शिखा आज सुबह उठी तो वो उदास थी । उसके चेहरे से ही पता लग जाता था कि उसका मूड ठीक नही है । न जाने उसको आज टेंशन सी महसूस क्यूँ हो रही थी । सर भी बहुत भारी था । वैसे तो दुपहर का खाना खाकर वह थोड़ा टहलकर थोड़ी देर अपने रूम में सुस्ताते हुए कोई न कोई मैगज़ीन पढ़ लिया करती थी और तब तक चार बज जाते थे फिर अपनी बालकॉनी में दो घंटे अपनी फ़ेवरिट सहेली के साथ उसे एन्जॉय कर के बिताना उसे अच्छा लगता था ।
लेकिन कल शाम को उसकी सहेली जिसे उसने चिंकी नाम दिया था वो आयी ही नहीं । कल रात होने तक शिखा बालकनी में उसका इंतज़ार करती रही थी मगर वो जानें क्यूँ नहीं आयी । उसे डर था कि उसे कुछ नुकसान न हो गया हो । उसके घर के सामने ही दूर एक पोल है जिस पर रोज एक चील आकर बैठा करती थी आज वो भी दिखाई नही दे रही । कभी-कभी जब शिखा बालकनी में नही होती थी तो वो चील भी आकर उस मिट्टी के बर्तन से पानी पी लिया करती थी ।
ये दिमाग़ में आते ही शिखा का सोच तंत्र कहीं ओर ही भटक गया । कहीं चील ने तो नहीं उसे झपट लिया । दिल घबरा उठा, बैचेनी इस कदर बढ़ गयी ये सोचकर अचानक ही उसकी आँखों से आंसू निकल आये ।
उसे उसके साथ बिताया हुआ हर लम्हा एक-एक कर याद आने लगा । कैसे चिंकी फुदक-फुदक कर दाना डालने से पहले ही शिखा के हाथों के पास से दाना मुँह में लेने की कोशिश करने लगती थी ।

उसकी कुछ सहेली चिड़ियां भी कभी कभी साथ आ जातीं । फिर आधा घंटा बालकनी में एन्जॉय कर के वो चली जाया करती थी ।
एक दिन शिखा के मन में ख्याल आया- "क्यों न उसके लिए बालकनी में ही चिंकी का एक घोंसला बना दिया जाय? फिर वो हमेशा उसके साथ ही रहा करेगी"
बस फिर क्या था शिखा ने उसके लिए बालकनी में एक गत्ते का डिब्बा जो घर में ब्रूकबोंड चाय का खाली हुआ था उसको दीवार पर टाँग कर फिक्स कर दिया था तो चिंकी ने चार पांच दिन तो उसका अच्छे से इंस्पेक्शन किया था फिर अपना घोंसला उसमें शिफ्ट कर लिया था । तब शिखा की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा था ।
अब तो उसके साथ मुलाकात आसान हो गयी थी । उसके दाईं आँख के ऊपर के हिस्से में काले रंग का धब्बा था जो अलग सा नज़र आता था जो उस पर बहुत सुन्दर लगता था ।
जब भी बालकनी के बनेरे पर बैठती गर्दन टेढ़ी कर शिखा की तरफ बड़े प्यार से देखती और उसके हाथ में दाना देखकर औऱ भी नज़दीक आ जाती । इस तरह शिखा उसके साथ घंटो बिता देती । चिंकी को भी अब उससे डर नहीं लगता था ।
एक दिन मकान मालिक ऊपर किराया लेने के लिए आया तो उसने अपने फ्लैट की हालत चैक करने के लिए अंदर तक आकर देखा । तो वो बालकनी में भी आ गया । जब उसने शिखा को गोरैया से खेलते और उसको दाना डालते देखा तो उसका दिमाग ठनका । उसकी नज़र दीवार पर लटकती घास पर गयी तो उसे गुस्सा आ गया । उसने उधर चिड़िया का घोंसला देखा । फिर जब उस डिब्बे को देखा तो उसने शिखा को जोर-जोर से डाँटना शुरू कर दिया । फिर उसने वो किया जो उसे कभी नहीं करना चाहिए था ।
शिखा के लाख मना करने पर भी बालकनी से सफाई के नाम पर घोंसला उखाड़ कर उसने नीचे गली में फेंका दिया था । चिंकी चीं चीं कर तड़पती रही । कभी वो शिखा के कंधे पर बैठ गुहार लगाती तो कभी उस मकान मालिक के सर पर पंजा मार के बालकनी में लगे पंखें पर बैठ जाती ।
शिखा ने मॉलिक से लाख मिन्नतें की और सरकार के भी ऑर्डर का हवाला दिया लेकिन वो निर्दयी नहीं माना ।
शिखा के दिल को उस वक़्त बहुत बड़ा धक्का लगा था । उसने कई दिनों तक खाना नहीं खाया । उसकी रातों की उड़ गई थी । चिंकी की प्यारी-प्यारी आँखों को और उसकी चिरपिंग की आवाज को याद कर शिखा काफ़ी आंसू बहा लिया करती थी ।
घंटो बालकनी में बैठ उसका इंतजार कर-कर के जब वो थकने लगी थी । चिंकी को कितना बुरा लगा होगा । शायद वो शिखा से भी नाराज हो गई थी ।
शिखा को भी लगा कि उनके साथ बहुत ज्यादती हुई थी । शिखा ने ही तो उसे शिफ्ट होने के लिए प्रेरित किया था । अब उसे विश्वास हो चला था कि उसने अब अपना नया घर कहीं दूर ही बना लिया लगता है । तो उसने भी धीरे-धीरे उसके आने की उम्मीद छोड़ दी थी । छः महीने बीत चुके थे । अब वो चिंकी की याद धूमिल हो चुकी थी । लेकिन जब भी याद आती तो एक गहरी टीस दे जाती ।
लेकिन फिर भी वो बालकनी में कभी-कभी वैसे ही बची रोटी के टुकड़े औऱ कभी कनक की छटाई से निकले छोटे-छोटे दाने फेंक आया करती थी । कई और पक्षी भी आ जाते, खाते और उड़ जाते । लेकिन शिखा उनकी ओर कभी ध्यान न देती ।
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उस दिन शिखा को बुखार था । उसकी मम्मी तीन दिन से डॉक्टर की दवाई दे रही थी । लेकिन कोई आराम नहीं आ रहा था । बुखार दिन पर दिन बढ़ ही रहा था । बुखार अब दो से कम हो ही नही रहा था । शिखा मम्मी को कहती कि उसे बालकनी में बिठा दो । उसे अच्छा लगेगा । मम्मी उसे कहती जब थोड़ा ठीक हो जाओगी तो चली जाना । उसने फिर वहां दाना डालने के लिए जाना चाहा तो उसकी मम्मी ने बहुत तसल्ली दी कि उसकी जगह वो दाना डाल देगी । चिंता न करो ।
इसी दिनचर्या में उस दिन शिखा की मम्मी ही दाना डालने के लिए बालकनी में आयी तो उसे चिंकी की एक झलक दिखाई दी । माँ की लगाई तुलसी पर बैठी चिंकी उसके बीज चुन-चुन कर खा रही थी । विभा ने बड़े ध्यान से उसे देखा उसके दाएं आंख के ऊपर काला धब्बा भी था । काला धब्बा देखते ही विभा को शिखा की चिंकी का ख्याल आया तो उसने वहीं से शिखा को आवाज लगाई-- "ओ शिखा !!!!??? चिंकी आ गयी रे~~~~~~? जल्दी आकर देख तो.........?"
आज विभा को भी उसे देख खुशी हो रही थी । वो वहीं खड़ी उसे निहारने लगी । उसने भी उसे बड़े ध्यान से देखा तो उसे वो बहुत सुंदर लगी । उसे भी उस पर प्यार आने लगा था ।
शिखा ने जब माँ की ज़ुबान से चिंकी का नाम सुना तो वो सब कुछ भूल गयी । उसने चादर उतार कर साइड में फेंकी औऱ सब कुछ भूल कर बालकनी की ओर भागी ।
बालकनी के दरवाजे पर खड़ी हो शिखा ने जब उसकी ओर देखा तो भाव विभोर हो गयी । उसकी आँखों से मुसलसल आंसुओं की धाराएं बहने लगीं । मां विभा ने जब देखा तो उसकी आंखें भी शिखा को भावुक देख नम हो गईं ।
चिंकी का ध्यान भी अंदर की तरफ शिखा की पर ही टिका था । शायद वो भी शिखा को ही ढूँढ रही थी । शिखा की खुशी देख चिंकी भी समझ गयी थी वो फिर उसके नज़दीक आकर फुदकने लगी और उसके आस पास उड़ उड़ कर इधर उधर होने लगी । वो भी बही खुश नजर आ रही थी ।
बस कुछ ही पलों में चिंकी भी फुर्र फुर्र करती शिखा के कंधे पर आ बैठी और उसके कान से लटक रहे बूंदों को टच कर के फ़ूदक कर अपना प्यार दिखाने लगी ।
शिखा ने फिर दाना खिलाने के लिए हाथ आगे बढ़ाया । चिंकी ने दाना चुगा और एक कोने में बैठी दो छोटी छोटी चीं चीं करती चिड़ियों के मुँह में दाना डाल कर खिलाने लगी थी । शायद वो उसके बच्चे थे । शिखा ने अंदाजा लगाया कि इतने दिनों चिंकी अपने बच्चों की खातिर ही नही आ पाई होगी ।
उस दिन घंटो बालकनी में बैठ दोनों एक दूसरे के साथ खेलते रहे । शाम तक उसका बुखार छूमंतर हो गया था । मां विभा भी बहुत खुश थी । अब माँ उसे कभी भी बालकनी में जाने से नही रोकती थी । बल्कि उसको याद दिलाती थी।
अब फिर उसकी वही ड्यूटी और रूटीन हो गयी थी । अब तो वो उससे बातें भी कर लिया करती थी । शिखा उससे पूछती --"और खाना चाहिए?" वो फौरन चीं चीं कर के रिप्लाई देती । अगर उसका पेट भरा होता तो वैसे ही उसकी ओर प्यार से देखती रहती और चुप रहती ।
ये सिलसिला अब रोज़ चलने लगा था । अब तो चिंकी के साथ उसका ऐसा याराना था कि उसको छोड़ एक दो दिन के लिए अब कहीं बाहर भी नहीं जा सकती थी ।
लेकिन फिर एक दिन शिखा हाथ में दाना लिए इंतज़ार करती रही पर चिंकी नहीं आयी ।
फिक्र में उसने उस दिन दुपहर का खाना न के बराबर ही खाया था और बिना टहले और बिना आराम किये वो अपनी बालकॉनी में जाकर चेयर बिछाई और बैठ गयी ।
उसे मालूम था कि वो चार बजे से पहले नहीं आती थी और अभी तो सिर्फ दो ही बजे थे । लेकिन उसे फिक्र थी कहीं वो कल जल्दी आकर न चली गयी हो ? उसके मन में भांति-भांति के प्रश्न जन्म लेने लगे थे ।
इतने में माँ की आवाज आई--"बेटा शिखा कहाँ हो?"
"यहाँ हूँ मम्मी बालकनी में"
"इतनीं धूप में वहाँ क्या कर रही हो ? इस वक़्त कोई भी परिंदा अपना घोंसला नहीं छोड़ता । सारा दिन घर का काम करके थक गयी होगी बेटा थोड़ा आराम कर लो ।"
"नहीं मम्मी लगता है चिंकी कल जल्दी आई थी, इसलिये नहीं मिल पाई न"
"चल छोड़ न कल नहीं आयी तो क्या हुआ? कहीं और दाना पानी मिल गया होगा तो नहीं आयी होगी? "--लेकिन कहते हुए मां को फिक्र हो रही थी कि कहीं शिखा फिर बीमार न हो जाये ?
मम्मी के इस तरह बात करने पर शिखा को यूँ लगा जैसे उसको किसी ने जोर से थप्पड़ मार दिया हो ।
शिखा पिछले छः महीने से बिना नागा उसे रोटी के छोटे छोटे महीन दाने जैसे गोलियां बना कर खिलाती आयी थी । वो भी बड़े प्यार के साथ अपनी एक टांग वाली सहेली के साथ फुदक-फुदक कर दाना खाती ।
फिर कभी उसके मोतीये के पौधे की टहनी पर बैठती और झूल कर खुश होती । उसकी सहेली एक टांग होने की वजह से टहनी पर लटक कर झूलती तो चिंकी उसे अपनी चोंच मार कर मना करती । जैसे कह रही हो कि पौधा खराब हो जाएगा । फिर कभी उसके लिए रखा पानी के बर्तन पर अठखेली करती पानी पीती और फुदक कर बालकनी में कभी इधर कभी उधर बैठती ।
शिखा भी उसके पीछे-पीछे कभी इधर कभी उधर । चिंकी को भी अब शिखा से डर नहीं लगता था । उसे भी पता चल गया था कि वो उसकी दोस्त है ।
माँ ने जब ऐसे कहा तो शिखा ने भी जोश में कहा- "नहीं मम्मी शाम का नाश्ता वो मेरे साथ ही करती है ।"
"फिर कल क्यों नहीं आयी ?"--विभा बोली ।
शिखा मम्मी की बात सुनकर फिर चुप हो गयी और फट उसकी नज़र अपनी घड़ी पर गयी अभी तीन बजे थे । लेकिन उसने चेयर से उठकर अपनी बालकनी से बाहर झाँककर देखा तो कुछ गोरैया जो चिंकी के साथ ही कभी कभी आया करतीं थी वो शिखा को नज़र आयीं । उसका दिल धक से रह गया । वो सन्न सी वहीं खड़ी रह गयी ।
चिंकी उनके साथ क्यों नहीं थी । थोड़ी देर में वो लंगड़ी, एक टाँग वाली गोरैया बालकनी में अकेले ही आ गयी और बनेरे पर चुपचाप बैठ गयी ।आगे कभी व्व अकेले नहीं आयी थी ।
दाना पड़ा था लेकिन वो खा नहीं रही थी । कुछ ही पलों में चिंकी के वो दोनों बच्चे भी आ गए ।
शिखा कि ओर वो लंगड़ी चिड़िया देखे जा रही थी । उसकी आँखों में आंसू साफ झलक रहे थे । शिखा को उसने संदेसा दे दिया था ।
वो सब कुछ बता देना चाहती थी । वो लंगड़ी चिड़िया भरी हुई आंखें लेकर अब उसके बनेरे पर बैठ गयी थी जैसे वो भी शिखा के साथ मातम मना लेना चाहती हो ।
आज फिर शिखा उदास हो चुकी थी ।
अब वो लंगड़ी चिड़िया रोज आने लगी थी ।
शिखा उसे भी वैसे ही दाना पानी डालती । अब
शिखा धीरे-धीरे उसकी बातें भी समझने लगी थी । अब वो उनको लंगड़ी नहीं बल्कि पिंकी बुलाने लगी थी ।

लेकिन चिंकी की जगह कोई नहीं ले सकता था ।
लेकिन अब शिखा कभी बालकनी में अपनी उस चेयर पर नहीं बैठी थी । उसे मालूम था उसके चेहरे की मुस्कराहट चाह कर भी कभी वापिस नहीं आ सकती थी ।
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क्रमशः
ह्रदय स्पर्शी कहानी,हम कब अंजाने में पशु पंछी के स्नेह में बंध जाते हैं हमें ही नहीं पता चलता,आदरणीय शुभकामनाएँ
ReplyDeleteशुक्रिया आपकीं आमद और सुंदर शबसों के लिए
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