Sunday, March 5, 2023

शिखा और चिंकी







शिखा आज सुबह उठी तो वो उदास थी । उसके चेहरे से ही पता लग जाता था कि उसका मूड ठीक नही है । न जाने उसको आज टेंशन सी महसूस क्यूँ हो रही थी । सर भी बहुत भारी था । वैसे तो दुपहर का खाना खाकर वह थोड़ा टहलकर थोड़ी देर अपने रूम में सुस्ताते हुए कोई न कोई मैगज़ीन पढ़ लिया करती थी और तब तक चार बज जाते थे फिर अपनी बालकॉनी में दो घंटे अपनी फ़ेवरिट सहेली के साथ उसे एन्जॉय कर के बिताना उसे अच्छा लगता था ।

लेकिन कल शाम को उसकी सहेली  जिसे उसने चिंकी नाम दिया था वो आयी ही नहीं । कल रात होने तक शिखा बालकनी में उसका इंतज़ार करती रही थी मगर वो जानें क्यूँ नहीं आयी । उसे डर था कि उसे कुछ नुकसान न हो गया हो । उसके घर के सामने ही दूर एक पोल है जिस पर रोज एक चील आकर बैठा करती थी आज वो भी दिखाई नही दे रही । कभी-कभी जब शिखा बालकनी में नही होती थी तो वो चील भी आकर उस मिट्टी के बर्तन से पानी पी लिया करती थी ।

ये दिमाग़ में आते ही शिखा का सोच तंत्र कहीं ओर ही भटक गया । कहीं चील ने तो नहीं उसे झपट लिया । दिल घबरा उठा, बैचेनी इस कदर बढ़ गयी ये सोचकर अचानक ही उसकी आँखों से आंसू  निकल आये ।

उसे उसके साथ बिताया हुआ हर लम्हा एक-एक कर याद आने लगा । कैसे चिंकी फुदक-फुदक कर दाना डालने से पहले ही शिखा के हाथों के पास से दाना मुँह में लेने की कोशिश करने लगती थी ।






उसकी कुछ सहेली चिड़ियां भी कभी कभी साथ आ जातीं ।  फिर आधा घंटा बालकनी में एन्जॉय कर के वो चली जाया करती थी ।

एक दिन शिखा के मन में ख्याल आया- "क्यों न उसके लिए बालकनी में ही चिंकी का एक घोंसला बना दिया जाय? फिर वो हमेशा उसके साथ ही रहा करेगी"

बस फिर क्या था शिखा ने उसके लिए बालकनी में एक गत्ते का डिब्बा जो घर में ब्रूकबोंड चाय का खाली हुआ था उसको दीवार पर टाँग कर फिक्स कर दिया था तो चिंकी ने चार पांच दिन तो उसका अच्छे से इंस्पेक्शन किया था फिर अपना घोंसला उसमें शिफ्ट कर लिया था । तब शिखा की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा था ।

अब तो उसके साथ मुलाकात आसान हो गयी थी । उसके दाईं आँख के ऊपर के हिस्से में काले रंग का धब्बा था जो अलग सा नज़र आता था जो उस पर बहुत सुन्दर लगता था ।

जब भी बालकनी के बनेरे पर बैठती गर्दन टेढ़ी कर शिखा की तरफ बड़े प्यार से देखती और उसके हाथ में दाना देखकर औऱ भी नज़दीक आ जाती । इस तरह शिखा उसके साथ घंटो बिता देती । चिंकी को भी अब उससे डर नहीं लगता था ।

एक दिन मकान मालिक ऊपर किराया लेने के लिए आया तो उसने अपने फ्लैट की हालत चैक करने के लिए अंदर तक आकर देखा । तो वो बालकनी में भी आ गया । जब उसने शिखा को गोरैया से खेलते और उसको दाना डालते देखा तो उसका दिमाग ठनका । उसकी नज़र दीवार पर लटकती घास पर गयी तो उसे गुस्सा आ गया । उसने उधर चिड़िया का घोंसला देखा । फिर जब उस डिब्बे को देखा तो उसने शिखा को जोर-जोर से डाँटना शुरू कर दिया । फिर उसने वो किया जो उसे कभी नहीं करना चाहिए था ।

शिखा के लाख मना करने पर भी बालकनी से सफाई के नाम पर घोंसला उखाड़ कर उसने नीचे गली में फेंका दिया था । चिंकी चीं चीं कर तड़पती रही । कभी वो शिखा के कंधे पर बैठ गुहार लगाती तो कभी उस मकान मालिक के सर पर पंजा मार के बालकनी में लगे पंखें पर बैठ जाती ।

शिखा ने मॉलिक से लाख मिन्नतें की और सरकार के भी ऑर्डर का हवाला दिया लेकिन वो निर्दयी नहीं माना ।

शिखा के दिल को उस वक़्त बहुत बड़ा धक्का लगा था । उसने कई दिनों तक खाना नहीं खाया  । उसकी रातों की उड़ गई थी ।  चिंकी की प्यारी-प्यारी आँखों को और उसकी चिरपिंग की आवाज को याद कर शिखा काफ़ी आंसू बहा लिया करती थी ।

घंटो बालकनी में बैठ उसका इंतजार कर-कर के जब वो थकने लगी थी । चिंकी को कितना बुरा लगा होगा । शायद वो शिखा से भी नाराज हो गई थी ।

शिखा को भी लगा कि उनके साथ बहुत ज्यादती हुई थी । शिखा ने ही तो उसे शिफ्ट होने के लिए प्रेरित किया था । अब उसे विश्वास हो चला था कि उसने अब अपना नया घर कहीं दूर ही बना लिया लगता है । तो उसने भी धीरे-धीरे उसके आने की उम्मीद छोड़ दी थी । छः महीने बीत चुके थे । अब वो चिंकी की याद धूमिल हो चुकी थी । लेकिन जब भी याद आती तो एक गहरी टीस दे जाती ।

लेकिन फिर भी वो बालकनी में कभी-कभी वैसे ही बची रोटी के टुकड़े औऱ कभी कनक की छटाई से निकले छोटे-छोटे दाने फेंक आया करती थी । कई और पक्षी भी आ जाते, खाते और उड़ जाते । लेकिन शिखा उनकी ओर कभी ध्यान न देती ।
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उस दिन शिखा को बुखार था । उसकी मम्मी तीन दिन से डॉक्टर की दवाई दे रही थी । लेकिन कोई आराम नहीं आ रहा था । बुखार दिन पर दिन बढ़ ही रहा था । बुखार अब दो से कम हो ही नही रहा था ।  शिखा मम्मी को कहती कि उसे बालकनी में बिठा दो । उसे अच्छा लगेगा । मम्मी उसे कहती जब थोड़ा ठीक हो जाओगी तो चली जाना । उसने फिर वहां दाना डालने के लिए जाना चाहा तो उसकी मम्मी ने बहुत तसल्ली दी कि उसकी जगह वो दाना डाल देगी । चिंता न करो ।

इसी दिनचर्या में उस दिन शिखा की मम्मी ही दाना डालने के लिए बालकनी में आयी तो उसे चिंकी की एक झलक दिखाई दी । माँ की लगाई तुलसी पर बैठी चिंकी उसके बीज चुन-चुन कर खा रही थी । विभा ने बड़े ध्यान से उसे देखा उसके दाएं आंख के ऊपर काला धब्बा भी था । काला धब्बा देखते ही विभा को शिखा की चिंकी का ख्याल आया तो उसने वहीं से शिखा को आवाज लगाई-- "ओ शिखा !!!!??? चिंकी आ गयी रे~~~~~~? जल्दी आकर देख तो.........?"

आज विभा को भी उसे देख खुशी हो रही थी । वो वहीं खड़ी उसे निहारने लगी  । उसने भी उसे बड़े ध्यान से देखा तो उसे वो बहुत सुंदर लगी । उसे भी उस पर प्यार आने लगा था ।

शिखा ने जब माँ की ज़ुबान से चिंकी का नाम सुना तो वो सब कुछ भूल गयी । उसने चादर उतार कर साइड में फेंकी औऱ सब कुछ भूल कर बालकनी की ओर भागी ।

बालकनी के दरवाजे पर खड़ी हो शिखा ने जब उसकी ओर देखा तो भाव विभोर हो गयी । उसकी आँखों से मुसलसल आंसुओं की धाराएं बहने लगीं । मां विभा ने जब देखा तो उसकी आंखें भी शिखा को भावुक देख नम हो गईं ।

चिंकी का ध्यान भी अंदर की तरफ शिखा की पर ही टिका था ।  शायद वो भी शिखा को ही ढूँढ रही थी । शिखा की खुशी देख चिंकी भी समझ गयी थी वो फिर उसके नज़दीक आकर फुदकने लगी और उसके आस पास उड़ उड़ कर इधर उधर होने लगी । वो भी बही खुश नजर आ रही थी ।

बस कुछ ही पलों में चिंकी भी फुर्र फुर्र करती शिखा के कंधे पर आ बैठी और उसके कान से लटक रहे बूंदों को टच कर के फ़ूदक कर अपना प्यार दिखाने लगी ।

शिखा ने फिर दाना खिलाने के लिए हाथ आगे बढ़ाया । चिंकी ने दाना चुगा और एक कोने में बैठी दो छोटी छोटी चीं चीं करती चिड़ियों के मुँह में दाना डाल कर खिलाने लगी थी । शायद वो उसके बच्चे थे । शिखा ने अंदाजा लगाया कि इतने दिनों  चिंकी अपने बच्चों की खातिर ही नही आ पाई होगी ।

उस दिन घंटो बालकनी में बैठ दोनों एक दूसरे के साथ खेलते रहे ।  शाम तक उसका बुखार छूमंतर हो गया था । मां विभा भी बहुत खुश थी । अब माँ उसे कभी भी बालकनी में जाने से नही रोकती थी । बल्कि उसको याद दिलाती थी।

अब फिर उसकी वही ड्यूटी और रूटीन हो गयी थी । अब तो वो उससे बातें भी कर लिया करती थी । शिखा उससे पूछती --"और खाना चाहिए?" वो फौरन चीं चीं कर के रिप्लाई देती । अगर उसका पेट भरा होता तो वैसे ही उसकी ओर प्यार से देखती रहती और चुप रहती ।

ये सिलसिला अब रोज़ चलने लगा था । अब तो चिंकी के साथ उसका ऐसा याराना था कि उसको छोड़ एक दो दिन के लिए अब कहीं बाहर भी नहीं जा सकती थी ।

लेकिन फिर एक दिन शिखा हाथ में दाना लिए इंतज़ार करती रही पर चिंकी नहीं आयी ।

फिक्र में उसने उस दिन दुपहर का खाना न के बराबर ही खाया था और बिना टहले और बिना आराम किये वो अपनी बालकॉनी में जाकर चेयर बिछाई और बैठ गयी ।

उसे मालूम था कि वो चार बजे से पहले नहीं आती थी और अभी तो सिर्फ दो ही बजे थे । लेकिन उसे फिक्र थी कहीं वो कल जल्दी आकर न चली गयी हो ? उसके मन में भांति-भांति के प्रश्न जन्म लेने लगे थे ।

इतने में माँ की आवाज आई--"बेटा शिखा कहाँ हो?"

"यहाँ हूँ मम्मी बालकनी में"

"इतनीं धूप में वहाँ क्या कर रही हो ? इस वक़्त कोई भी परिंदा अपना घोंसला नहीं छोड़ता । सारा दिन घर का काम करके थक गयी होगी बेटा थोड़ा आराम कर लो ।"

"नहीं मम्मी लगता है चिंकी कल जल्दी आई थी, इसलिये नहीं मिल पाई न"

"चल छोड़ न कल नहीं आयी तो क्या हुआ? कहीं और दाना पानी मिल गया होगा तो नहीं आयी होगी? "--लेकिन कहते हुए मां को फिक्र हो रही थी कि कहीं शिखा फिर बीमार न हो जाये ?

मम्मी के इस तरह बात करने पर शिखा को यूँ लगा जैसे उसको किसी ने जोर से थप्पड़ मार दिया हो ।

शिखा पिछले छः महीने से बिना नागा उसे रोटी के छोटे छोटे महीन दाने जैसे गोलियां बना कर खिलाती आयी थी । वो भी बड़े प्यार के साथ अपनी एक टांग वाली सहेली के साथ फुदक-फुदक कर दाना खाती ।

फिर कभी उसके मोतीये के पौधे की टहनी पर बैठती और झूल कर खुश होती ।  उसकी सहेली एक टांग होने की वजह से टहनी पर लटक कर झूलती तो चिंकी उसे अपनी चोंच मार कर मना करती । जैसे कह रही हो कि पौधा  खराब हो जाएगा । फिर कभी उसके लिए रखा पानी के बर्तन पर अठखेली करती पानी पीती और फुदक कर बालकनी में कभी इधर कभी उधर बैठती ।

शिखा भी उसके पीछे-पीछे कभी इधर कभी उधर । चिंकी को भी अब शिखा से डर नहीं लगता था । उसे भी पता चल गया था कि वो उसकी दोस्त है ।

माँ ने जब ऐसे कहा तो शिखा ने भी जोश में कहा- "नहीं मम्मी शाम का नाश्ता वो मेरे साथ ही करती है ।"

"फिर कल क्यों नहीं आयी ?"--विभा बोली ।

शिखा मम्मी की बात सुनकर फिर चुप हो गयी और फट उसकी नज़र अपनी घड़ी पर गयी अभी तीन बजे थे । लेकिन उसने चेयर से उठकर अपनी बालकनी से बाहर झाँककर देखा तो कुछ गोरैया जो चिंकी के साथ ही कभी कभी आया करतीं थी वो शिखा को नज़र आयीं । उसका दिल धक से रह गया । वो सन्न सी वहीं खड़ी रह गयी ।

चिंकी उनके साथ क्यों नहीं थी । थोड़ी देर में वो लंगड़ी, एक टाँग वाली गोरैया बालकनी में अकेले ही आ गयी और बनेरे पर चुपचाप बैठ गयी ।आगे कभी व्व अकेले नहीं आयी थी ।

दाना पड़ा था लेकिन वो खा नहीं रही थी । कुछ ही पलों में चिंकी के वो दोनों बच्चे भी आ गए  ।

शिखा कि ओर वो लंगड़ी चिड़िया देखे जा रही थी । उसकी आँखों में आंसू साफ झलक रहे थे । शिखा को उसने संदेसा दे दिया था ।

वो सब कुछ बता देना चाहती थी ।  वो लंगड़ी चिड़िया भरी हुई आंखें लेकर अब उसके बनेरे पर बैठ गयी थी जैसे वो भी शिखा के साथ मातम मना लेना चाहती हो ।

आज फिर शिखा उदास हो चुकी थी ।

अब वो लंगड़ी चिड़िया रोज आने लगी थी ।
शिखा उसे भी वैसे ही दाना पानी डालती । अब
शिखा धीरे-धीरे उसकी बातें भी समझने लगी थी । अब वो उनको लंगड़ी नहीं बल्कि पिंकी बुलाने लगी थी ।



लेकिन चिंकी की जगह कोई नहीं ले सकता था ।

लेकिन अब शिखा कभी बालकनी में अपनी उस चेयर पर नहीं बैठी थी । उसे मालूम था उसके चेहरे की मुस्कराहट चाह कर भी कभी वापिस नहीं आ सकती थी ।
💐💐💐
क्रमशः



गद्दार

 

देव नगर, करोलबाग की तंग सकरी गलियों की मिट्टी में नंगे बदन पला बड़ा राजू अब 12 साल का हो चुका था । चेहरे से सांवला, मगर सुंदर, इकहरा बदन, और हमेशा मुस्कराते हुए शरारतों में माहिर तो था ही, मगर पढ़ाई में भी वो अव्वल ही आया करता था ।

उसे अपनी लयाकत से ही मशहूर स्कूल रामजस हायर सेकेंडरी स्कूल न०-5 में दाखिला मिला था ।

दिनचर्या के हिसाब से स्कूल से आते ही गली के बच्चों को इकट्ठा करने में उसे सिर्फ पांच मिनट ही लगते थे । एक अलग स्टाइल से वो एक ऐसी सीटी बजाता की सभी बच्चे बाहर आ जाते और उसका धमाल चालू हो जाता ।

उसके पिता नवल चंदोलिया जी का हुनर भी बाकमाल था वो किसी के यहाँ चप्पलें बनाने का काम करते थे और उनकी बनाई हुई जनाना चप्पल का कोई मुकाबला ही नहीं था । जब भी वक़्त मिलता तो राजू भी उनके साथ चप्पलें बनाने चला जाया करता था ।

वो कभी किसी को भी किसी काम के लिए मना नहीं करता था । छोटा होते हुए भी सबको दुआ सलाम करता चलता था । सभी उसे प्यार करते थे ।

उन दिनों राजू के इम्तिहान नज़दीक थे  तो राजू के पिता ने उसे पढ़ाई में ज्यादा ध्यान देने को बोला और अपने साथ चप्पलें बनाने के लिए ले जाने से कुछ दिनों के लिए मना कर दिया तो राजू ने पूछ लिया --"क्यूँ पिता जी ?"

उसके अनपढ़ पिताजी ने जवाब दिया--"ये देख तेरे स्कूल से मेरे नाम ये पत्र आया है नुक्कड़ के मास्टर जी ने बताया कि उसमें लिखा है कि इस हफ्ते बहुत पढ़ाई होगी । अपने बच्चों को कोई भी छुट्टी नही करवाना ।"--अपनी अलमारी में से उन्होंने एक लिफाफा निकाला और राजू को दिखाते हुए बोले --"ये देखो"

राजू ने उनके हाथ में रामसज स्कूल नंबर-5 का लिफाफा देखा और हैरान हो गया कि ये लिफाफा सिर्फ उसके पिता जी के पास ही क्यों भेजा? बाकि तो किसी दोस्त ने इस बारे में उससे कोई बात नही की ?

उस वक़्त राजू कुछ बोला तो नहीं लेकिन उसका दिमाग़ घूम गया कि ऐसी कौन सी शरारत की कंप्लेंट थी जिस वजह से उसकी शिकायत घर पर आयी पिता जी को? इसी सोच में रात को वो सो गया।

राजू जब सुबह उठा और उठते ही उसने पहले अपना टाइम टेबल चेक किया ।

उस दिन बुधवार था  और टाइम टेबल में बुधवार को संस्कृत पढ़ाई जानी थी ।  छह घंटे संस्कृत में सिर खपाना था । तैयार होकर सुबह जब वो बाहर आया ।

तो

उसने उसी वक़्त गली में आकर अपनी चिरपरिचित सीटी बजाई । उसकी क्लास के चार बच्चे फौरन बाहर आ गए राजू शरारती और चंचल था मगर उडको सब चाहते थे ।

बगल के घर से सुंदर सबसे पहले बाहर निकल के आया । वो भी शरारती बच्चों में से एक था । उसने आते ही राजू को बोला--"यार आज संस्कृत की पढ़ाई है । इसके लिए इतनी देर बैठना अपने बस की बात नहीं है यार ? कुछ करो न भाई?"

"अरे संस्कृत तो सबसे आसान है ? उसमें तो मजा आता है बल्कि?"--राजू ने समझाते हए कहा ।

पीछे-पीछे अजय, पुन्नू और दिनेश भी आ गए । उन्होंने भी यही कहना शुरू कर दिया -- "सुंदर, सही कह रहा है राजू भाई । तुम आज तो कुछ ऐसा करो कि संस्कृत से जान छूट जाए आज बस!"

"तुम सब बेवकूफ हो क्या? पंद्रह दिन बाद इम्तिहान हैं और तुमको मज़ाक सूज रहा है?"

"छोड़ो यार तुम इम्तिहान विमतिहान!!  बस, कुछ करो तुम"--पुन्नू ने जोर देते हुए कहा ।

"चलो देखते हैं ।"--राजू ने कहा और फिर पूछा-"यार तुम पहले मुझे ये बताओ कि तुम्हारे पापा को भी कोई स्कूल से लेटर आया है क्या?"

अजय एकदम बोला--"तुम्हें तो ज़रूर आया होगा न?"

"हाँ, पर तुम्हें कैसे पता?"

"अरे सभी होशियार बच्चों को लेटर भेजे हैं कि वो स्कूल बिल्कुल न मिस करें । क्योंकि उन्हीं बच्चों से स्कूल की रेपुटेशन बनेगी न?"

"ओह ! अच्छा !!!"

दिनेश चुपचाप खड़ा था । वो स्वभाव से बहुत ही सेंसेटिव था । छोटी-छोटी बातों को भी बहुत सोचता था ।  उसने भी सब की हाँ में हाँ मिलाई । वो भी बहुत होशियार था और राजू के नज़दीक ही उसके नंबर आते थे । छमाही में भी उसकी द्वितीय स्थान आया था । लेकिन उसके घर में स्कूल से कोई लेटर नहीं आया था । इस बात को भी उसने दिल से लगा लिया और उसकी आंखें नम हो गयी ।

ये देख राजू समझ गया कि दिनेश कुछ छुपा रहा है तो उसने उसको पूछ लिया कि क्या बात है ? काफी पूछने के बाद उसने बताया कि वो लेटर उसे क्यों नहीं आया ?

अजय ने जब उसे समझाया कि इस लेटर की बात उसने ऐसे ही बनाई है । इसकी कोई न कोई शिकायत ज़रूर हुई होगी बेवकूफ । हर बात तू दिल पे क्यूँ ले लेता है यार ?

पुन्नू ने जब अजय को पूछा--" तुमने बताया क्यों नहीं कि लेटर तो हमको भी आया था?"

"अरे यार वो दिनेश और भी परेशान हो जाता न?"

अजय के इतना समझाने से दिनेश ठीक हो जाता है ।

इम्तिहानों से पहले स्कूल में बड़े ज़रूरी पाठ पढ़ाये जा रहे थे । साथ सब्जेक्ट थे और सात दिन जाना था ।  पढ़ाई का आखिरी हफ्ता था । फिर उसके बाद हफ्ता भर छुट्टी--- !! फिर इम्तिहान शुरू थे ।

लेकिन उस दिन तो हद हो गयी ।  सुबह 7 बजे का स्कूल था । राजू जब सुबह उठा और उठते ही उसने पहले अपना टाइम टेबल चेक किया

उस दिन बुधवार था  और सच में टाइम टेबल में बुधवार को संस्कृत पढ़ाई जानी थी ।  छह घंटे संस्कृत में सिर खपाना था । वो सोच रहा था उसके दोस्त कह तो सही रहे थे । उसने अपने खुराफाती दिमाग़ को सक्रिय करने की कोशिश की ।

कुछ सोच कर अब वो मुस्कराने लगा था ।

उसने सभी दोस्तों को बोला कि वक़्त पर ही स्कूल पहुँचे और किसी को ये पता नहीं चलना चाहिए कि वो संस्कृत पढ़ने में इंटरेस्टेड नहीं हैं ।

राजू ने घर से एक कैंची उठाई और सुबह-सुबह उस पनवाड़ी की दुकान पर गया जिससे वो अपने पिता जी के लिए बीड़ी लेकर आता था और उसने उसकी सिगरेट सुलगाने वाली लटकी थोड़ी रस्सी काट ली औऱ उस वक़्त उसका दिमाग़ फूल खुराफ़ातिया दिमाग़ हो चुका था ।

सुबह स्कूल वो थोड़ा लेट पहुँचा तो मेंन गेट बंद हो चुका था ।  गेट पर बैठे चपड़ासी रामकिशन  ने अंदर आने से मना करते हुए कहा कि प्रिंसिपल साहब का हुक्म है कि किसी को भी लेट एंट्री नहीं देनी है ।

इतनीं बात सुन राजू मुस्कराने लगा ।

रामकिशन को बड़ा अजीब लगा और उसने राजू से पूछ लिया--"तुम मुस्करा क्यों रहे हो?"

राजू फिर मुस्कराते हुए बोला - "अरे मेरी ऐसी हिम्मत कि मैं तुम्हारे आगे मुस्कराऊं ? बस एक बार गणेश सर से पूछ लो कि राजू चला जाये घर?"

रामकिशन जब पूछ के आया तो आकर उसने गेट खोल दिया ।

जब राजू क्लास में पहुँचा तो पूरी क्लास के बच्चे बोल उठे---"आ गया, आ गया, आ गया"

संस्कृत के टीचर रमेश ने पूछा--"अरे बेटा लेट क्यों हो गए?"

"सर पिता जी की ताबियत ठीक नहीं थी । दवाई दिलवा कर आया हूँ"

राजू मुस्कराता हुआ अपनी सीट पर पहुंच गया ।

वाह बड़े फर्माबदार बच्चे हो, बहुत अच्छे ।

ये सुन सुंदर, अजय और पुन्नू अब राजु के खुराफाती दिमाग़ का करिश्मा देखना चाहते थे ।
सुंदर ने पुन्नू को दो-दो सौ रुपये के पांच नोट दिखाये और इशारा किया कि पांच मूवी की टिकट के पैसों का इंतजाम हो गया ।

क्लास चलते हुए पंद्रह मिनट हो गए । पुन्नू बेचैन होने लगा कि अभी तक तो कुछ भी नहीं हुआ । एक घंटा हो गया ।

चारो एक दूसरे की तरफ देखने लगे । सुंदर के दो सीट आगे दिनेश बैठा था उसे इशारा करते हुए सुंदर ने कहा--"राजू को तो हिलाओ ?"

अभी बातचीत करते-करते एक घंटा और बीत गया । अजय ने खुंदक से बोला-- "यार ये लोग झूठ क्यों बोलते हैं?"

अजय ने अभी इतना ही बोला था कि बड़ी जोर से ऐसा धमाका हुआ जैसे कोई गोली चली हो?

धमाका सुन सब स्तब्ध रह गए  । अध्यापक रमेश ने कुछ देर इंतज़ार कर फिर पढ़ाना शुरू किया । उसी वक़्त दूसरा धमाका हुआ ।

इस दूसरे धमाके का कुछ ऐसा असर हुआ कि सारे अध्यापक अपनी क्लासों से बाहर आ गए । कुछ ही सेकण्ड्स के बाद एक के बाद एक धमाके होने लगे । टीचर्स डर के मारे ड्राईंग रूम में दुबक गए ।
बच्चे इधर से उधर भागते नज़र आने लगे । इसी भगदड़ में दो तीन बच्चे गेट के बाहर से स्कूल ड्रेस में घुसे और स्कूल के कॉरिडोर में लगा घंटा बजा दिया । सारी क्लासेस के बच्चे स्कूल के बाहर की ओर भागे ।

सारा स्कूल लिबर्टी हॉल पर नून शो की कतार में था । स्कूल ड्रेस देख लिबर्टी के मैनेजर ने रामजस स्कूल के प्रिंसिपल को फोन लगा दिया ।

अगले दिन चार बच्चों के घर फिर स्कूल से लेटर पहुंचता है ।

दिनेश के घर अबकी बार फिर लेटर नहीं पहुंचता ।

राजू,अजय, पुन्नू और सुंदर चारों को एक-एक साल के लिये रस्टीकेट कर दिया जाता है ।

राजू के हाथ में जब एक साल के लिए रस्टिकेशन का लेटर आया तो उसे वो सारा सीन आंखों के आगे घूम गया ।

जब सबने राजू को घेर कर रिक्वेस्ट की कि उनको संस्कृत से उस दिन निजात दिला दे तो सबको वक़्त पर स्कूल जाने को कह राजू पनवाड़ी के पास पहुंचा । दिनेश का दिमाग भी तेज था । वो देखना चाहता था कि वो क्या करता है । वो भी उसके पीछे जा पहुंचा । राजू ने जब पनवाड़ी से रस्सी लेकर जैसे ही पीछे मुड़ा, पीछे दिनेश उसकी ओर देख कर मुस्करा रहा था । उसने उससे पूछा कि ये रस्सी किस लिये?
राजू ने उसे बताया कि वो छोटी छोटी रस्सी काटकर उसके साथ बम फिट कर देगा और धीरे-धीरे ये बम फटते जाएंगे ।

पनवाड़ी के दो छोटे भाइयों को ड्रेस अभी दे जाऊंगा और उसे पहनकर ये लोग स्कूल आएंगे और इशारा करने पर वो घंटा बजा देंगे । इतना सुन उसनेबाड़ी तारीफ की ।

इम्तिहान अपने वक़्त पर सम्पन्न हो गए ।

दिनेश उस साल स्कूल में सातवीं के चारों सेक्शनों में टॉप आने के बावजूद भी किसी ने उसे बधाई नहीं दी । न किसी टीचर ने न किसी बच्चे ने ।

रिजल्ट कार्ड लेकर जब वो स्कूल से निकला । उसे यूँ प्रतीत हो रहा था कि चारों तरफ से बच्चों की नजरें उसी पर टिक कर कह रहीं थी तू गद्दार है दिनेश !!!
💐💐💐

~~समाप्त~~

हर्ष महाजन

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यह कहानी एक काल्पनिक रचना है और इसमें दिखाए गए सभी पात्र और पात्रों के नाम,स्थान और इसमें होने वाली सभी घटनाएं पूर्णतया: काल्पनिक हैं । इस धारावाहिक का किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति या घटना या स्थान से समानता पूर्णत: संयोग मात्र ही हो सकता है । इस धारावाहिक का उद्देश्य किसी भी व्यक्ति, धार्मिक समूह सम्प्रदाय, संस्था, संस्थान, राष्ट्रीयता या किसी भी व्यक्ति वर्ग , लिंग जाति या धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का कतई नहीं है ।

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तलाश

 










ट्रेन की गति राघव को आज बहुत धीरे महसूस हो रही थी । रात का डिनर खत्म कर अभी वो बैठा ही था कि फिर उठ कर खड़ा हो गया और अपने केबिन में लगे मिरर में अपने आपको वो देखने लगा । 85 की उम्र में भी बाल पूरी तरह अभी सफेद नहीं हुए थे । उसने अपने बालों में एक बार हाथ फेरा और फिर बाहर जाकर डिब्बे का गेट खोल कर थोड़ी देर वहाँ खड़ा हुआ । ठंडी हवा के झोंको में थोड़ा खड़े होकर वापिस अपनी सीट पर आकर बैठ गया ।

अंधेरा बढ़ता जा रहा था ! और ट्रेन अपनी चिरपरिचित धुन के साथ आगे बढ़ती जा रही थी ।

ज्यूँ-ज्यूँ ट्रेन आगे बढ़ रही थी, राघव के मानस पटल पर लता की वो आख़िरी चीख की गूँज की खनक बढ़ रही थी ।

उस हादसे को आज पूरे 60 साल हो चुके थे । घड़ी की टिक-टिक उसकी धड़कन को बढ़ाती जा रही थी । घड़ी देखी तो उसमें नो बजने में अभी काफी वक़्त था। राघव  फिर आज उसी ट्रेन के डिब्बे में था । वो अपनी सीट से फिर उठा और धीरे-धीरे चल कर गेट पर जाकर खड़ा हो गया ।

बारामती स्टेशन पर आज ट्रेन सही वक्त पर पहुंचने वाली थी । हर साल इसी रोज़ इसी उम्मीद पर राघव बारामती आता आता था । साठ साल के बाद भी उसने उम्मीद नहीं छोड़ी थी उसे यकीन था उसे उसकी लता उसे ज़रूर मिलेगी ।

घड़ी देखी अभी वक़्त था उसकी बैचेनी बढ़ती जा रही थी । वो सीट पर जैसे ही बैठा !! उसके सामने एक बहुत ही खूबसूरत जोड़ा सोने की तैयारी कर रहा था । लड़की के हाथों में नया-नया चूड़ा था ।
ट्रेन थोड़ा धीमी हुई तो देखा कोई छोटा सा स्टेशन था । शायद सिग्नल न मिलने की वजह रही होगी जो इतने छोटे स्टेशन पर ये ट्रेन रुक गयी ।

खिड़की के शीशे से बाहर देखा तो एक स्टाल पर गर्मागर्म चाय उबाल रही थी । नई दुल्हन उठी और अपने ऊपर की बर्थ पर लेटे अपने पति को बोल कर चाय लेने के लिए ट्रेन से नीचे की ओर जाने लगी ।

राघव ने जब देखा कि ये दुल्हन अकेली ट्रेन से नीचे उतरने वाली है तो उसके सामने लता का साठ साल पुराना , वो सीन चलचित्र की भांति उसके सामने घूम गया और वो अचानक जोर से चीख पड़ा--"नही लता नहीं~~~~~~फिर से नहीं उतरना?"--राघव कहता हुआ बहुत ही बैचेन कग रहा था ।

राघव को इस तरह चीखते देख वो दुल्हन घबरा गई और एक कोने में अपनी सीट पर दुबक कर बैठ गयी । ऊपर से उसका पति भी घबराकर नीचे उतर आया कि उसकी पत्नी ने ऐसा क्या कर दिया?

उसने एक बार अपनी दुल्हन की ओर देखा जो डर कर एक कोने में दुबक कर बैठ गयी थी । उसने उसे पहले हग किया फिर बुज़ुर्ग अंकल की ओर देखा । वो भी पूरी तरह पसीने से भीग चुका था । लेकिन वो कांप रहा था । उस नोजवान को माजरा कुछ समझ नहीं आया ।

राघव ने एक बार फिर उस नोजवान को कहा-- "इसको नीचे नही उतरने देना ? ट्रेन चल पड़ेगी । नीचे नही जाना~~~~~?" 

वो नोजवान ने उस बुज़ुर्ग की ओर देखा और पूछा- "अंकल नहीं जाएगी वो नीचे !! आप टेंशन न लें !! लेकिन ये लता कौन है? मेरी पत्नी का नाम तो अंतिमा है ।"

राघव तब तलक थोड़ा नार्मल हो चुका था ।  उसने उस नोजवान की ओर देखा और हाथ जोड़कर अपने इस अप्रत्यशित कृत्य के लिए मुआफ़ी माँगने लगा तो उस नोजवान ने ऐसा करने से मना करते हुए पूछा--"अंकल बात क्या है ? मैं जब से ट्रेन में बैठा हूँ आप बार-बार गेट तक जाते हैं और थोड़ी देर वहां खड़े होकर वापिस आ जाते हैं । क्या कोई खास बात देखने जाते हैं ? और ये लता कौन है?"

उस नोजवान के थोड़ा सा कुरेदने पर राघव की आंखों से दबे हुए आँसू बाहर को छलक आये ।

उसने अपनी जेब से रुमाल निकाला और आंखों पर रखकर थोड़ा पंच किया फिर वापिस जेब में रखकर बोला--नही बेटा ऐसी कोई बात नहीं । तुम लोग नई-नई शादी कर एन्जॉय करने के लिए निकले हो । इस वक़्त उदासी की बातें अच्छी नहीं लगती ।"

राजेश ने फिर कहा--"अंकल मैं भी तो आपके बेटे जैसा हुँ मुझे अपने दिल की बात बताओगे तो मुझे भी अच्छा लगेगा । आपके दिल का बोझ भी थोड़ा सा हल्का होगा ।"

राघव ने अभी कुछ कहा ही नही था कि रुकी हुई ट्रेन पंद्रह सेकंड्स में ही चल पड़ी ।

ट्रेन चलते ही राजेश के मुंह से एकदम निकला - "ओ माय गॉड ट्रेन तो चल पड़ी? थैंक यू अंकल आपने अंतिमा को नीचे जाने से रोक लिया । इतनी रात को यहाँ सुनसान स्टेशन पर वो नीचे रह जाती तो क्या करती?"

राघव उसी वक़्त बोला- "मगर लता नहीं मानी थी और मना करने के बावजूद उतर गई थी । बड़ी ही चंचल थी ।"--कहते हुए राघव सिसक पड़ा और मुंह को दोनों हाथों से ढक कर उसने न जाने कितने ही आँसू बहा डाले ।

राजेश ने चैन की सांस लेते हुए राघव से पूछा-- "बताइए न अंकल?"

राघव ने अपना चेहरा फिर एक बार रुमाल से साफ किया और राजेश के सर पर हाथ फेरते हुए कहा- "अपनी पत्नी का खूब ख्याल रखना बेटा"

इतना कह फ़िर उसने बताया कि आज से 60 साल पहले वो भी इसी तरह अपनी नई दुल्हन लता के साथ दिल्ली जाने के लिए रवाना हुआ था । हमने
दिलो जान से एक दूसरे से प्यार किया था । बचपन से हमने एक साथ पढ़ाई की । इकट्ठे खेले.... बड़े हुए । जब एक दूसरे के बिना रहना मुश्किल हो गया तो फिर हम दोनों ने एक दिन शादी कर ली ।

शादी करके घर पहुंचे तो दोनों के घर वालों ने स्वीकार नहीं किया । बड़े भाई ने मां बाबूजी को इतना भड़का दिया कि बाबूजी ने घर के सामान का बंटवारा कर अलग रहने को बोल दिया ।

हम सामान लेकर किसी के रेफेरेंस पर बारामती आ गए । लेकिन वहां एक महीने में ही लगा कि वहाँ रहना मुश्किल है ।
पता चला कि दिल्ली दिल वालों की है वहां सबका गुजारा हो जाता है तो बस फिर क्या था । हम दोनों ने फिर दिल्ली जाने का फैसला किया ।
एक दोस्त से बात की ओर उसने हमें दिल्ली बुला लिया और अगले ही दिन हमने अपना सामान फिर से बांधा और दिल्ली की ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन पहुंच गये ।

स्टेशन था बारामती ।

गाड़ी के आने का वक़्त रात नो बजे का था । हम स्टेशन पर काफी पहले ही पहुंच गए थे ।
प्लेटफ़ॉर्म पर इंतज़ार करते हुए काफी देर हो गयी थी इसलिए हम स्टेशन पर इंतज़ार करते हुए पसर गए ।

लेकिन अचानक जब ट्रेन बारामती स्टेशन पर आ रही है ये अनाउंसमेन्ट सुन कि ट्रेन आ रही है । वक़्त देखा रात के ग्यारह बज कर चालीस मिनट हो चुके थे ।

राघव  ने बताया कि उसकी पत्नी लता के साथ उस वक़्त स्टेशन पर बे-परवाह ही बैठा था । ट्रेन को नो बजे आना था लेकिन किसी तकनीकी खराबी के कारण वो लेट थी ।

स्टेशन मास्टर से भी राघव को पक्का पता नही लग पा रहा था कि ट्रेन प्लेटफॉर्म पर कितने बजे आकर लगेगी । तबियत खराब होने की वजह से पत्नी लता को स्टेशन पर ही प्लेटफॉर्म पर सुला कर वो इंतज़ार कर रहा था लेकिन बेंच पर बैठे-बैठे उसे भी कभी-कभी नींद का झोंका आ रहा था ।

सामान इतना था कि चढ़ाने में दिक्कत न हो इसलिए वो अपने-आपको नींद से दूर रखना चाहता था और बार-बार पास रखी पानी की बोतल से अपनी आंखों पर बार-बार छींटे मार रहा था ।

घड़ी देखी ग्यारह चालीस होने वाले थे कि उसे लगा कि दूर से छुक-छुक की आवाज आ रही है और वो बड़ी तेजी से तेज होती जा रही थी ।  फिर अचानक हलचल हुई और ट्रेन की लाइटें साफ-साफ दिखाई दबने लगी और अचानक ट्रेन का आगमन हुआ और उसके दिलो दिमाग़ में से भगदड़ मच गई ।

राघव ने लता को जोर से हिलाकर उठाया  तो वो घबराकर उठ बैठी और उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि वो बैठी कहां है । उसका सोच तंत्र एक दम खाली सा हो गया था । फिर अचानक जब वापिसी हुई तो वो फ़टाफ़ट उठी और राघव के साथ मिलकर उसने सामान समेट कर ट्रेन की ओर रुख किया ।

राघव की उम्र उस वक़्त 25 साल की थी । काफी ताकत थी शरीर में ।  वो बड़े-बड़े ट्रंक उठाने में  सामर्थ्यवान था । लता भी बाइस  पार कर चुकी थी । ट्रेन बारामती स्टेशन पर सिर्फ दो मिनट के लिए ही रुकनी थी । दोनों ने मिलकर अपना सामान जल्दी-जल्दी ट्रेन के डिब्बे में फेंकना शुरू कर दिया । राघव डर रहा था, कहीं उनकी ट्रेन या फिर कोई सामान छूट न जाये । उनके सिवा पूरा प्लेटफार्म खाली था । स्टेशन पर सिर्फ एक छोटा सा बल्ब ही जल रहा था । जिसकी रोशनी काफी कम थी । घर का  तकरीबन सारा ज़रूरी सामान गठडियों में बंधा पड़ा था । इसलिए ट्रेन के डिब्बे में फेंकने में कोई दिक्कत भी नहीं हुई ।

ट्रेन चलने से पहले ही सारा सामान गाफी के अंदर था । उसी वक़्त ट्रेन ने एक लंबी सीटी दे दी । राघव ने देखा ट्रेन का गार्ड भी ऑफ़िस से भागता हुआ इंजन की ओर गया और डिब्बे में चढ़ कर उसने हरी झंडी दिखा दी । 

ट्रेन हिली तो राघव जोर से चीखा--"लता~~~~???"  ---!!!

सारा सामान ट्रेन में आ चुका था । राघव की चीख सुन लता ने फट से ट्रेन का डंडा पकड़ डिब्बे की सीढ़ी पर पाँव रखा । ट्रेन अब धीरे-धीरे सरकने लगी थी और अपना सफर थोड़ा सा पटरी पर आगे सरक कर शुरू कर दिया था देखते ही देखते रेंगने भी लगी थी ।

कुछ देखकर लता के मुँह से अचानक निकला-- "ओह !!!"

"अब क्या हुआ?"---राघव ने उसकी ओर देखते हुए पूछा ।

"देखो ! बेलन तो रह ही गया वहॉं ?"--बेलन की ओर इशारा करती हुई लत्ता ने कहा ।

"अरे छोड़, रहने दे अब"--राघव ने जोर देकर कहा ।

"अरे धीरे ही तो है ट्रेन ? और वो देखो ! सामने ही तो पड़ा है बेलन, उठा लाती हूँ । नहीं तो दिक्कत होगी दिल्ली पहुंच कर !!!! वहां रोटी किससे बेलूँगी ?"-- कहते हुए लता फट से रेंगती हुई ट्रेन से नीचे उतर गयी ।

बेलन की ओर जाते-जाते उसने पीछे मुड़ कर राघव को मुस्कराते हुए कहा-- "काहे को डरते हो तुम इतना?"

उसने जैसे ही बेलन को उठाया राघव की तेज़ आवाज फिर से गूँजी-- "लता~~~??"

लता  की स्पीड एक दम तेज हो गयी औऱ उसने भागते हुए बेलन को उठाया और वापिस ट्रेन की ओर भागी ।

लेकिन........तब........तक.......!!!! देर हो चुकी थी !!!

ट्रेन ने अचानक ही तेजी पकड़ ली ।

राघव, डिब्बे के गेट पर ही खड़ा हाथ आगे बढ़ाता रहा और घबराया हुआ बोलता रहा--- "लता-लता"

और----!!!

लता बिना हिम्मत हारे ट्रेन के साथ तब तक भागती रही जब तक प्लेटफॉर्म का फर्श पक्का था और उसे ये उम्मीद और पक्का विश्वास भी था शायद कि राघव तो उसे लेकर ही जायेगा ?

लेकिन प्लेटफार्म खत्म हो गया और उसकी उम्मीदें बिखर गयीं ।

सुनाता हुआ राघव फिर बीच में सिसक पड़ा ! और राजेश और उसके साथ उसकी नई दुल्हन अंतिमा भी एक दम सुन्न सी राघव को सुन रही थी । उनका मन भी बैचेन हो रहा था ये जानने को कि आखिर हुआ क्या था ।

न तो ट्रेन रुकी न ही वो (राघव) उतरा ।

चीखते हुए लता ने गला फाड़ कर आवाज भी लगाई तो काफी देर तलक वो आवाज फ़िज़ाओं में गूंजती रही । 

लता आंखों से तो ओझल हो गयी लेकिन उसकी वो चीख उसके मानस पटल में ऐसे दाखिल हो गयी कि उसे बार-बार सुनाई देने लगी थी ।

लता के सारे ख़्वाब उस बेलन में समाहित हो कर रह गए । दोनों एक दूसरे की आँखों से ओझल हो गये ।

रह गयी, तो बस, वो उम्मीदों के कुछ बिखरे हुए अहसासों के कुछ टुकड़े जिन्हें एक कुशल कारीगर की ज़रूरत थी जो कभी उन्हें जोड़ेगा ।  इसीलिए साठ साल से उन्हें अपने पास संभाल के रक्खा था ।

लता, हाथ में बेलन को राघव की ओर हाथ उठाये हुए, काफी देर तलक स्तब्ध औऱ निशब्द खड़ी देखती रही । जबकि गाड़ी उसकी आँखों की पहुँच से ओझल हो गयी थी । इस उम्मीद पर कि राघव अभी भी ट्रेन से कूद कर आएगा और कहेगा कि --जाने दे लता इस ट्रेन को । हम फिर से शुरू करते है ।

लेकिन----!!!

कुछ ही पलों में सभी भ्रम टूट कर चकनाचूर होकर बिखर गए ।

💐💐💐

बहुत आवाजें लगायीं राघव ने "लता-लता"-- लेकिन उसने उसकी एक नहीं सुनी और हमेशा की तरह उसने अपने मन की सुन बेलन उठाने के लिए ट्रेन से नीचे उतर गई ।

ट्रेन में इक्का दुक्का सवारियाँ ही थीं जो जाग रहीं थीं बाकि सभी लोग अपने-अपने बिस्तरों में गहरी नींद सो रहे थे । ट्रेन ने जैसे ही तेजी पकड़ी राघव घबरा गया और उसे समझ ही नही आ रहा था कि वो क्या करे ।

सारे रास्ते में राघव का सामान बिखरा पड़ा था । आने जाने वालों को भी दिक्कत हो रही थी ।

ट्रेन की सभी बत्तियां पैसेंजर्स ने सोते वक्त वैसे ही बुझा रखीं थी । इक्का दुक्का लोग थे जो मोबाइल देखते हुए जाग रहे थे । उन्होने जब राघव को चीखते हुए लता को आवाज मारते सुना तो वो फौरन उठ कर आये और स्थिति को भांप कर उन्होंने गेट वाले केबिन से ट्रेन की चेन इतनीं जोर से खींची कि वो हाथ में ही आ गयी ।

एक दूसरे लड़के ने अपने केबिन से भी चेन खींची । लेकिन दुर्भाग्य-वंश वो चेन भी टूट गयी । राघव परेशान हो गया था । एक बार तो उसने सोचा कि वो ट्रेन से ही कूद जाए लेकिन गेट पर पहुंच कर ट्रेन की स्पीड देखकर हिम्मत ही नहीं हुई । उसका मन बैचैन अंधेरे की वजह से ज्यादा था । उसे लता की फिक्र हो रही थी । वो इस घुप अंधेरे में उस स्टेशन पर अकेली होगी ।

अचानक ट्रेन बीच रास्ते में रुक गयी । अब सामान इतना था कि रास्ते में कैसे उतारे? लेकिन उतरने के लिए मौका अच्छा था । अभी वो सोच ही रहा था कि दो पुलिस वाले, एक टी०टी० के साथ बाहर की तरफ से डिब्बे के अंदर घुसे ।

चेन पुलिंग की इन्क्वायरी कर रहे थे।

  सभी से पूछा गया, तो उन्होंने कारण बताया तो चैन पुलिंग की मुआफ़ी तो मिल गयी लेकिन फाइल बन्द करने के लिए टी०टी० ने राघव से टिकट दिखाने को कहा ।

राघव ने अपनी जेब टटोलनी तो उसे याद आया कि टिकेट्स तो लता के पास हैं?

पेनल्टी के साथ देने के लिए उसके पास इतने पैसे भी जेब में नहीं थे कि टिकट् ले सके। पर्स भी लता के पास ही था । टी०टी० ने फौरन ट्रेन छोड़ने का फरमान जारी कर दिया ।

कोई चारा न देख राघव को सामान ट्रेन में ही छोड़ उतरना पड़ा ।

उतरते वक़्त, ..ट्रेन से चेन पुल करने वाले लड़के की आवाज आई--"चिंता न करना अंकल टी०टी० की मदद से दिल्ली जाकर सामान को माल खाने भिजवा देंगे ।"
💐💐💐
गाड़ी से राघव उतर तो गया । उस बियाबान जंगल से बाहर निकलना मुश्किल था । लेकिन लता के प्यार ने उसे  इतनी हिम्मत दी कि वो अंधेरे में ही सड़क मार्ग की ओर चल पड़ा । आधे घन्टे में वो हाइवे पर पहुंच चुका था ।

एक घंटे बाद काफी मशक्कत के बाद एक पेट्रोल पंप पर पहुंच उसने वहां पर मौजूद कर्मचारी से मिन्नत कर किसी बस में बारामती स्टेशन के लिए बस में बिठवा दिया ।

काफी जद्दोजहद के बाद जब वो बारामती स्टेशन पर पहुंचा तो उस वक़्त सुबह के छह बज चुके थे । वहां अब भी वैसा ही सन्नाटा पसरा पड़ा था । अभी छः घंटे पहले की ही तो बात थी ।

बदहवास राघव स्टेशन पर इधर से उधर लता-लता पुकारता रहा । लेकिन कहीं से कोई आवाज नहीं आयी ।  लेकिन दूर उसे वही बेलन उसी जगह पड़ा दिखाई दिया । ये वही जगह थी जहाँ से लता गला फाड़ कर चीखी थी ।

वहॉं पड़ा बेलन ऐसे कग रहा था जैसे पुकार रहा हो "आ जाओ राघव मुझे ले जाओ" ।

अपनी इतनीं कहानी सुनाकर राघव ने अपने बैग से वही बेलन निकाला जो उसी तरह चमक रहा था जैसे पैंसठ साल पहले उसने अपनी चमक से लता को बुलाया था ।

उसी वक़्त ट्रेन रुकी राघव ने देखा सामने बाहर बारामती स्टेशन लिखा था ।

उसने अपना बैग उठाया और राजेश और अंतिमा को बाय-बाय करता हुआ बारामती स्टेशन पर उतर गया उसे एक बार फिर तलाश करने ।
💐💐💐

~~समाप्त~~

हर्ष महाजन

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यह धारावाहिक एक काल्पनिक रचना है और इसमें दिखाए गए सभी पात्र और पात्रों के नाम,स्थान और इसमें होने वाली सभी घटनाएं पूर्णतया: काल्पनिक हैं । इस धारावाहिक/कहानी का किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति या घटना या स्थान से समानता पूर्णत: संयोग मात्र ही हो सकता है । इस धारावाहिक का उद्देश्य किसी भी व्यक्ति, धार्मिक समूह सम्प्रदाय, संस्था, संस्थान, राष्ट्रीयता या किसी भी व्यक्ति वर्ग , लिंग जाति या धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का कतई नहीं है ।
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ट्रेन की गति राघव को आज बहुत धीरे महसूस हो रही थी । रात का डिनर खत्म कर अभी वो बैठा ही था कि फिर उठ कर खड़ा हो गया और अपने केबिन में लगे मिरर में अपने आपको वो देखने लगा । 85 की उम्र में भी बाल पूरी तरह अभी सफेद नहीं हुए थे । उसने अपने बालों में एक बार हाथ फेरा और फिर बाहर जाकर डिब्बे का गेट खोल कर थोड़ी देर वहाँ खड़ा हुआ । ठंडी हवा के झोंको में थोड़ा खड़े होकर वापिस अपनी सीट पर आकर बैठ गया ।

अंधेरा बढ़ता जा रहा था ! और ट्रेन अपनी चिरपरिचित धुन के साथ आगे बढ़ती जा रही थी ।

ज्यूँ-ज्यूँ ट्रेन आगे बढ़ रही थी, राघव के मानस पटल पर लता की वो आख़िरी चीख की गूँज की खनक बढ़ रही थी ।

उस हादसे को आज पूरे 60 साल हो चुके थे । घड़ी की टिक-टिक उसकी धड़कन को बढ़ाती जा रही थी । घड़ी देखी तो उसमें नो बजने में अभी काफी वक़्त था। राघव  फिर आज उसी ट्रेन के डिब्बे में था । वो अपनी सीट से फिर उठा और धीरे-धीरे चल कर गेट पर जाकर खड़ा हो गया ।

बारामती स्टेशन पर आज ट्रेन सही वक्त पर पहुंचने वाली थी । हर साल इसी रोज़ इसी उम्मीद पर राघव बारामती आता आता था । साठ साल के बाद भी उसने उम्मीद नहीं छोड़ी थी उसे यकीन था उसे उसकी लता उसे ज़रूर मिलेगी ।

घड़ी देखी अभी वक़्त था उसकी बैचेनी बढ़ती जा रही थी । वो सीट पर जैसे ही बैठा !! उसके सामने एक बहुत ही खूबसूरत जोड़ा सोने की तैयारी कर रहा था । लड़की के हाथों में नया-नया चूड़ा था ।
ट्रेन थोड़ा धीमी हुई तो देखा कोई छोटा सा स्टेशन था । शायद सिग्नल न मिलने की वजह रही होगी जो इतने छोटे स्टेशन पर ये ट्रेन रुक गयी ।

खिड़की के शीशे से बाहर देखा तो एक स्टाल पर गर्मागर्म चाय उबाल रही थी । नई दुल्हन उठी और अपने ऊपर की बर्थ पर लेटे अपने पति को बोल कर चाय लेने के लिए ट्रेन से नीचे की ओर जाने लगी ।

राघव ने जब देखा कि ये दुल्हन अकेली ट्रेन से नीचे उतरने वाली है तो उसके सामने लता का साठ साल पुराना , वो सीन चलचित्र की भांति उसके सामने घूम गया और वो अचानक जोर से चीख पड़ा--"नही लता नहीं~~~~~~फिर से नहीं उतरना?"--राघव कहता हुआ बहुत ही बैचेन कग रहा था ।

राघव को इस तरह चीखते देख वो दुल्हन घबरा गई और एक कोने में अपनी सीट पर दुबक कर बैठ गयी । ऊपर से उसका पति भी घबराकर नीचे उतर आया कि उसकी पत्नी ने ऐसा क्या कर दिया?

उसने एक बार अपनी दुल्हन की ओर देखा जो डर कर एक कोने में दुबक कर बैठ गयी थी । उसने उसे पहले हग किया फिर बुज़ुर्ग अंकल की ओर देखा । वो भी पूरी तरह पसीने से भीग चुका था । लेकिन वो कांप रहा था । उस नोजवान को माजरा कुछ समझ नहीं आया ।

राघव ने एक बार फिर उस नोजवान को कहा-- "इसको नीचे नही उतरने देना ? ट्रेन चल पड़ेगी । नीचे नही जाना~~~~~?" 

वो नोजवान ने उस बुज़ुर्ग की ओर देखा और पूछा- "अंकल नहीं जाएगी वो नीचे !! आप टेंशन न लें !! लेकिन ये लता कौन है? मेरी पत्नी का नाम तो अंतिमा है ।"

राघव तब तलक थोड़ा नार्मल हो चुका था ।  उसने उस नोजवान की ओर देखा और हाथ जोड़कर अपने इस अप्रत्यशित कृत्य के लिए मुआफ़ी माँगने लगा तो उस नोजवान ने ऐसा करने से मना करते हुए पूछा--"अंकल बात क्या है ? मैं जब से ट्रेन में बैठा हूँ आप बार-बार गेट तक जाते हैं और थोड़ी देर वहां खड़े होकर वापिस आ जाते हैं । क्या कोई खास बात देखने जाते हैं ? और ये लता कौन है?"

उस नोजवान के थोड़ा सा कुरेदने पर राघव की आंखों से दबे हुए आँसू बाहर को छलक आये ।

उसने अपनी जेब से रुमाल निकाला और आंखों पर रखकर थोड़ा पंच किया फिर वापिस जेब में रखकर बोला--नही बेटा ऐसी कोई बात नहीं । तुम लोग नई-नई शादी कर एन्जॉय करने के लिए निकले हो । इस वक़्त उदासी की बातें अच्छी नहीं लगती ।"

राजेश ने फिर कहा--"अंकल मैं भी तो आपके बेटे जैसा हुँ मुझे अपने दिल की बात बताओगे तो मुझे भी अच्छा लगेगा । आपके दिल का बोझ भी थोड़ा सा हल्का होगा ।"

राघव ने अभी कुछ कहा ही नही था कि रुकी हुई ट्रेन पंद्रह सेकंड्स में ही चल पड़ी ।

ट्रेन चलते ही राजेश के मुंह से एकदम निकला - "ओ माय गॉड ट्रेन तो चल पड़ी? थैंक यू अंकल आपने अंतिमा को नीचे जाने से रोक लिया । इतनी रात को यहाँ सुनसान स्टेशन पर वो नीचे रह जाती तो क्या करती?"

राघव उसी वक़्त बोला- "मगर लता नहीं मानी थी और मना करने के बावजूद उतर गई थी । बड़ी ही चंचल थी ।"--कहते हुए राघव सिसक पड़ा और मुंह को दोनों हाथों से ढक कर उसने न जाने कितने ही आँसू बहा डाले ।

राजेश ने चैन की सांस लेते हुए राघव से पूछा-- "बताइए न अंकल?"

राघव ने अपना चेहरा फिर एक बार रुमाल से साफ किया और राजेश के सर पर हाथ फेरते हुए कहा- "अपनी पत्नी का खूब ख्याल रखना बेटा"

इतना कह फ़िर उसने बताया कि आज से 60 साल पहले वो भी इसी तरह अपनी नई दुल्हन लता के साथ दिल्ली जाने के लिए रवाना हुआ था । हमने
दिलो जान से एक दूसरे से प्यार किया था । बचपन से हमने एक साथ पढ़ाई की । इकट्ठे खेले.... बड़े हुए । जब एक दूसरे के बिना रहना मुश्किल हो गया तो फिर हम दोनों ने एक दिन शादी कर ली ।

शादी करके घर पहुंचे तो दोनों के घर वालों ने स्वीकार नहीं किया । बड़े भाई ने मां बाबूजी को इतना भड़का दिया कि बाबूजी ने घर के सामान का बंटवारा कर अलग रहने को बोल दिया ।

हम सामान लेकर किसी के रेफेरेंस पर बारामती आ गए । लेकिन वहां एक महीने में ही लगा कि वहाँ रहना मुश्किल है ।
पता चला कि दिल्ली दिल वालों की है वहां सबका गुजारा हो जाता है तो बस फिर क्या था । हम दोनों ने फिर दिल्ली जाने का फैसला किया ।
एक दोस्त से बात की ओर उसने हमें दिल्ली बुला लिया और अगले ही दिन हमने अपना सामान फिर से बांधा और दिल्ली की ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन पहुंच गये ।

स्टेशन था बारामती ।

गाड़ी के आने का वक़्त रात नो बजे का था । हम स्टेशन पर काफी पहले ही पहुंच गए थे ।
प्लेटफ़ॉर्म पर इंतज़ार करते हुए काफी देर हो गयी थी इसलिए हम स्टेशन पर इंतज़ार करते हुए पसर गए ।

लेकिन अचानक जब ट्रेन बारामती स्टेशन पर आ रही है ये अनाउंसमेन्ट सुन कि ट्रेन आ रही है । वक़्त देखा रात के ग्यारह बज कर चालीस मिनट हो चुके थे ।

राघव  ने बताया कि उसकी पत्नी लता के साथ उस वक़्त स्टेशन पर बे-परवाह ही बैठा था । ट्रेन को नो बजे आना था लेकिन किसी तकनीकी खराबी के कारण वो लेट थी ।

स्टेशन मास्टर से भी राघव को पक्का पता नही लग पा रहा था कि ट्रेन प्लेटफॉर्म पर कितने बजे आकर लगेगी । तबियत खराब होने की वजह से पत्नी लता को स्टेशन पर ही प्लेटफॉर्म पर सुला कर वो इंतज़ार कर रहा था लेकिन बेंच पर बैठे-बैठे उसे भी कभी-कभी नींद का झोंका आ रहा था ।

सामान इतना था कि चढ़ाने में दिक्कत न हो इसलिए वो अपने-आपको नींद से दूर रखना चाहता था और बार-बार पास रखी पानी की बोतल से अपनी आंखों पर बार-बार छींटे मार रहा था ।

घड़ी देखी ग्यारह चालीस होने वाले थे कि उसे लगा कि दूर से छुक-छुक की आवाज आ रही है और वो बड़ी तेजी से तेज होती जा रही थी ।  फिर अचानक हलचल हुई और ट्रेन की लाइटें साफ-साफ दिखाई दबने लगी और अचानक ट्रेन का आगमन हुआ और उसके दिलो दिमाग़ में से भगदड़ मच गई ।

राघव ने लता को जोर से हिलाकर उठाया  तो वो घबराकर उठ बैठी और उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि वो बैठी कहां है । उसका सोच तंत्र एक दम खाली सा हो गया था । फिर अचानक जब वापिसी हुई तो वो फ़टाफ़ट उठी और राघव के साथ मिलकर उसने सामान समेट कर ट्रेन की ओर रुख किया ।

राघव की उम्र उस वक़्त 25 साल की थी । काफी ताकत थी शरीर में ।  वो बड़े-बड़े ट्रंक उठाने में  सामर्थ्यवान था । लता भी बाइस  पार कर चुकी थी । ट्रेन बारामती स्टेशन पर सिर्फ दो मिनट के लिए ही रुकनी थी । दोनों ने मिलकर अपना सामान जल्दी-जल्दी ट्रेन के डिब्बे में फेंकना शुरू कर दिया । राघव डर रहा था, कहीं उनकी ट्रेन या फिर कोई सामान छूट न जाये । उनके सिवा पूरा प्लेटफार्म खाली था । स्टेशन पर सिर्फ एक छोटा सा बल्ब ही जल रहा था । जिसकी रोशनी काफी कम थी । घर का  तकरीबन सारा ज़रूरी सामान गठडियों में बंधा पड़ा था । इसलिए ट्रेन के डिब्बे में फेंकने में कोई दिक्कत भी नहीं हुई ।

ट्रेन चलने से पहले ही सारा सामान गाफी के अंदर था । उसी वक़्त ट्रेन ने एक लंबी सीटी दे दी । राघव ने देखा ट्रेन का गार्ड भी ऑफ़िस से भागता हुआ इंजन की ओर गया और डिब्बे में चढ़ कर उसने हरी झंडी दिखा दी । 

ट्रेन हिली तो राघव जोर से चीखा--"लता~~~~???"  ---!!!

सारा सामान ट्रेन में आ चुका था । राघव की चीख सुन लता ने फट से ट्रेन का डंडा पकड़ डिब्बे की सीढ़ी पर पाँव रखा । ट्रेन अब धीरे-धीरे सरकने लगी थी और अपना सफर थोड़ा सा पटरी पर आगे सरक कर शुरू कर दिया था देखते ही देखते रेंगने भी लगी थी ।

कुछ देखकर लता के मुँह से अचानक निकला-- "ओह !!!"

"अब क्या हुआ?"---राघव ने उसकी ओर देखते हुए पूछा ।

"देखो ! बेलन तो रह ही गया वहॉं ?"--बेलन की ओर इशारा करती हुई लत्ता ने कहा ।

"अरे छोड़, रहने दे अब"--राघव ने जोर देकर कहा ।

"अरे धीरे ही तो है ट्रेन ? और वो देखो ! सामने ही तो पड़ा है बेलन, उठा लाती हूँ । नहीं तो दिक्कत होगी दिल्ली पहुंच कर !!!! वहां रोटी किससे बेलूँगी ?"-- कहते हुए लता फट से रेंगती हुई ट्रेन से नीचे उतर गयी ।

बेलन की ओर जाते-जाते उसने पीछे मुड़ कर राघव को मुस्कराते हुए कहा-- "काहे को डरते हो तुम इतना?"

उसने जैसे ही बेलन को उठाया राघव की तेज़ आवाज फिर से गूँजी-- "लता~~~??"

लता  की स्पीड एक दम तेज हो गयी औऱ उसने भागते हुए बेलन को उठाया और वापिस ट्रेन की ओर भागी ।

लेकिन........तब........तक.......!!!! देर हो चुकी थी !!!

ट्रेन ने अचानक ही तेजी पकड़ ली ।

राघव, डिब्बे के गेट पर ही खड़ा हाथ आगे बढ़ाता रहा और घबराया हुआ बोलता रहा--- "लता-लता"

और----!!!

लता बिना हिम्मत हारे ट्रेन के साथ तब तक भागती रही जब तक प्लेटफॉर्म का फर्श पक्का था और उसे ये उम्मीद और पक्का विश्वास भी था शायद कि राघव तो उसे लेकर ही जायेगा ?

लेकिन प्लेटफार्म खत्म हो गया और उसकी उम्मीदें बिखर गयीं ।

सुनाता हुआ राघव फिर बीच में सिसक पड़ा ! और राजेश और उसके साथ उसकी नई दुल्हन अंतिमा भी एक दम सुन्न सी राघव को सुन रही थी । उनका मन भी बैचेन हो रहा था ये जानने को कि आखिर हुआ क्या था ।

न तो ट्रेन रुकी न ही वो (राघव) उतरा ।

चीखते हुए लता ने गला फाड़ कर आवाज भी लगाई तो काफी देर तलक वो आवाज फ़िज़ाओं में गूंजती रही । 

लता आंखों से तो ओझल हो गयी लेकिन उसकी वो चीख उसके मानस पटल में ऐसे दाखिल हो गयी कि उसे बार-बार सुनाई देने लगी थी ।

लता के सारे ख़्वाब उस बेलन में समाहित हो कर रह गए । दोनों एक दूसरे की आँखों से ओझल हो गये ।

रह गयी, तो बस, वो उम्मीदों के कुछ बिखरे हुए अहसासों के कुछ टुकड़े जिन्हें एक कुशल कारीगर की ज़रूरत थी जो कभी उन्हें जोड़ेगा ।  इसीलिए साठ साल से उन्हें अपने पास संभाल के रक्खा था ।

लता, हाथ में बेलन को राघव की ओर हाथ उठाये हुए, काफी देर तलक स्तब्ध औऱ निशब्द खड़ी देखती रही । जबकि गाड़ी उसकी आँखों की पहुँच से ओझल हो गयी थी । इस उम्मीद पर कि राघव अभी भी ट्रेन से कूद कर आएगा और कहेगा कि --जाने दे लता इस ट्रेन को । हम फिर से शुरू करते है ।

लेकिन----!!!

कुछ ही पलों में सभी भ्रम टूट कर चकनाचूर होकर बिखर गए ।

💐💐💐

बहुत आवाजें लगायीं राघव ने "लता-लता"-- लेकिन उसने उसकी एक नहीं सुनी और हमेशा की तरह उसने अपने मन की सुन बेलन उठाने के लिए ट्रेन से नीचे उतर गई ।

ट्रेन में इक्का दुक्का सवारियाँ ही थीं जो जाग रहीं थीं बाकि सभी लोग अपने-अपने बिस्तरों में गहरी नींद सो रहे थे । ट्रेन ने जैसे ही तेजी पकड़ी राघव घबरा गया और उसे समझ ही नही आ रहा था कि वो क्या करे ।

सारे रास्ते में राघव का सामान बिखरा पड़ा था । आने जाने वालों को भी दिक्कत हो रही थी ।

ट्रेन की सभी बत्तियां पैसेंजर्स ने सोते वक्त वैसे ही बुझा रखीं थी । इक्का दुक्का लोग थे जो मोबाइल देखते हुए जाग रहे थे । उन्होने जब राघव को चीखते हुए लता को आवाज मारते सुना तो वो फौरन उठ कर आये और स्थिति को भांप कर उन्होंने गेट वाले केबिन से ट्रेन की चेन इतनीं जोर से खींची कि वो हाथ में ही आ गयी ।

एक दूसरे लड़के ने अपने केबिन से भी चेन खींची । लेकिन दुर्भाग्य-वंश वो चेन भी टूट गयी । राघव परेशान हो गया था । एक बार तो उसने सोचा कि वो ट्रेन से ही कूद जाए लेकिन गेट पर पहुंच कर ट्रेन की स्पीड देखकर हिम्मत ही नहीं हुई । उसका मन बैचैन अंधेरे की वजह से ज्यादा था । उसे लता की फिक्र हो रही थी । वो इस घुप अंधेरे में उस स्टेशन पर अकेली होगी ।

अचानक ट्रेन बीच रास्ते में रुक गयी । अब सामान इतना था कि रास्ते में कैसे उतारे? लेकिन उतरने के लिए मौका अच्छा था । अभी वो सोच ही रहा था कि दो पुलिस वाले, एक टी०टी० के साथ बाहर की तरफ से डिब्बे के अंदर घुसे ।

चेन पुलिंग की इन्क्वायरी कर रहे थे।

  सभी से पूछा गया, तो उन्होंने कारण बताया तो चैन पुलिंग की मुआफ़ी तो मिल गयी लेकिन फाइल बन्द करने के लिए टी०टी० ने राघव से टिकट दिखाने को कहा ।

राघव ने अपनी जेब टटोलनी तो उसे याद आया कि टिकेट्स तो लता के पास हैं?

पेनल्टी के साथ देने के लिए उसके पास इतने पैसे भी जेब में नहीं थे कि टिकट् ले सके। पर्स भी लता के पास ही था । टी०टी० ने फौरन ट्रेन छोड़ने का फरमान जारी कर दिया ।

कोई चारा न देख राघव को सामान ट्रेन में ही छोड़ उतरना पड़ा ।

उतरते वक़्त, ..ट्रेन से चेन पुल करने वाले लड़के की आवाज आई--"चिंता न करना अंकल टी०टी० की मदद से दिल्ली जाकर सामान को माल खाने भिजवा देंगे ।"
💐💐💐
गाड़ी से राघव उतर तो गया । उस बियाबान जंगल से बाहर निकलना मुश्किल था । लेकिन लता के प्यार ने उसे  इतनी हिम्मत दी कि वो अंधेरे में ही सड़क मार्ग की ओर चल पड़ा । आधे घन्टे में वो हाइवे पर पहुंच चुका था ।

एक घंटे बाद काफी मशक्कत के बाद एक पेट्रोल पंप पर पहुंच उसने वहां पर मौजूद कर्मचारी से मिन्नत कर किसी बस में बारामती स्टेशन के लिए बस में बिठवा दिया ।

काफी जद्दोजहद के बाद जब वो बारामती स्टेशन पर पहुंचा तो उस वक़्त सुबह के छह बज चुके थे । वहां अब भी वैसा ही सन्नाटा पसरा पड़ा था । अभी छः घंटे पहले की ही तो बात थी ।

बदहवास राघव स्टेशन पर इधर से उधर लता-लता पुकारता रहा । लेकिन कहीं से कोई आवाज नहीं आयी ।  लेकिन दूर उसे वही बेलन उसी जगह पड़ा दिखाई दिया । ये वही जगह थी जहाँ से लता गला फाड़ कर चीखी थी ।

वहॉं पड़ा बेलन ऐसे कग रहा था जैसे पुकार रहा हो "आ जाओ राघव मुझे ले जाओ" ।

अपनी इतनीं कहानी सुनाकर राघव ने अपने बैग से वही बेलन निकाला जो उसी तरह चमक रहा था जैसे पैंसठ साल पहले उसने अपनी चमक से लता को बुलाया था ।

उसी वक़्त ट्रेन रुकी राघव ने देखा सामने बाहर बारामती स्टेशन लिखा था ।

उसने अपना बैग उठाया और राजेश और अंतिमा को बाय-बाय करता हुआ बारामती स्टेशन पर उतर गया उसे एक बार फिर तलाश करने ।
💐💐💐

~~समाप्त~~

हर्ष महाजन

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यह धारावाहिक एक काल्पनिक रचना है और इसमें दिखाए गए सभी पात्र और पात्रों के नाम,स्थान और इसमें होने वाली सभी घटनाएं पूर्णतया: काल्पनिक हैं । इस धारावाहिक/कहानी का किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति या घटना या स्थान से समानता पूर्णत: संयोग मात्र ही हो सकता है । इस धारावाहिक का उद्देश्य किसी भी व्यक्ति, धार्मिक समूह सम्प्रदाय, संस्था, संस्थान, राष्ट्रीयता या किसी भी व्यक्ति वर्ग , लिंग जाति या धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का कतई नहीं है ।
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Wednesday, March 1, 2023

गलतफहमी

 

अलीगढ़ के उस मकान में------

नितिन अपने पके बालों को शीशे में देख कई बार सोचता कि पुश्तैनी मकान में कब तक रहकर गुजारा होगा ।

उस दिन मकान में टहलते हुए खाली कमरों पर नज़र गयी तो नितिन अपनी पुरानी यादों में खोता ही चला गया ।

सोचने लगा वो वक़्त कितना अच्छा था । सयुंक्त परिवार था तो यही लगता था कि ज़िन्दगी कितनी  हसीन थी । तीन भाई, चार बहनें फिर उनके बच्चे कितना बड़ा परिवार था । फिक्र करने के लिए माँ और बाबूजी मौजूद थे । घर में कभी भी गेट-टुगेदर होता तो किसी बाहर वाले कि तो कोई आवश्यकता ही नहीं होती थी । अपने परिवार की ही रौनक़ इतनीं हो जाती थी ।

शून्य में देखता हुआ नितिन !! उसके चेहरे पर कई भाव जन्म लेते । कभी उदास कभी वो खुद ही मुस्करा देता । फिर वापिस परिवार के बारे में सोचते हुए । इतने बड़े परिवार के सभी सदस्य एक-एक कर घर छोड़ते चले गए । न जाने क्यूँ !! मगर यही कहते हुए कि ज़िम्मेदारियों को पूरा करना है इसलिए जाना तो पडेगा न । चारों बहनों की शादियां हो गईं और वो अपने-अपने घरों  की रौनक हो गईं ।

पिता राम दयाल जी का रौबदार चेहरा जब आंखों के सामने आया तो मन द्रवित हो उठा ।  गठीला बदन,  रुआब दार चेहरा और खुशी मुँह पर साफ झलकती नज़र आती थी ।  मुहल्ले में दूर-दूर तलक उनके नाम को बड़े इज़्ज़त से लोग लिया करते थे ।

लेकिन फिर कुछ ही सेकेंड्स में उसका अपना चेहरा भी उदास होता चला जाता । याद आ जातीं अपनी कुछ वो ज्यादतियाँ । जो अब उसे बेवजह सी लगने लगीं थीं । वो सोचने लगता ।  कम से कम वो अपने हिस्से का दिया दर्द तो कम कर ही सकता था ।  सोचते हुए कब उसकी आंखों से दो बैरंग कतरे निकल कर गालों पर लुढ़क गए पता ही न चला ।

  जैसे-जैसे बच्चे घर छोड़ते चले गए उनके चेहरे की रौनक ने भी धीरे-धीरे दम तोड़ना शुरू कर दिया था । चेहरा गंभीर दिखने लगा था ।  घर में सिर्फ माँ, बाबूजी थे जो भू-तल पर थे । खुद नितिन, पत्नी मालविका और दोनों बच्चे प्रथम तल पर ।

जब तलक वो थे संयुक्त परिवार की चिंताओं ने हमेशा उन्हें घेरे रखा । शायद उन्हें आभास था इसलिए उम्र से पहले ही अपने बच्चों में अस्थायी चीजों को तकसीम कर सभी बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियां, जल्द निपटा कर ज़िन्दगी को कम उम्र में ही अलविदा कह गए ।

बाबूजी को चिंताओं ने बुरी तरह घेर लिया था । चार बेटियों में से दो बेटियों के घर से टेंशन के सिवा कुछ न मिला ।

एक दिन अचानक.....!!!!

बाबूजी चले गए और भोली भाली माँ का जीवन अपने बच्चों पर मुनस्सर होकर चलने लगा । काफी ख्याल रखने के बावजूद भी धीरे-धीरे बाबू जी की कमी उन्हें बार-बार खलती रही । बच्चों के अंदर का मन-मुटाव उनकी गिरती सेहत को और भी बिगाड़ता चला गया ।

नितिन उम्र की उस दहलीज पर था, सोचने के लिए बहुत वक़्त था ।  कमाने के लिए अब गाहे-बगाहे ही कभी टूर का प्रोग्राम होता था ।  शरीर अब इज़ाज़त नहीं देता था ।

दो होनहार बेटे थे । राहुल और राकेश । राहुल बड़ा था और जो पढ़ लिख कर  नॉकरी कर रहा था । छोटा एम०बी०ए की पढ़ाई में व्यस्त था ।

भाइयों में, सभी अपने-अपने मकान लेकर उसमें शिफ्ट हो चुके थे । नितिन पुश्तैनी मकान में ही अपना गुज़र बसर कर रहा था ।

कई बार नितिन को अपने पर बहुत ग्लानि होती थी । घर में कभी किसी चीज़ की कमी तो नहीं थी ।  जब तलक बाबूजी ज़िंदा थे, अलग मकान लेने के बारे में उसने कभी सोचा नहीं था । काम भी ट्रेडिंग का कुछ ऐसा था कि ज्यादा इन्वेस्टमेंट की कभी ज़रूरत ही नहीं समझी । जितना भी आर्डर मिलता , बाजार जाते , बुक किये हुए ऑर्डर का सामान गिन कर लेकर आते और जिस-जिस से ऑर्डर लिया होता अपना मार्जन जोड़ते और उन्हें सामान भेज देते । 

ज्यादा पैसा जोड़ने के बारे में कभी सोचा ही नहीं था । ज़िन्दगी हमेशा मस्त रही । जो कमाया अपने ऊपर ही खर्च कर डाला ।

वक़्त आया तो सयुंक्त सम्पत्ति बिकने पर आ गयी ।जो डी०डी०ए० हाउसिंग सोसाइटी की मेंबरशिप थी उससे दो कमरों का फ्लैट भी आबंटित हो गया । जो किराए पर लगा रखा था । जिसका किराये से उसके छोटे बेटे की फीस का इंतज़ाम हो जाता था ।

माता जी साथ थी ।

मकान खरीदने के लिए उसके पास  बजट न के बराबर ही था ।

नितिन को अब अपने बच्चों के भविष्य की चिंता सताने लगी तो उसने अपने लिए मकान के बारे में सोचा । इस पुश्तैनी मकान में अच्छा रिश्ता मिलेगा ? ये उसे विश्वास नहीं था । इसलिए मालविका की इस्लाह कर उसने नए मकान के बारे में अब सोचना शुरू कर दिया था ।

इसी सिलसिले में अड़ियल स्वभाव के चलते सयुंक्त परिवार के किसी भी सदस्य से पूछे बगैर उसके मन में मकान को बेचने का इरादा घर कर गया ।

पुश्तैनी मकान का सौदा हो गया ।

सदस्यों में तकरार हुई लेकिन बड़ों की समझदारी ओर सूझबूझ से मामला बिगड़ते-बिगड़ते बच गया ।

मालविका को अपने बजट के बारे में मालूम तो नहीं था मगर उसने सलाह जरूर दी कि मकान अपना बजट देखकर ही देखने के लिए जाना ।

नितिन उस दिन मकान देखकर जब घर लौटा तो मालविका उसकी उदास शक्ल देख कर सब समझ गयी ।  इस बारे में उस वक़्त पूछना उसके लिए "आ बैल मुझे मार" वाली कहावत हो जाती । नितिन के गुस्सेल स्वभाव का उसे भली भांति पता था ।

गुस्सा, ईर्ष्या औऱ अहँकार का बोझ उसे अपनों से दूर करता चला गया ।

थका हुआ नितिन सोफे पर बैठ मालविका की कही बातों को सोचने लगा  था । कितने ही दिनों से देशमुख दलाल उसे रोज-रोज मकान पे मकान दिखाता लेकिन कहीं भी  कोई बात बन नहीं रही थी । आज भी देशमुख दलाल जिस मकान को  दिखाने के लिए ले गया था वो भी बजट से बाहर ही निकला।

मालविका इस बारे में कई बार कह-कह के थक गयी थी । लेकिन बचपन से ही जिद्दी स्वभाव नितिन दूसरों की सलाह को अपने से ऊपर मानना उसे गंवारा नहीं था । हालांकि मालविका उसकी पत्नी थी उसने पहले भी कहा था कि जिस इलाके में दलाल उसे मकान दिखाने के लिए ले जा रहा था वो बजट से ऊपर का इलाका है । लेकिन.......!!!

आखिर मन ही मन मालविका की बात मानकर उसने मकान देखना शुरू किया । जो बाद में उसकी अपनी कही जाने लगी ।

पुश्तैनी मकान जो बिका उसके पांच हिस्से हुए । माता जी साथ थीं उसका हिस्सा मिलाकर किसी तरह तीन हिस्सों का इंतज़ाम उसने कर लिया । कुछ इधर-उधर से कर के मकान देखने तक का बजट तैयार हो गया औऱ एक अच्छी कॉलोनी में उस बजट में दो कमरे का फ्लैट लेकर शिफ्ट भी कर लिया गया ।

मालविका अब मकान मालकिन बन चुकी थी । ख़ुशी इतनीं की पुरानी बातों को याद करके वो सोचती कि अब जो दिल में आयेगा अपने नए मकान में वो करेगी ।

नितिन पुश्तैनी मकान में कुछ करने नहीं देता था क्योंकि उसका कहना था कि पुराने मकान पर जो खर्च करोगी सब व्यर्थ चला जायेगा ।

धीरे-धीरे दिन बदलने लगे और दूसरे बेटे की भी सर्विस लग गयी । दोनों बच्चों की शादी हो गयी । और फिर दोनों अपनी-अपनी कंपनियों की तरफ से  किसी प्रोजेक्ट के नाम पर बाहर इसलिए भी चले गए कि कुछ अरसा बाहर नॉकरी कर माँ बाप के पास वापिस लौट आएंगे ।

बच्चे फार्माबदार घर में ज़रूरतानुसार पैसा भेजने लगे, आमदनी बढ़ती गयी और नितिन के हौंसले और अंहकार दोनों ने उसे अच्छी तरह जकड़ना शुरू कर लिया ।

बच्चों ने दिल्ली में संपत्ति के नाम पर चार-चार मकान अपने नाम कर लिए और जिस देश में वो गए वहां भी दोनों बच्चों ने बड़े-बड़े आलीशान मकान के मॉलिक बन गए । 

बच्चों की घर वापिसी का जिक्र अब खत्म हो गया था । जिसका सीधा मतलब की भारत के लिए वापिसी नामुमकिन थी ।

हुआ यूँ कि सम्पत्ति और अहंकार अब जैसे-जैसे बढ़ता गया करीबी रिश्ते ज़रूरत के हिसाब से छूटते चले गए ।

नोबत अब यहाँ तक पहुंच गई कि नितिन को ये लगने लगा कि वो अब बहुत सी संपति का मॉलिक हो चुका है अब उसे किसी की भी ज़रूरत नहीं थी ।

पत्नी के अरमान नए घर में आकर पूरी तरह धूमिल होने लगे । शुरू में उसकी सोच थी कि अपना घर होता तो अपने हिसाब से सजाती । लेकिन वो सब ख़्वाब बन कर ही रह गए ।

एक बार मालविका ने घर को दिल से सजाने का बीड़ा उठाया भी था । लेकिन हुआ वो जो नितिन ने चाहा । जो चीज़ नितिन को पसंद न होती वो उसे घर से बाहर कर देता ।

ड्राइंग रूम के दूसरे सोफे पर बैठी मालविका सोच रही थी । नए मकान से अच्छा तो वही पुराने साथ बिताए दिन थे । जब सब देवर देवरानियाँ इकट्ठे रहते थे ।

नितिन अड़ियल ज़रूर था लेकिन बहुत ही भावुक किस्म का एक व्यक्तित्व था । अगर उसके कहे के अनुसार कोई चलता था तो उसके लिए वो जान तक लुटा देता था । लेकिन सब अपनी मर्जी से । किसी की मर्जी उसमें कतई शामिल नहीं हो सकती थी । अगर किसी ने उसके काम में दखल कर के कोई सलाह भी दे दी । तो उसका एक ही फंडा था । ये लो----- ये पड़ा सबकुछ......करवा लो खुद ही ......!!!---इतना कह कर सब कुछ वहीं छोड़-छाड़ वो चला जाता था ।

अपने बजट से जब मकान ले लिया तो मालविका बहुत खुश थी । मन के अरमान पूरा करने का समय आ गया था । सोचा अपनी पसंद के पर्दे लगाये । दिवाली पर दरवाजों पर लटकन लगा कर सजाइँ ।

लेकिन नितिन ने ये कह कर लटकन उतार कर फेंक दीं कि ये बेकार की चीज़ों का घर में क्या काम ? लोग गंद घर से निकालते हैं और तुम गंद घर में ला रही हो?

पर्दे बचपन से जिस रंग के पर्दों की ख़्वाहिश थी वैसे पर्दे लगाकर मालविका बहुत खुश थी । लेकिन नितिन ने खुंदक से पर्दे खींच कर उतारते हुए ये कह दिया कि -"क्या पुराने जमाने के पर्दे ले आयी हो?"

मालविका के कुछ बोलने से पहले ही हाई वॉल्यूम में साथ ये बोल दिया कि कोई कलह-क्लेश मुझे घर में नहीं चाहिए ।

उस दिन मालविका मन मसोस कर ही रह गयी और उसे अब समझ आ गयी थी कि इस घर में वो रह रही है उस पर उसका कोई हक नहीं था । वो यहाँ सिर्फ एक बंधुआ मजदूर की भांति ही थी ।

ये देख मालविका का मॉलकिंन होने का गरूर एक सेकेंड में ही चकनाचूर हो गया ।

दो बैरंग आँसू उसी वक़्त उसकी पलकों का साथ छोड़ उसके दामन को रगड़ते हुए सोफे पर लटक गए ।

उसने मन में सोचा कि--उसका उस मकान में शायद कोई योगदान था ही नहीं । बच्चों ने जो मकान के लिए अगर पैसे भेजे थे शायद उन पर भी उसका कोई अधिकार नहीं था । ज़िन्दगी के साठ बरस में से चालीस बरस इसी गलत-फहमी में ही उसने निकाल दिए कि वो एक दिन मॉलकिंन बनेगी ?

~~समाप्त~~

हर्ष महाजन
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यह धारावाहिक एक काल्पनिक रचना है और इसमें दिखाए गए सभी पात्र और पात्रों के नाम,स्थान और इसमें होने वाली सभी घटनाएं पूर्णतया: काल्पनिक हैं । इस धारावाहिक का किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति या घटना या स्थान से समानता पूर्णत: संयोग मात्र ही हो सकता है । इस धारावाहिक का उद्देश्य किसी भी व्यक्ति, धार्मिक समूह सम्प्रदाय, संस्था, संस्थान, राष्ट्रीयता या किसी भी व्यक्ति वर्ग , लिंग जाति या धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का कतई नहीं है ।
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तीन उचक्के

 



रामु ने अपने मॉलिक गुप्ता जी को साइकिलें साफ करते हुए कहा -" सर जी आप भी कमाल हो ! एक साईकिल खरीदते हो, वो भी कूड़े के भाव और दो साथ में उठा लाते हो । ये कैसे कर लेते हो आप? उन्हें बिल्कुल भी पता नहीं चलता क्या ?"

"अरे भई यही तो हमारा शफ़ा है बेटा । अगर ये पता चल जाये तो फिर हमें बड़े वाला 'वो' कौन कहेगा" --हंसते हुए गुप्ता जी ने कहा ।

"सर जी 'वो' मतलब, बड़े वाला 'उचक्का'??-------!!!"--मसखरी करते हुए रामू ने पूछा ।

"हा हा हा हा"--हंसते हुए गुप्ता जी बोले---"अरे ऐसे बोलते हैं क्या सबके सामने?"

"सर जी ये तीनों लड़के गोलू, टिंकू और कल्लू को आपने इन नए लड़कों के पीछे लगा रखा है । वे उन्हें साइकिल रोज  किराए पे लेने के लिए मनाने में कामयाम भी होंगे के नहीं ?"

"अरे होंगे क्यों नहीं? कमीशन का लालच भी तो है ?"

उस दिन फत्ते, दुक्की और भीखू का वहाँ दसवां दिन था ।

सात साल का फत्ते पतला छरहरा बदन मगर चंचल और बेपरवाह मगर खुंदकी स्वभाव व व्यक्तित्व । एक बार जो दिल से उतार जाए बस उसकी शामत । सुबह अपने ज़रूरी कामों से फ़ारग हो उसने अपनी वही आसमानी छेदों वाली निक्कर और टी शर्ट पहन अपने पापा के रूम की ओर बढ़कर उनकी दीवार पर लगी घड़ी को देखता है और बड़बड़ाता है--"हम्म नो बजने ही वाले है"

एक दो बार फिर उसने अपने पापा के रूम की ओर देखा । पापा वाशरूम जा चुके थे । वो फ़टाफ़ट उनके रूम में जाकर कुछ ही पलों में बाहर आ गया और अब वो मुस्करा रहा था । उसने जल्दी से अपने दो रंगी फ्लीट पहने, जिनमें आगे पीछे छोटे-छोटे छेद भी थे ।

घर से निकलते वक्त उसने माँ से कहा --"अम्मा आज दुपहरिया को इंतजार न करियो, थोड़ा काम है करके ही आऊंगा"

"अच्छा बेटा फिर भी जल्दी आ जाइयो"

"ठीक है अम्मा.....!!!"--कहते हुए फत्ते घर से गाना गुनगुनाता हुआ और मुस्कराता हुआ शादीपुर चौक की ओर निकल जाता है जहाँ वो तीनों रोज़ इसी वक्त मिला करते थे ।

उसके घर से यानी बलजीत नगर से शादीपुर चौक की दूरी लगभग एक किलोमीटर की थी ।

उसे दूर से ही अपने दोनों जिगरी दोस्त दिखाई दे रहे थे । वो पहले ही वहां पहुंच कर इसका इंतजार कर रहे थे ।

दुक्की आठ साल का थोड़ा मोटा रंग काला वो अपने बदन पर धारीदार अंडरवियर और सफेद बनियान पहने था । हमेशा हर मौसम में उसकी यही ड्रेस थी चाहे गर्मी हो या ठंड ।

गरीबों के लिए शायद सब मौसम बराबर ही होते हैं ।  बड़ा ही गुस्सैल स्वभाव का था । बिना सोचे समझे पहले कर देता है फिर बाद में सोचता है । लेकिन फत्ते से डरता था । इंसान के सामने से चीज़ ऐसे गायब कर ले मगर पता भी न चले । उसके हाथ में ऐसी जादुगरी थी ।

उसके साथ ही भीखू नो वर्ष थोड़ा लंबे कद का पतली हड्डी, नीले कुर्ते के नीचे काली पेंट ! वो भी कई जगह से फटी हुई । गले में मल्टी कलर का रुमाल । सर पर दो-रंगी टोपी, ऊपर से काली नीचे से लाल । गज़ब का जेब तराश । जेब का सामान किसी भी जेब में हो मिंटो में बाहर कर इधर से उधर रखने में मास्टर । लेकिन आजकल वो धंधा बन्द कर तीनों ने अपना ग्रुप बनाकर इकट्ठे धंधा शुरू किया था ।

तीनों दोस्तों में फत्ते सबका मास्टर था । उसी की सलाह पर तीनों ज्यादातर काम के लिए आगे बढ़ते थे ।

चौक पर पहुंचते ही तीनों एक दूसरे से तपाक से गले मिले ।

नज़रों ही नज़रों में उनकी बात हुई और फत्ते कनिंग हँसी हँसते हुए जेब से एक सो के नोट को थोड़ा सा ऊपर कर के दिखाते हुए इस तरह से पेश आता है जैसे सुबह-सुबह कोई जंग जीत कर उसने ये नॉट कमाया हो । नॉट देख दोनों ऐसे मुस्कराते हैं जैसे उनमें कोई एनर्जी आ गयी हो ।

दुक्की और भीखू दोनों कठपुतली कालोनी के माने हुए दबंग बच्चों में से थे । उसके इलाके में कोई भी बच्चा अगर सर उठाने की कोशिश करता तो ये दोनों अपनी दादागिरी से उसे अपने अंडर कर लिया करते थे । वहां की हर झुग्गी में इन दोनों द्वारा इधर-उधर से उठाया हुआ कोई न कोई सामान ज़रूर पड़ा था । क्योंकि ये जो भी सामान जहां से भी मौका मिलता उठा कर ले आते । पहले चोर बाजार में कोशिश करते बेचने की । अगर नही बिकता तो वहां जिसकी भी झुग्गी में जगह होती उसी में रख देते ।

तीनों को अपने इलाके में सबने लफंगों की उपाधि से नवाजा हुआ था ।

शादी पुर चौक से तीनों ने गीता कॉलोनी जाने के लिए पहले 740 नंबर की बस पकड़ी और मेंन रोड पर उतर कर रिक्शा कर गीता कालोनी उसी जगह साइकिल की दुकान से थोड़ी दूरी पर खड़े होकर उन लड़कों का इंतजार करने लगे जिस दुकान से वो तीनों लोकल लड़के रोज किराये पर साईकिल लिया करते थे ।

इन तीनों को उस दिन गीता कालोनी आते हुए और उनके साथ साइकिल पर साथ घूमते हुए दसवां दिन था । टारगेट पक्का हो चुका था ।  अब एक्शन की तैयारी करनी थी ।

वहां खड़े हुए अभी कुछ देर ही हुई थी कि फत्ते की नज़र ने उन्हें दूर से ही पहचान लिया और अपने दोनों साथियों को भी चौकन्ना कर दिया और उन्हें समझाने लगा-- "देखो वो आ रहे हैं । उन्हें पता नहीं लगना चाहिए कि हमने उन्हें देख लिया है । समझे?

फत्ते ने अपनी जेब से कुछ कंचे निकाले औऱ बाकि दोनों को भी थोड़े-थोड़े पकड़ा दिए । फिर वहीं ज़मीन में एक  पिल्लू ( घुच्चिक) बना कर उनको दिखाने के लिए खेलने लगे ।

वो तीनों वहां के लोकल बच्चे थे वो जब पास से गुजरे तो उनमें से एक ने अपने साथी से कहा--"अबे टिंकू? यार ये तीनों लड़के फिर आज आ गए?"

हाँ कल्लू ये तो अब रोज ही यहाँ मिलते हैं ? लगता है ये नए आये हैं कालोनी में ।

गोलू थोड़ा आगे आता हुआ दुक्की से पूछते हुए-- "तुम यहीं आसपास रहते हो क्या?"

"हाँ हम वहॉं डी ब्लॉक में नए आये हैं । खेलने के लिए वहां कोई निकलता ही नहीं इसी लिए इधर ही आ जाते हैं"-- "दुक्की कंचे मास्टर लाइन से पिल्लू की ओर फैकता हुआ बताता है ।"

वो तीनों बच्चे थोड़ी देर वहीं खड़े-खड़े उनकी गेम देखते हैं ।

"चलो यार फिर साइकिल वाला गुप्ता लंच पर चला जायेगा यार?"--टिंकू ने गोलू का हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचता हुआ बोला ।

चलते-चलते गोलू ने फत्ते से पूछा-- "क्या आज तुम हमारे साथ साइकिल के लिए नहीं चलोगे क्या?"

भीखू लापरवाही से बीच में ही बोला--"भाई तुम तो मजे से चला लेते हो और हम पीछे-पीछे भागते रहते है तो थक जाते हैं । आज तुम जाओ चला लो और फिर यहीं आ जाना "

गोलू फिर बोला--"चलो न दोस्त? इकट्ठे चलते है मजा आएगा"

टींकू, गोलू को साइड में ले जाकर  कहने लगा--"छोड़ो न उसको? क्यों टाइम बर्बाद कर रहे हो? चलो ...!!!"

गोलू ने उसको कान में समझाते हुए कहा-- "अरे पागल वो हमारा किराया रोज देता है । गुप्ता जी की कमीशन भी हाथ से निकल जायेगी? समझा करो ।  जब तक चलता है तो चलाने में क्या हर्ज है?"

फिर गोलू टिंकू और कल्लू , तीनों ने सिर मिलाकर थोड़ी सलाह की ओर फिर गोलू ने फत्ते से कहा--"तुम भी औऱ हम भी आज से  हम सारे अलग-अलग साइकिल लेकर चलाएंगे.....!! ठीक है?"

फिर भीखू बोला-- "यार हमसे तो वो सिक्योरिटी रखने को बोलता है?"

कुछ सोचते हुए गोलू बाकि दोनों की तरफ देखता हुआ फिर बोला--चिंता मत करो तुम, आज से तुमसे वो सिक्योरिटी नहीं मांगेगा ।

थोड़ी देर में छह साइकिलें गीता कालोनी की सड़कों पर औऱ आसपास घूमने लगीं । साइकिलें जमा करवाते वक़्त फिर सबका किराया फत्ते ने दिया और वापिस चल दिए ।

दुकान मॉलिक गुप्ता जी ने गोलू को पूछा--"अरे ये नए लड़के कौन हैं जो तुम्हारे साथ आते हैं । पैसे वाले हैं क्या?"

"हमारे पड़ौस में नए आएं है अंकल, हाँ पैसे वाले तो हैं । कबाड़ का बहुत बड़ा काम हैं इनके बापू का"

"अच्छा? ....!!!पर तो यूँ ही पहन रखे इन्होंने?"

"अरे बताया न कबाड़ का काम है इनका"--गोलू को कोई जवाब नहीं सूझा तो कह दिया ।

फत्ते दूर खड़ा उनकी ये वार्तालाप सुन रहा था । गोलू पास आया तो फत्ते ने पूछा--"क्या कह रहा था?"

"अरे ऐसे ही बस----अच्छा याद आया !!! तुम्हारे पिता जी काम क्या करते हैं?"

"कबाड़ का बिज़नेस है न"

"ओ तेरे की?---!!! यही तो बतोला मारा मैनें गुप्ता जी के साथ तुम्हारे बारे में?"

"क्या मतलब?"

"छोड़ो अब !! सब ठीक हो गया !!!"

फत्ते अपने साथियों को देख मुस्कराता है ।

भीखू औऱ फत्ते ने दूर से दुकान के मॉलिक गुप्ता जी को राम-राम की, और बाहर निकल गए ।

जब इसी तरह आते-आते चार पांच दिन हो गए तो फत्ते ने उसके बाद एक दिन औऱ भी जल्दी जाने का प्रोग्राम बनाया और गुप्ता जी की दुकान पर साइकिल लेने पहुंच गए। दुकान यो खुली थी पर गुप्ता जी अभी घर से नहीं आये थे ।
फत्ते दुकान में गया और गुप्ता जी के चेले को बोला-- "गुप्ता जी नहीं आये अभी?"

"आज वो थोड़ा लेट आएँगे, आज तुम जल्दी आ गये साइकिल लेने?"

"हाँ आज स्कूल की छुट्टी थी हमने सोची जल्दी चला लेते है आज  धूप से भी बच जाएँगे"

"चलो ले लो आप चुन लो जो लेनी है । रोज ही तो लेते हो ।"

बस फिर क्या था । तीनों ने नई-नई तीन साइकिलें चुनी और दो तीन चक्कर उस दुकान के आसपास लगाए फिर ये गए और वो गए----!!!
थोड़ी ही देर में वो आई०टी०ओ पार कर गए ।
वहां से उन्होंने अजमेरी गेट का रुख किया फिर वो लालकिले के पीछे निकल कर चोर बाजार पहुंचे और एक हजार में तीनों साइकिलों का सौदा कर लिया और बेच वो सीधे शादीपुर चौक पहुंचे और पहले भठूरे वाले से एक-एक प्लेट भठूरे लिए औऱ तबियत से पेट भर कर खाएं ।

उसके बाद फत्ते ने दुकान से निकल शादीपुर मेट्रो स्टेशन के नज़दीक जाकर रुक गए और कहा --"यहीं बाँट लेते हैं । लेकिन पहले तुम्हें मैं हिसाब बता दूं ।"

दुक्की और भीखू ने भी आगे आकर फत्ते के साथ सिर जोड़ लिया। तब फत्ते ने बताया --"मेरे रोज के दस रुपये औऱ तीस टका ब्याज ।  एक महीना हो गया चलते हुए तो तीन सो हो गए मूल के । संग ब्याज होई गया सो रुपये । टोटल हो गया चार सो । अब लगा लो के तीन बार मुझे पिता जी ने  जेब से दस रुपये निकालते हुए पकड़ लिया ।  पचास रुपये की मेरी धुनाई । तीन बार के हो गए डेढ़ सो । अब टोटल हो गए साढ़े पांच सो । अब उसने पहले एक हजार से साढ़े पांच सो रुपये निकाल कर अपनी जेब में डाल लिए  और बाकि जो बचे वो थे साढ़े चार सो । अब साढ़े चार सो का बंटवारा करने के लिए जैसे ही फत्ते झुका--तो दुक्की और भीखू की नजरें आपस में टकरायीं । भीखू ने दांत भीचते हुए दुक्की को कहा- 'इसे आज कूट देंगे?"
जैसे ही दुक्की ने झुके हुए फत्ते को मारने के लिए हाथ उठाया तो फत्ते ने उठते हुए दोनों को डेढ़ डेड सो रुपये हाथ में दिए और उनको वार्निंग देते हुए कहा कि--"जो तुम्हारे मन में चल रहा है न? इसे भूल जाओ । वरना इस सड़क का रास्ता ही भूल जाओगे, समझे?"--कहते हुए फत्ते ने सड़क पार की और जाते-जाते फ़िर कह गया--"कल का नोएडा के प्रोग्राम है वक़्त पे आ जाना ?"

💐💐💐
गुप्ता जी  अपनी दुकान पर रिक्शा ले के पहुंचे तो अपने एम्प्लोयी को आवाज लगाते हुए बुलाया --अरे हो रामू ?"

"जी सर जी?"

"ये लो आज अपनी दुकान के लिए तीन साइकिल और लाया हूँ। बिल्कुल सेम टू सेम हैं । सिर्फ बारह सो में नई की नई । पर पैसे एक के दे के आया हूँ । सिर्फ चार सौ । अब छह का एक सेट ही अलग हो गया हमारे पास । अच्छा चूना लगा के आया हूँ आज मैं उसे ।"---गुप्ता जी हंसते हुए अंदर अपनी सीट के पास जा खड़े हुए ।

रामु ने बिना उनकी बात की ओर ध्यान दिए उन्हें बताया कि वो तीनों लड़के किराये पर साइकिल लेने के लिए आये थे और आकर तीन साइकिलें ले गए थे । ढाई घंटे हो चुके हैं अभी तक तीनों ही वापिस नही आये ।

"क्या कहा?  वापिस नहीं आये?"---गुप्ता जी ने अपने सर पर हाथ मारते हुए कहा---"लगा गए चूना ?"

गुप्ता ने उसे डांटते हुए बोला--"पहले क्यों नहीं बताया ? उनके दोस्तों को पूछा था क्या ?

"लेकिंन आपके वो तीनों लड़के भी आज कहाँ आए?"

"नहीं आये? उनको तो वक़्त पर ही छोड़ दिया था मैनें? वो क्यों नहीं आये?"

"मतलब ? वो आपके साथ थे?---रामू साइकिलों पर नज़र दौड़ाता हुआ ।

साइकिलों को चैक करते हुए रामू ने चीखते हुए कहा-- "सर जी ये तो वही साइकिलें हैं हमारी वाली । जो वो लड़के किराये पर ले गए थे?"

"ओह नो----!!!!!"--सर पर फिर हाथ मारते हुए गुप्ता जी धड़ाम से कुर्सी पर जा बैठे ।

रामु फिर बोला-- "सर जी वो उचक्के तो आपसे भी बड़े उचक्के निकले?"
💐💐💐
क्रमशः

आस्था

 




सत्ताईस साल की अंतरा आज साराबाई एक्सपोर्ट हॉउस के आफिस में उस दिन पहुंच कर बड़ी खुश थी और आधा घंटा जल्दी भी पहुंच गई थी । ब्रांच के जमादार ने अभी-सभी पोछा लगाकर सुखाने के लिए पंखा चला दिया था । अपनी टेबल पर पहुँच कर अपना बैग रखते हुए पहले अंतरा ने उमेद सिंह को आवाज लगाई - "उमेद एक कप कड़क चाय बना आज"

उमेद सिंह हैरान होकर मुड़ा और अंतरा मैडम की ओर देखने लगा । आज मैडम बनठन कर फिरोजी साड़ी पहने बालों को अच्छी तरह सँवारे हुए पीछे की तरफ लपेट कर छोटी सी जूड़ी बना रखी थी । सादी मगर बहुत ही सुंदर लग रही थी । उमेद ने टोकते हुए पूछा--"मैडम आज आप औऱ चाय?"

'हाँ उमेद, आज कड़क चाय पीऊँगी"--अपनी टेबल का सामान संवार कर रखते हुए सरसरी तौर पर अंतरा ने कहा ।

'मैडम आज कोई खास बात है क्या जो आपने चाय का ऑर्डर दिया?"

अपने बैग से एक बड़ा मिठाई का डिब्बा और दो पॉलीथिन के लिफाफे निकाल कर उमेद की ओर बढ़ाते हुए----
"हाँ उमेद आज मेरे लिए बहुत बड़ा दिन है और खास बात ये है कि मेरी बिटिया "आद्रिका' का आज बर्थडे है । आज वो आठ साल की हो गयी ।"

"बहुत-बहुत मुबारक हो मैडम !!!बस अभी बना के लाया कड़क चाय आपके लिए"--कहते हुए उमेद कैंटीन में जाने लगा तो अंतरा ने फिर कहा--"उमेद ?'

मैडम की आवाज सुन उमेद थोड़ा रुक गया ।

"जैसे ही सारा स्टाफ़ आ जाये तुम सबकी टेबल पर एक मीठा, एक नमकीन रख देना और फिर चाय दे देना ।"---मैडम ने आगे कहा ।

जमादार भी मैडम को विश कर के कैंटीन में चला गया । सारा स्टाफ धीरे-धीरे अपनी सीट पर पहुंच चुका था । उमेद सिंह कैंटीन से बाहर खड़ा मैडम के ईशारे का इंतज़ार कर रहा था । उसी वक़्त ब्रांच मैनेजर मिस साराबाई ब्रांच में दाखिल हुई औऱ अपने केबिन में चली गयी ।

अंतरा ने उमेद को इशारा किया और उमेद और स्वीपर राम आसरे ने सबके टेबल पर एक प्लेट में एक मीठा और नमकीन रखते चले गए और जन्म दिन की खबर बताते गए । सभी लोग  सुबह सुबह मिठाई खाने में मशगूल हो गए । कुछ खाने से पहले ही बधाई देने आने लगे और बाकि अभी खाने में ही मस्त लगे ।

अंतरा की इतनीं हैसियत तो नहीं थी लेकिन उसने खुशी-खुशी सो रुपये उमेद सिंह और सो रुपये जमादार राम आसरे को काम करने के एवज में दे दिए ।

उमेद औऱ राम आसरे ने मना भी किया लेकिन अंतरा ने उन्हें पैसे अपनी जेब में रखने को कहा ।
अंतरा के साथ ही बैठी इशानी ने अंतर को बधाई देते हुए कहा--"अंतरा खुशी में सब कुछ जायज होता तो है लेकिन खर्चा अपनी पॉकेट देख कर ही करना? ये देख लेना, जो भी खर्चा कर रही हो इसका कहीं तेरे बजट में फर्क तो नहीं पड़ रहा?

इस बात पर अंतरा ने थोड़ा उदास होते हुए इशानी को बताया -- "क्या करूँ इशानी, अगर मेरे बस में हो तो सारा खर्च कर दूँ । पर इतना सा खर्चा करने से भी मैं अपनी आद्रिका को थोड़ी सी खुशियां दे सकूँ मेरे लिए यही बहुत है"

उसी वक़्त घर से आद्रिका के दादू का फोन आता है तो वो फट उठ कर वो कैंटीन में चली जाती है और फोन पिक करती है-- "हाँजी पापा कहिए कैसे किया फोन?"

"बेटा अंतरा वो आद्रिका ठीक नहीं लग रही । तू घर आजा बेटा ।"

अंतरा का तो जैसे हलक ही सूख गया । पापा कभी भी ऐसे आफिस में फोन नहीं किया करते थे । आज कुछ ज्यादा ही गड़बड़ लगती थी जो उन्होंने फोन किया होगा । 

आद्रिका अभी तो आज आठ साल की हुई थी । बेटा अंश पांच साल का था । फोन अभी कान पर ही था । ब्रांच के लोग बारी-बारी से कभी कोई तो कभी कोई, बच्चे की बधाई देने आते जा रहे थे ।

लेकिन अंतरा  एक दीवार के सहारे फोन को कान पे लगाए जड़वत खड़ी न जाने किस सोच में डूब गई थी ।

दो साल पहले किसी वैध डॉक्टर ने बताया था कि उसको कब्ज़ की वजह से पेट दर्द रहता है । पापा ने अपनी हैसियत के हिसाब से बहुत से देसी इलाज करवाये । लेकिन दर्द पूरी तरह ठीक ही नहीं हो पा रहा था  ।

अस्पताल में डॉक्टरों की फीस देने की हैसियत न होने की वजह से वहां का इलाज नही करवा पाए ।
पहले कभी-कभी दर्द होता था । वैध की दवाई से फर्क पड़ जाता था । लेकिन अब दर्द कम होता है लेकिन पूरा ठीक नहीं होता ।

उमेद सिंह जैसे कैंटीन में आया तो अंतरा ने फट अपनी नम आंखों को अपने दुपट्टे से सहलाया और अपनी सीट पर जाकर अपना सामान समेटने लगी । उमेद की नज़रों से आंसू छुप न सके । वो समझ गया कुछ बात तो जरूर है । उसने बाहर आकर पूछा--"मैडम बिटिया रानी तो ठीक है न?

अंतरा की आंखों से टपकते आंसू अपनी कहानी कह गए ।

इशानी तो बिना कुछ पूछे ही सब समझ गयी और उसके पास आकर सर पर हाथ रख वो बोली -- "अंतरा चुपचाप से जल्दी घर निकल जा । यहॉं मैं देख लूँगी"

उमेद झट से बोला--"मैडम मैं पार्किंग से स्कूटर निकाल रहा हूँ जल्दी आ जाना"

घर पहुंची तो वैध बिटिया आद्रिका को चैक कर रहा था। उसने फिर दो गोलियां दी और कहा --"बाटला जी बिटिया को एक बार अस्पताल में  ज़रूर दिखा दीजिये ।"

बाटला साहब ने असहाय होकर वैध से पूछा- "वैध जी आपके पास कोई ऐसा करिश्मा नहीं है कि बिटिया रानी एकदम से ठीक हो जाये?"

पाँच साल का अंश उस वक़्त भी वहीं खड़ा था ।

वैध ने कहा-"अगर मेरे पास होता तो मैं तो आपके कहने से पहले अभी तक दे चुका होता  और बिटिया ठीक न हो चुकी होती ?"

छोटा सा अंश खड़ा-खड़ा सब सुन रहा था । उसे वैध पर बहुत गुस्सा आ रहा था ।

वो जल्दी से अंदर गया और छुप कर अलमारी से अपनी गुल्लक निकाली और छत पर जाकर उसे तोड़ दिया । सारे पैसे इकट्ठे कर उसने देखा एक सो सत्तर रुपये थे । उन्हें लेकर वो अपनी गली के कौने में एक बहुत बड़ी केमिस्ट की शाप पर गया और दुकानदार से बोला-- "मुझे एक करिश्मा दवाई दे दो"

"करिश्मा दवाई?"

"हाँजी अंकल, मेरी बहन बहुत बीमार है उसे देनी है उससे एकदम ठीक हो जाएगी"

"अपने पापा को भेजो बेटा ।"

"देखो मेरे पास पैसे भी है"

केमिस्ट ने बच्चे को बोला--"ऐसी कोई दवाई नहीं----"

केमिस्ट के कुछ कहने से पहले ही वहां पर आए एक कस्टमर ने बच्चे को जवाब दिया--"हाँ बेटा क्या चाहिए।"

"करिश्मा दवाई"

"किसने बताया बेटा ?"

"वैध जी ने बताया की उनके पास करिश्मा दवाई होती तो मेरी बहन उसी वक़्त ठीक हो होती । वो बहुत दिनों से बीमार है"

"कितने पैसे हैं तुम्हारे पास?"

"एक सो सत्तर रुपये हैं मेरे पास"

"हाँ !! इतने में तो आ जायेगी । लाओ दे दो मुझे और ले चलो मुझे अपनी बहन के पास"

घर जाकर उस शख्स ने आद्रिका को पूरी तरह चैक किया । वो शख्स अस्पताल का बड़ा सर्जन था । उसने अस्पताल में उसे दाखिल कर सारे टेस्ट करवाये और तीन दिन बाद उसका ऑपरेशन कर पेट से एक किलो वजन का एक ट्यूमर निकाला जिसकी वजह से असहनीय दर्द होता था ।

डॉक्टर ने बताया कि अगर इस ट्यूमर को इस वक़्त नहीं निकाला जाता तो ये फटने वाला था । जब बाटला साहब ने डरते-डरते डॉक्टर साहब को उनकी फीस पूछी तो उन्होंने उस बच्चे की ओर इशारा कर कहा-"अंश ने मेरी फीस एडवांस में दे दी थी ।

औऱ उसे अपनी गोद में उठा लिया । गोद में आते ही अंश ने पूछा--अंकल ? करिश्मा दवाई मिल गयी
थी न?"

"हाँ बेटा"

"देखा-!!! वैध ने कहा था उसी से ठीक हो जाएगा ।"--अंश ने कहा ।

उनकी बातें सुन कर अंतरा दूर खड़ी आँखों से खुशी के ऑंसू टपकाती रही ।

~~समाप्त~~

हर्ष महाजन
💐💐💐

Tuesday, February 28, 2023

बंटवारा

 

◆◆◆

एक एक्सीडेंट में वालदैन की मौत के बाद राजेश को दिल्ली आए तीन साल बीत चुके थे । नास्ता तैयार कर उस दिन राजेश ने अपना बैग उठाया और मौसम सुहाना देखकर ऑफिस के लिए घर से निकल पड़ा । उस दिन उसकी तबियत ठीक नहीं थी । मन मचला रहा था । ऐसे हो रहा था जैसे खाया पीया सब बाहर आ जायेगा । ऑफिस कोई ज्यादा दूर भी नहीं बस तीन किलीमेटर के फासले पर ही था । इसलिए उसने बस में जाने की बजाय पैदल जाना ही उचित समझा । अगर बस में बैठ कर सब कुछ बाहर आ गया तो कई लोगों के कपड़े कपड़े भी खराब होंगे और बेइज्जती होगी सो अलग ।

अभी वो ये सब सोचते-सोचते एक किलोमीटर ही गया होगा कि उसका जी और भी ज्यादा मचलाने लगा तो वो रास्ते में आये पार्क की दीवार के साथ खड़ा होकर वोमिटिंग आने की इंतजार करने लगा । खड़े खड़े पांच मिनट हो गए लेकिन तबीयत कुछ सुधरी नहीं और आस पास सब घूमता हुआ नजर आने लगा । उसमें इतनी हिम्मत नहीं लग रही थी कि वो अब घर वापिस जा सके । घबराहट और पसीने भी आने लगे थे । उसने देखा जहां वो खड़ा था उसके पांच दस कदम पर ही पार्क का गेट था । वो दीवार के सहारे पकड़-पकड़ कर पार्क में जाने की कोशिश करने लगा । लेकिन उसको अब चक्कर आने लगे थे । उसने अपने आपको किसी तरह  संभाला और फिर गेट पर ही खड़ा हो गया । आसमान गड़गड़ाने लगा । सर उठाकर ऊपर देखा तो काले बादल मंडराने लगे थे । ठंडी-ठंडी बुहार आने लगी थी । हल्की-हल्की बूँदा-बांदी शुरू हो गयी थी । खड़े-खड़े चक्कर कुछ कम लगे तो सोचा कि पार्क के अंदर ही चल के बैठा जाए ।
अभी अंदर चलकर बैठने की सोच ही रहा था कि बूँदा-बाँदी तेज होने लगी । राजेश झुकते हुए और क्यारियां पार करते हुए पार्क में लगी बड़ी छतरी के नीचे जाकर बैठ गया । वहां सीमेंट की बड़ी छतरी के डंडे के सहारे अपनी पीठ टिका ली तो उसे आराम लगा ।

बरसात एक दम तेज हो गयी और धीरे-धीरे मूसलाधार बरसने लगी । पार्क पूरा खाली हो चुका था ।  इक्का दुक्का लोग बचे, जो बारिश बन्द होने की इंतजार करने लगे थे । काले बादलों से फलक पूरी तरह घिर चुका था । अंधेरा पूरा छाने लगा ।  बिजली गड़गड़ाने लगी ।

अभी बैठे हुए कुछ ही देर हुई तो अचानक राजेश की नज़र पार्क के एक कोने में एक सीट पर गयी जहाँ एक बुज़ुर्ग बगल में एक थैला दबाए मूसलाधार बरसात में सिकुड़ कर बैठा था । उसके साथ ही उसकी लाठी भी पड़ी थी । राजेश काफी देर से उसे देख रहा था वो बुज़ुर्ग बार-बार गेट की ओर देखकर फिर आराम से सीधे हो कर बैठ जाता । राजेश समझ तो रहा था कि हो न हो वो बुज़ुर्ग किसी न किसी का इंतज़ार तो कर ही रहा था ।

लेकिन राजेश को ये समझ नहीं आ रहा था कि वो बुज़ुर्ग वहाँ बरसात में क्यों बैठा इंतज़ार कर रहा है? बरसात से बचने के लिए यहाँ छतरी थी यहाँ क्यों नहीं आ गया ? ऐसे तो इतनी उम्र में भीग कर वो तो बीमार हो जाएगा ?

राजेश अपनी तबीयत तो भूल गया और उसकी चिंता उसे परेशान करने लगी ।

उसने अपना लंच बैग उठाया और छतरी का आसरा छोड़ वो पार्क के कोने में बैठे उस बुज़ुर्ग की ओर चल पड़ा । बरसात अभी भी तेज थी ।

भीगते हुए राजेश ने उस बुज़ुर्ग के पास पहुंच कर उन्हें हाथ जोड़ कर नमस्कार किया तो राजेश ने महसूस किया कि जैसे उस बुज़ुर्ग को राजेश का उनके पास आना या उनसे बात करना उन्हें अच्छा नहीं लगा ।

राजेश ने कोशिश करते हुए उस सीट के कोने में अपने को टिकाया और झुककर बैठ गया । बरसात तेज थी थोड़ी देर भीगने के बाद तबीयत खराब होने की वजह से उसे ठंड महसूस होने लगी थी ।
उस बुज़ुर्ग ने उसकी तरफ एक बार देखकर फिर गेट की ओर देखा और ऐसे लगा जैसे वो मायूस हो गया हो?
राजेश की उत्सुकता इसलिए बढ़ने लगी थी कि इतना बुज़ुर्ग इंसान जिसकी उम्र लगभग नब्बे साल तो होगी ही जिसे ऐसी बरसात में भीगने से बचना चाहिए वो मुसलसल बरसात में ही बैठा क्यूँ इंतज़ार कर रहा है । ज़रूर कोई बात तो है? उसने कोशिश कर पूछ ही लिया--"सर आप किसी का इंतज़ार कर रहे है ?"

बुज़ुर्ग ने माथे पर बल डाल कर कुछ अजीब सी नज़रों से उसे देखा और अपने बगल में दबाए थैले को और भी जोर से दबा कर फिर गेट की ओर देखने लगा । लेकिन फिर उसने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी की ओर देखकर उसने कलाई को झटकना शुरू किया । दो तीन बार झटका दिया और फिर कान पर लगाकर सुनने की कोशिश करने लगा । शायद उसे अपनी घड़ी पर डाउट होने लगा था कि वो बन्द तो नहीं ?

फिर दुबारा घड़ी उसने अपने कान से लगाकर सुनने की कोशिश की और  राजेश की तरफ बेचैन नज़रों से देखने लगा । जब घड़ी से कुछ सुनाई नहीं दिया तो उसने उसकी ओर मुड़कर पूछा-- "आपके पास घड़ी है ?"

"हाँ-हाँ बोलियेगा?"

"वक़्त कितना हुआ है?"

"सर नो बजकर बत्तीस मिनट हुए हैं"--राजेश ने जेब से मिबाईल निकाल कर उसपर इस तरह हाथ किया कि वक़्त देखते वक़्त वो बरसात में भीग न जाये ।

"दस बत्तीस????".........!!!! एक दम हैरान होकर उस बुज़ुर्ग ने कहा ।

परेशानी उनकी पेशानी से साफ-साफ झलकने लगी थी और वो मन ही मन कुछ बड़बड़ाते हुए एकदम सीट से उठने लगे तो उनकी लाठी जो उनके साथ ही सीट पर पड़ी थी वो उन्हीं की टांग टच होने से नीचे ज़मीन पर गिर गयी ।

बरसात ने भी उसी वक़्त अपना जोर दिखाना शुरू कर दिया था ।

राजेश ने देखा कि उस बुज़ुर्ग को समझ नहीं आ रहा था कि वो अब क्या करे । कभी वो अपने लाये उस थैले को अपनी बाजू के नीचे दबाता और कभी वो अपनी लंबी कुर्ते की कमीज के नीचे करता ।

कभी वो सीट पर बैठ जाता तो कभी खड़ा हो जाता ।..............!!!!

उसकी इस असमंझस की स्थिति को देखकर राजेश को ये तो समझ आने लगा था कि वो बुज़ुर्ग किसी न किसी परेशानी से ज़रूर जूझ रहा था । उसको न जाने क्यूँ उसकी ये परेशानी में अपनी बेबसी नज़र आने लगी थी । वो चाह तो ये रहा था कि वो बुज़ुर्ग उसको अपनी परेशानी जल्दी से बता दे तो वो उसकी हर हालत में हेल्प करेगा । इसी बात को सोचते हुए राजेश ने उनसे फिर पूछा-- "आप किसी का इंतजार कर रहे हैं ? क्या मैं कुछ मदद कर सकता हूँ?"

बस इतना पूछना था कि वो बुज़ुर्ग टूट गया औऱ अपने थैले को देखते हुए सिसकता हुआ बोल पड़ा-- "सारा खाना भीग गया । अब वो क्या खाएगी ? भूखी रह जायेगी वो आज----भूखी रह जायेगी बेटा वो क्या खाएगी ?"--कहता हुआ वो बुज़ुर्ग अपने आपको सिसकने से रोकते हुए बच्चों की तरह हिचकियाँ लेने लगा । मगर अपना दर्द और वेदना रोक पाने में असमर्थ रहा और धीरे-धीरे फुट-फुट कर रोने लगा ।

राजेश से रहा नहीं गया--"अंकल आप रो क्यों रहे हैं ? बताइए न क्या बात है ? क्या पता में आपकी कोई मदद कर पाऊं?"---------!!!!

"नहीं बेटा आप कुछ नहीं कर सकते । आज वो भूखी रह जायेगी । अब तो ग्यारह भी बज गए होंगे न ?"

"हाँजी अब तो ग्यारह दस हो गए अंकल, बताओ न क्या बात है? कौन भूखी रह जायेगी ? किसने आना था आपके पास?"--रोते हुए बुज़ुर्ग से राजेश ने एक बार फिर पूछा ।

"मेरी पत्नी बेटा"--मुँह नीचे करके कहता हुआ वो बुज़ुर्ग ऐसे लग रहा था जैसे शर्मिंदगी से ज़मीन में गड़ा जा रहा हो ।

"पत्नी ???"-------!!!!---राजेश के मुँह से हैरानी से निकला .....स

"हाँ बेटा !!~~~~ क्या बताऊँ!!- मेरी पत्नी रोज आठ बजे रोज़ इसी जगह मुझे मिलती है और ये दो फुल्के (थैला दिखाते हुए) उसके लिए ही लेकर आता हूँ। रात की भूखी होती है वो यहीं से खाकर वापिस  चली जाती है । पता नहीं उसे क्या हया होगा? वो अभी तक नहीं आई?"--बिलखते हुए बुज़ुर्ग राजेश को बताने लगता है।

"लेकिन पत्नी ने आना कहाँ से था? वो आपके साथ नहीं रहते क्या?"--कुछ न समझते हए राजेश ने फिर पूछा ।

"नहीं बेटा?  वो मेरे छोटे बेटे के साथ रहती है ।"

"औऱ आप?"

"बड़े बेटे के पास"--------!!!

"ओह !!!!"---राजेश ने ह्म्म्म करते हुए गर्दन हिलाई और सीधा ऐसे बैठते हुए उनकी तरफ देखा जैसा वो सारी बात समझ गया हो और फिर धीरे से बुज़ुर्ग से पूछा---"आप दोनों एक ही बेटे के पास क्यों नहीं रहते ?"---अंदर की बात जानने के लिए राजेश ने फिर भी ये प्रश्न पूछ ही लिया ।

बुज़ुर्ग ने कांपते हुए स्वर में राजेश से कहा-- "बेटा !!! मुझे कहना तो नहीं चाहिए--(सिसकते हुए)--ऐसी औलाद खुदा किसी को न दे । इससे अच्छा इंसान बे-औलाद ही रहे तो अच्छा है ।"

"क्यों अंकल ऐसा क्या हुआ ?"

"बेटा आख़िरी उम्र में हमारे करोड़पति बेटों ने हमें बांट लिया । सारी उम्र सारी ज़िन्दगी इनके लिए हमने कुर्बान कर दी और देखो न ~~~~~~"--हाथ में पकड़े गीले थैले को दिखाता है वो रोने लगा और आगे कहने लगा-- मैं डाटा कंपनी में सिविल इंजीनियर था । मेरी पत्नी सीमांत कॉलेज की प्रिंसिपल थी । हम दोनों ने अपने बच्चों को इस काबिल बनाया की वो हमारे बुढापे का सहारा बनेंगे । मैनें और मेरी पत्नी ने इन दोनों के केरियर की खातिर अपनी हर प्रोमोशन ठुकरा दी औऱ लोन ले ले कर दोनों को एमबीए करवाया । अच्छे घरों में शादियां करवा दी ।  जब तक ये दोनों नॉकरी करते थे तो सब ठीक था ।

हम दोनों बड़े बेटे के साथ रहते थे । लेकिन धीरे-धीरे बड़े बेटे ने अपना बिसिनेस शुरू किया ओर खुदा की महर हुई बिसिनेस चल निकला। आमदनी बढ़ने लगी । जैसे जैसे आमदनी बढ़ने लगी न जाने क्या हुआ उनका दिल धीरे-धीरे छोटा होने लगा । शुरू-शुरू में उन्हें बिसिनेस टूर पर जाना होता कभी हमें छोटे बेटे के पास छोड़ कर चले जाते और कभी हम अकेले घर पर रहते । धीरे-धीरे उम्र बढ़ती गयी फिर जब भी टूर पर जाते तो पीछे से उनकी माँ को घर का सारा काम करने में दिक्कत आने लगी । कोई नॉकर रखने नहीं देते थे । मेरी पेंशन और पत्नी की भी अपनी पेंशन है  पर उनका सारा हिसाब बेटों के पास ही है । अब धीरे-धीरे जब वो छोटे बेटे के पास छोड़ के जाने लगे तो एक दिन छोटे बेटे ने अपनी मम्मी से कहा-- "जब बाहर ऐश करने जाना होता है तो उन्हें वो उनके पास छोड़ जाते है । ये क्या तरीका हुआ ?"

उसकी मम्मी ने कहा भी--"नहीं बेटा वो अपने बिसिनेस टूर पे जाते हैं ।

"आपको नहीं पता मम्मी"

इतना सुन उसकी मम्मी ने भी कहा-"अगर ऐसा भी है तो तू भी तो हमारा ही बेटा न?"

ज़िन्दगी इसी खटपट में कट रही थी पर हम दोनों इकट्ठे तो थे और खुश भी थे ।

लेकिन इन दोनों भाइयों में हमारी वजह से झगड़ा इतना बड़ गया कि वो अब एक दूसरे के नाम से भी चिढ़ने लगे थे ।

"फिर एक दिन----!!!!"---कहते हुए वो बुज़ुर्ग फिर रो पड़ा ।

"फिर एक दिन क्या? अंकल जी?"---राजेश अभी तक बिना टोके उनकी कहानी उन्हीं की जुबानी सुन रहा था और अंदर से उसे उनके बेटों पर गुस्सा भी आ रहा था ।

बुज़ुर्ग अपनी भूखी पत्नी के पार्क में आने की चिंता में भी था औऱ गेट की ओर भी देख रहा था कि शायद वो आ ही जाए?

गेट की ओर देखते-देखते उन्होंने आगे कहना शुरू किया--फिर ----वो हो गया !! जो इन बूढ़ी हड्डियों के लिए नहीं होना चाहिए था । कहता हुआ बुज़ुर्ग फिर सिसक पड़ा और अश्क़ों को बरसात में भी अपने कुर्ते की आस्तीन से पोंछते हुए आगे कहने लगा--बड़े वाले लड़के ने एक दिन सुबह-सुबह हम दोनों को उठा दिया और बोला बाऊ जी तैयार हो जाओ आज आप दोनों का अस्पताल में मेडिकल टेस्ट करवाना है कितने दिनों से तुम खांस रहे हो ।
हम दोनों खुश हो गए कि बेटे को अपने बूढ़े मां बाप की चिंता तो हुई औऱ फिर हम दोनों तैयार हो गए ।
अस्पताल से टेस्ट करवाकर जब लौट रहे थे तो बहु ने कहा --"वरुण? मम्मी और बाऊ जी को राहुल के घर ही छोड़ देते हैं न ? परसों हमने बाहर जाना है तो इस तैअफ़ फिर आना पड़ेगा ?"

"हाँ, हाँ रेणु ये ठीक रहेगा"

बड़े बेटे वरुण ने बहु कि हाँ में हाँ मिलाई औऱ कुछ ही देर में हम छोटे बेटे की दहलीज पे खड़े थे ।  बहु ने डोर बेल्ल बजायी और छोटी बहू ने दरवाजा खोला ।
हमें बाहर खड़ा देख उसके चेहरे पर अजीब से तेवर आ गए और उसने फट से कहा--"अब फिर से आ गए?"

बड़े बेटे ने तपाक से कहा---
"कैसी बातें कर रही हो अंतरा?"--औऱ फिर आगे उसने कहा--"बुजुर्गों से ऐसे बात करते है?"

"भाई साहब !!मेरा मुँह न ही खुलवाईये तो अच्छा है ?"

बस फिर क्या था । बड़ी बहु भी शुरू हो गयी और सफाई देने के लिए उसने कहा-- "अरे हमने बाहर जाना था परसों। बाऊजी जी को खांसी हो रही थी टेस्ट करवाने अस्पताल आये थे तो सोचा परसों दुबारा आना पड़ेगा इसी लिए हमने सोचा रास्ते में छोड़े जाते हैं?"

"अच्छा-अच्छा? पहले से छोड़ने का प्रोग्राम नहीं था?"--तंज करते हुए छोटी बहू ने कहा ।

"हाँ और नहीं तो क्या?"--बड़ी बहुबात को निपटता देख बोली ।

"औऱ वो जी अटैची साथ अपने आप चल के आ गयी क्या बाऊजी की?"-छोटी बहु ने हमारे आईचे खड़े बड़े बेटे के हाथ में हमारी अटैची देखते हुए कहा ।

बड़ी बहू तो ऐसे छुओ हो गयी जैसे सांप ने काट लिया हो और अपने पति वरुण की ओर बड़े गुस्से में आंखें फाड़ के देखने लगी ।

अटैची देखकर हम दोनों का तो हलक ही सूख गया । इसका मतलब हमारा बड़ा बेटा हमसे झूठ बोल के लाया । हमें यहाँ छोड़ने की तैयारी पहले से ही थी ।

उतनी देर में अंदर खड़ा हमारा छोटा बेटा भी बोलना शुरू हो गया । सारे मोहल्ले में हमारा मजाक ही हो गया ।

झगड़ा इतना हो गया कि वहीं बाहर खड़े-खड़े दोनों भाइयों की अदालत ने अपने फैसले में हमारा 'एक जिस्म दो जान' को दो हिस्सों में बंटवारा कर दिया।

हम दोनों ने हाथ जोड़ कर कहा भी कि हमारे लिए तुम आपस में झगड़ा मत करो । हमें अकेला छोड़ दो अलग राह लेंगे ।  हमारी पेंशन इतनी है कि हम अकेले ही गुजारा कर लेंगे ।

लेकिन दोनों ने एक साथ मिलकर जोर से कहा-- नहीं, आप हमारे होते हुए ,अकेले नहीं रहेंगे और फिर लोग क्या कहेंगे ? अब फैसला हो चुका है ।

औऱ

बड़े बेटे वरुण ने मेरा हाथ पकड़ा औऱ अपनी गाड़ी में बिठा कर चल दिया और मेरी पत्नी वहीं झुकी हुई मेरी ओर कदम बढ़ाने लगी तो उसकी आँखों से गिरते आंसू किसी को भी नज़र नहीं आये ।

फिर छोटे बेटे ने उनकी पतली हड्डियों को बाजू से एक बोझ की तरह पकड़ा और अपने घर के अंदर ले गया ।

हमने अपनी पेंशन बुक तक देखे अर्से बीत गए । मेरी पेंशन बड़े लड़के के पास और पत्नी की पेंशन छोटे के पास ।

"अब छोटा लड़का अपनी माँ को कुछ खाने को इसलिए नहीं देता कि तंग आकर वो खुद ही अपने बड़े लड़के के पास चली जाए ।"----कहता हुआ बुज़ुर्ग फिर गेट की ओर देखने लगा और जोर से रोते हुए कहने लगा--"कहीं वो दुनियाँ से--------!!!!"

अभी उसने इतना ही कहा राजेश ने उनके मुंह पर हाथ रखते हुए कहा--"नहीं अंकल ऐसा मत सोचो, हो सकता है कोई काम आ गया हो?"

"नहीं वो भूखी बेचारी लाचार को क्या काम हो सकता है ?"

"जैसे आज बरसात आ गयी? हो सकता है इसी वजह से न आई हो?"

"नहीं ? हमने ये प्रॉमिस किया था कुछ भी हो जाये आना ज़रूर है । कोई आंधी तूफान हमें नहीं रोक सकता । लगता है आज वो----!!!!"--कहता हुआ  वो बुज़ुर्ग ने राजेश के हाथ से लाठी ली और जैसे ही जाने को हुआ ।

तो पीछे से आवाज आई --"अजी सुनो !! कहाँ चल दिये ?.........!!!"

राजेश ने देखा एक बहुत ही सुंदर बुढ़िया । झुकी हुई गर्दन, छरहरा बदन । उम्र लगभग नब्बे साल !!
नैन नक्श पतले पतले आगे आते हुए फिर बोली-- "इतना ही इंतज़ार बस?"

अपनी बुढ़िया को देख वो बुज़ुर्ग सब गिले-शिकवे भूल गया । लाठी हाथ से छूट गयी । टेढ़े-मेढ़े चलते हुए उसने उसे अपनी आघोष में इस तरह लिया जैसे बरसों उससे बिछुड़ा मिला हो ।

राजेश अब सीट से दूर खड़ा इत्मीनान से ये मधुर मिलन देख कर अश्क़ों को बहाता हुआ बहुत ही खुशी महसूस कर रहा था और सोच रहा था कि कितने कायर और मक्कार होंगे वो बच्चे जिन्होंने इन दो पाक और पवित्र रूहों को उम्र के आखिरी पड़ाव में एक दूसरे से अलग कर रखा है ।

इतने में राजेश ने देखा कि उस बुज़ुर्ग ने झट से अपने कांपते हाथों से अपने थैले से वो कागज का पुलिंदा निकाला जिसमें वो अपनी बुढ़िया के लिए दो परांठे लेकर आया था । कागज खोला तो परांठे बरसात से गल चुके थे । वो बुज़ुर्ग कभी परांठों की तरफ तो कभी अपनी बुढ़िया की ओर देखने लगा और फिर आंसू बहाता हुआ बोला--"अब ये क्या हो गया?"---शर्मिंदगी महसूस करता हुआ फिर अपने परांठे की ओर देखने लगा ।

राजेश सब समझ गया । उसने अपने बैग से अपना लंच बॉक्स निकाला और बुज़ुर्ग अंकल के पास जाकर उनके पाँवों को हाथ लगाकर पूछते हुए बोला--"अगर माँ को खाना खिलाने का सौभाग्य आज आप मुझे दे दो तो खुदा कसम मैं अपने आपको बड़ा भाग्यवान समझूंगा ।"--कहते हुए राजेश उस बुज़ुर्ग के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया ।

उस वक़्त उस बुज़ुर्ग की आंखें भर-भर कर बहुत कुछ कहना चाहती थीं और मुसलसल  बयाँ कर रहीं थीं कि ऐसे प्यार को पाने के लिए उनकी आंखें तरस गयीं थी ।

उस दिन के बाद वो बुज़ुर्ग जोड़ी को राजेश ने कभी5जमK उस पार्क में आने नहीं दिया ।

~~समाप्त~~

हर्ष महाजन

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यह कहानी एक काल्पनिक रचना है और इसमें दिखाए गए सभी पात्र और पात्रों के नाम,स्थान और इसमें होने वाली सभी घटनाएं पूर्णतया: काल्पनिक हैं । इस कहानी/ धारावाहिक का किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति या घटना या स्थान से समानता पूर्णत: संयोग मात्र ही हो सकता है । इस धारावाहिक का उद्देश्य किसी भी व्यक्ति, धार्मिक समूह सम्प्रदाय, संस्था, संस्थान, राष्ट्रीयता या किसी भी व्यक्ति वर्ग , लिंग जाति या धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का कतई नहीं है ।
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