छत के ऊपर से होकर गुज़र जाती | राजू छत पर इधर-उधर भागता मगर कोई भी पतंग उसके हाथ न लगती | माँ जब ये सब देखती उसकी आँखों में हलके से आंसू गाल से नीचे लुडक जाते | आज वह राजू के लिए मालिक से छुट्टी भी ले चुकी थी और चारपाई पर बैठी राजू को ही देख रही थी | राजू इधर-उधर भागकर फिर उसी रंग-बिरंगी पतंग की तरफ देखने लगता जो उसके मन-पसंद की थी | इतने में उसने देखा वह पतंग किसी ओर पतंग के साथ गुत्थमगुत्था होकर उसकी छत की तरफ झुकी और कट गई | राजू का दिल धक् से रह गया और वह उस पतंग की तरफ लपका | वह पतंग उस खंडहर के ऊपर लहर रही थी | राजू ने अपना हाथ आगे बढाया | राजू को इस तरह पतंग के पीछे भागता देखकर सुलेखा एकदम उसकी ओर लपकी मगर तब तक राजू की एक लंबी चीख माँ की चीख के साथ मिल चुकी थी | इतनी भयानक चीख सुन बिजली की फूर्ती से राजू के पापा ने अपनी बैसाखी उठाई और वह भी उस ओर लपके जिस ओर की मुंडेर से राजू नीचे गिरा था | भावावेश में जैसे ही उसने नीचे झाँका , नीचे का द्रश्य देखकर रामकिशन वहीँ ढेर हो गया | सुलेखा यह सब देख खामोश हो गई | क्यूंकि अब उसकी ज़िंदगी एक कटी पतंग बन चुकी थी | वह देख रही थी जिस पतंग के पीछे राजू भागा था वही पतंग उसके शिथिल शरीर पर पड़ी थी |
             आज भी बरसों बाद उस योगी महाराज के शब्द उसके दिमाग में घुमते हैं कि        " ज़िंदगी में कभी घबराना नहीं | अभी बहुत कुछ झेलना बाकी है | बहुत लम्बी ज़िंदगी है जो अकेले गुजारनी है |"

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